23 मार्च शहादत दिवस
शहीद-ए-आज़म भगतसिंह और साथियों की अंतिम यात्रा -केशव भट्टड़
8 अप्रेल 1929 को दिल्ली के सेन्ट्रल असेम्बली हॉल में किये गए बम धमाको की ऊँची आवाज़ ने ब्रिटिश साम्राज्य की नीवं हिला कर रख दी विधान सभा के सदस्यगण हड़भड़ी में इधर उधर भागने लगे धुंए और आवाज़ के दोनों बमों के विस्फोट से किसी को विशेष क्षति नहीं हुई दर्शक दीर्घा से बम फेंकने वाले दोनों युवक बम विस्फोट से फैले धुंए में भाग सकते थे किन्तु वे वहीँ रहे और जोर जोर से नारे लगाने लगे- “इन्कलाब जिंदाबाद / साम्राज्यवाद हो बर्बाद / दुनियां के मजदूरों एक हो” उन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन की ओर से जारी लाल पर्चों का पुलिंदा फेंका और पूरी दुनिया को संदेश दिया- “ बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज़ की जरुरत होती है .....व्यक्तियों की हत्या करना आसान है,पर आप विचारों की हत्या नहीं कर सकते बड़े साम्राज्य बिखर गएँ हैं जबकि विचार जीवित रहते हैं जब भी क्रन्तिकारी विजय अभियान पर निकले हैं तब बोरबोंस और ज़ार तिनकों की तरह बिखर गए हैं” घटना स्थल से गिरफ्तार क्रन्तिकारी थे श्री भगतसिंह और श्री बटुकेश्वर दत्त बाद में कुछ सहयोगी भी गिरफ्तार हुए मुकदमा चला तो भगतसिंह ने न्यायालय का उपयोग समाजवाद के सिद्धांत को लोकप्रिय बनाने के लिए एक मंच के रूप में किया
23 मार्च 1931 को जब 23 वर्ष और करीब छः महीने की उम्र के युवा श्री भगतसिंह को उनके ही हमउम्र श्री सुखदेव व लगभग एक वर्ष छोटे श्री राजगुरु के साथ लाहौर जेल में फाँसी दी गयी थी तो उसके कुछ घंटे पहले लाहौर में हजारों लोगों की जनसभा इन युवकों की फाँसी रुकवाने के लिए चल रही थी आशंका यह थी कि इन देशभक्त युवाओं को 24 मार्च की सुबह फाँसी दी जायेगी, जैसी की दुनिया भर में फाँसी देने की परंपरा है लेकिन सभा समाप्त होते-होते यह समाचार पहुँच गया कि इन युवकों को 23 मार्च की शाम को सात बजे ही फाँसी पर लटका दिया गया था सैकड़ों लोग लाहौर जेल की ओर दौड़ पड़े, लेकिन ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने हर स्थिति से निपटने की तैयारी कर रखी थी फाँसी के बाद इन युवकों की अभी तक ठंडी न पड़ी लाशों को काट-काटकर क्षत-विक्षत करके, बोरों में भरकर जेल के पिछले दरवाजे से निकला गया और एक ट्रक में डालकर फिरोजपुर की ओर ले जाया गया लोगों को भी इसकी खबर हो गयी और उस जमाने में, जब न तो इतनी कारें आदि थी और न देर रात तक रेलगाडियां-बसें आदि वाहन चलते थे, लोग पैदल और बैलगाड़ियों या अन्य कोई भी साधन इस्तेमाल कर लाशों को ले जा रहे ट्रक के पीछे दौड़ पड़े देर रात में फिरोजपुर शहर से एक पंडित व ग्रंथि को जबरदस्ती ट्रक में बिठाया गया, कुछ किरोसिन के टिन लिए गए व थोड़ी बहुत लकडियाँ उस इलाके से इकट्ठी की गयी जो उन दिनों लगभग जंगल ही था रात में किसी वक्त जल्दी-जल्दी लाशों पर किरोसिन डाल व अपर्याप्त लकडियाँ रखकर जलाया गया और पीछा करते-करते लोग, जिसमे भगतसिंह की छोटी बहन बीबी अमर कौर भी शामिल थी, जब गंडासिंह- वाला गांव के वीरान इलाके में पहुंचे तो गीली व हल्की गर्म मिट्टी से उन्हें किरोसिन की गंध व हाथ से मिट्टी खोदने में हड्डियां व अधजले मांस के टुकड़े मिले उस जनसमूह में फिरोजपुर शहर के लोग भी आधी रात के बावजूद शामिल हो गए थे और इस मिट्टी से इन शहीदों की अधजली मांस सनी अस्थियों को चुनकर लोग 24 मार्च की सुबह तक लाहौर पहुँच गए थे लाहौर उन दिनों भारत की राजनीति व आज़ादी की लड़ाई का बहुत बड़ा केंद्र था उन दिनों कांग्रेस पार्टी के मुख्यालय ब्रेडले हॉल, लाहौर में जमा जनसमूह में भारी आक्रोश व दर्द था वहीँ से इन अस्थियों को बाकायदा सम्मान के साथ अर्थियों में बदलकर रावी तट पर ले जाया गया और जहाँ पर 17 नवंबर, 1928 को लाला लाजपत राय का उनकी मृत्यु के बाद दाह संस्कार किया गया था, उसी स्थान पर इन तीनों देश भक्तों का अंतिम संस्कार हजारों लोगों के जनसमूह ने आँखों में खून के आंसुओं के साथ किया 24 मार्च को लाहौर में व देश के अन्य बहुत-से शहरों-कस्बों-गावों में भी न चूल्हा जला, न दुकानों-संस्थानों के ताले खुले, रोषपूर्ण प्रदर्शन अवश्य अनेक स्थानों पर हुए इस समय तक भारतीय जनता के ह्रदय में भगतसिंह का जो स्थान बन गया था, उसे सबसे अच्छी तरह कांग्रेस पार्टी का इतिहास लिखने वाले विद्वान व नेता वी. पट्टाभि सीतारमैया ने बयाँ किया है, जिनके अनुसार इस समय जनता के ह्रदय में ‘लोकप्रियता के मामले में’ भगतसिंह का स्थान महात्मा गाँधी से किसी भी तरह ‘कम न था’
भगतसिंह और उनके साथी राजनीतिक आज़ादी के साथ आर्थिक और बौद्धिक आज़ादी भी चाहते थे उनका उद्धेश्य ही महान और पूरी आबादी और आज़ादी के लिए था ये उद्धेश्य आज भी कितने प्रासंगिक हैं, आप स्वयं सोचिये- 01. भारतीय मजदूरों (कामगार, नौकरीपेशा) और किसानों का एक पूर्ण गणराज्य स्थापित करना, 02. साम्प्रदायिकता, जाति-भेद और वर्ण व्यवस्था का विरोध करना, 03. एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण समाप्त करना, 04. राष्ट्रीयता के आधार पर नौजवानों में देशभक्ति की भावना पैदा करना, और 05. आर्थिक, सामजिक और औद्योगिक क्षेत्रों में होने वाले शोषणों के खिलाफ आन्दोलनों के साथ सहानुभूति रखना और ऐसे लोगों की मदद करना जो किसान-मजदूरों के आदर्श गणतांत्रिक राज्य की प्राप्ति में सहयोगी हों
उत्सवधर्मिता और पाखण्ड से बाहर आकर हम भारत के स्वाधीनता संग्राम के विभिन्न चरणों को पुनः परख सकते हैं, एक नयी दृष्टि पा सकते हैं और क्रांतिकारी विचारक और चिन्तक भगतसिंह के अधूरे स्वपनों को पूरा करने की पहल कर सकते हैं अशफाकुल्ला खां ने लिखा था- उठो-उठो सो रहे हो नाहक / पयामे-बांगे-जरस तो सुन लो / बढ़ो की कोई बुला रहा है / निशान मंजिल दिखा दिखा कर (पयामे-बांगे-जरस – घंटे की आवाज़ का संदेश) ब्रिटिश साम्राज्यवाद से राजनीतिक मुक्ति के बाद भारतीय उपमहाद्वीप की हालात पर ‘फैज़’ ने लिखा- “ये दाग-दाग उजाला, ये शबगज़ीदा सहर / वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं” भगतसिंह के सपनो का देश बनाने का संघर्ष आज भी जारी है आज भी भगतसिंह का यह आव्हान हमें निरर्थक मरने से बचा सकता है- “ संसार के सभी गरीबों के , चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम सारे भेदभाव मिटाकर एक हो जाओ ” काल की धुरी पर लगातार चल रही इस संघर्ष यात्रा में कमजोर-जरूरतमंद मनुष्य और दबी-कुचली मानवता को वैचारिक राह दिखाने वाली इन प्रेरणादायक हुतात्माओं को मेरा विनम्र प्रणाम “हुतात्मराज्ञां चितिकासमक्षं प्रत्येक वर्ष भवितोत्सवैकम् इदं हि तेषां स्म्रितिचिन्हमेव तथैव ते सर्वजनै: स्मृताः स्यु भावार्थ-शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा
(सामग्री स्त्रोत: भगतसिंह की छोटी बहन बीबी अमर कौर के पुत्र जगमोहन सिंह द्वारा भगतसिंह जन्मशती समारोह पर कोलकाता में दिए गए वक्तव्य और भगतसिंह जन्म-शतवार्षिकी पर प्रकाशित, अजेय कुमार द्वारा सम्पादित, ‘उद्भावना' विशेषांक)
No comments:
Post a Comment