Sunday, May 23, 2010

बेमिसाल मिसाल शमशेर - ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’

कोलकाता 13 मई पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज द्वारा कोलकाता प्रेस क्लब के पहले हिंदी भाषी अध्यक्ष और पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज के कार्यकारी अध्यक्ष राज मिठौलिया की अध्यक्षता में आयोजित कवियों के कवि’ शमशेर बहादुर सिंह के जन्मशती वर्ष का 12 मई को समाज के कार्यालय में वरिष्ठ कवि श्री ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’ ने उदघाटन किया अपने उदघाटन वक्तव्य में ‘पाषाण’ ने कहा कि यह वर्ष बड़ा ही महत्वपूर्ण है ‘अज्ञेय’, ‘नागार्जुन’, फैज़ अहमद फैज़, केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर बहादुर सिंह का यह जन्मशती वर्ष है ये सारे ही कवि जीवन के ताप से बने थे जीवन की सुविधाओं का रास्ता इन्होनें नहीं चुना एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसने जन-ज्वार से अपने को अलग रखा उन्होंने शमशेर जन्मशती वर्ष के आयोजन के लिए पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज को बधाई देते हुए कहा कि शमशेर एक बेमिसाल मिसाल हैं

[शमशेर मुहब्बत और खूबसूरती की तलाश के अद्वितीय शब्द शिल्पी थे वे उस सियासत के खिलाफ लगातार जूझते रहे जो आदमी और आदमी के प्यार का रिश्ता तोड़ती है खूबसूरती की उनकी तलाश किसी एक देश और जाति तक नहीं रूकती उन्हें अमरीका का ‘लिबर्टी स्टेच्यु’ ‘मास्को के लाल तारे’ से कम खूबसूरत, कम लुभावना नहीं लगता सही अर्थों में वे विश्वचेतस कलाकार थे ]

“ शमशेर जी चूँकि किसी दौड़ में शामिल नहीं थे , अंतः उस अर्थ में उन्हें कहीं पहुँचना भी नहीं था पर जो चलती गाड़ी में सवार नहीं होता, वह पिछड़ जाता है इस तेज रफ़्तार वाली दुनिया को शमशेर जी सम्हाले हुए थे – कहना उनके प्रति अतिरिक्त श्रद्धा प्रकट करना होगा, पर शायद यह कहना आलोचनात्मक दृष्टि का परिचायक माना जायेगा कि तेज दौड़ती दुनिया में वे लगभग मिसफिट थे काश ! ऐसे दो-चार ‘मिसफिट’ हमें मिल सकें तो यह दुनिया इतनी निराशा से भरी न लगे....”
रंजना अरगड़े की ये पंक्तियाँ जहाँ शमशेर जी के कवि, रचनाकार का एक परिचय और महत्व बताती हैं वहीँ बेमिसालपन का रहस्य भी खोलती हैं शमशेर यह बेमिसालपन इसलिए भी – और इसलिए भी नहीं ; बल्कि इसलिए ही हासिल कर सके कि वे किसी ‘होड़’ और ‘दौड़’ की जल्दबाजी में नहीं थे इस होड़ और जल्दबाजी का जो नतीजा आज हिंदी रचनाशीलता भोग रही है – वह भी तो शमशेर जी के बेमिसालपन का महत्व हमें बताती ही है सचमुच हिंदी रचनाशीलता की दुनिया में तब भी और अब भी बेमिसाल रह गए हैं शमशेर जी अर्जित सत्य को अपनी अनुभूतियों के प्रति साक्षी बनाने के आग्रही शमशेर जी कहते हैं-“ कवि जिन सत्यों को उद्घाटित करता है, उनका वह अपनी अनुभूतियों में साक्षी होता है”
तात्कालिकता की होड़ से अलग रह कर ही मुमकिन हो पाया शमशेर का काव्यसृजन शमशेर के सर्जक
का सटीक मूल्यांकन करते लगते हैं मुझे आलोचक अरुण महेश्वरी जब वे लिखते हैं – “ शमशेर की कवितायेँ यथार्थ और स्वप्नों के अनेक रंगों वाले निकटस्थ और दूरस्थ परस्पर विलीन होते बिबों का, मौन और मुखर भावों का एक ऐसा निजी संसार है, रिक्तताओं की ऐसी आकर्षक घाटियाँ है जो पाठक को किसी सम्मोहक इंद्रजाल की भांति अपनी ओर खींचती और गहरे उतारती जाती है”
गहरे उतर कर देखें तो स्पष्ट हो जायेगा कि शमशेर रचित उनका निजी संसार और सम्मोहक इंद्रजाल छायावादी, रहस्यवादी वायवीयता के सामानांतर एक नए कलासंसार की भी सृष्टि है जो कविता और चित्रकला की बारीकियों की परस्पर घुलनशीलता के अभाव में असंभव थी इसी घुलनशीलता में ही छिपा है शमशेर का रचा बसाया निजी एकांत, जो उन्हें होड़ से अलग ‘काल से होड़’ लेने की शक्ति देता है वे निश्चय ही विशिष्ट थे किन्तु काफिले से अलग नहीं वे उस मुक्तिबोध के सखा थे जिनका आप्त कथन है-“ मुक्ति अकेले नहीं मिलती”
मुक्तिबोध से अधिक सटिक और मार्मिक शिनाख्त कवि कलाकार शमशेर की और कौन कर पाता ? मुक्तिबोध लिखते हैं – “ शमशेर निःसंदेह एक अद्वितीय कवि हैं उनकी काव्य यात्रा नितांत स्वाभाविक है बिलकुल खरी है साथ ही वह रसमय होते हुए उलझी हुई है – जितनी कि और जैसी कि प्रत्येक वास्तविकता, अपनी मौलिक विशिष्टता में उलझी हुई है ”शमशेर की कविता का एक केंद्रीय गुण है अभिव्यक्ति कौशल की संश्लिष्टता
और यही शमशेर डंके की चोट पर घोषित करते हैं मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ को एक महान राष्ट्रीय कविता हम तो ‘अँधेरे में’ को महान राष्ट्रीय कविता भी मानते हैं – अद्वितीय राष्ट्र कविता भी – शमशेर की गवाही के साथ
शमशेर अंत तक ताजा बने रहे,नये बने रहे नवगति, नवलय, ताल छंद नव की जो आकांक्षा महाप्राण निराला ने व्यक्त की थी, वह शमशेर में आकार पा सकी आखिर शमशेर के लिए निराला ‘सघनतम की आँख’ जो थे अमूर्त कला शिल्प के सूक्ष्म चितेरे शमशेर की ही एक कविता ‘माई’ की पंक्तियाँ हैं – “होंठ में सो गये शब्द / भाव में खो गये स्वर / एक पल हो गया कितने अब्द”
‘अखिल की हठ-सी’ उनकी अभिव्यक्ति का रहस्य अखिल की चिंता से जुड़े बिना जानना संभव नहीं शमशेर की मिसाल सिर्फ शमशेर थे और कोई नहीं सुनने से अधिक पढ़ने की चीज हो गयी कविता के इस जमाने में शमशेर की कविता हड़बड़ी में सलटाये जाने की छूट नहीं देती वह धारा प्रवाह बाँचे जाने की चीज नहीं है साहित्य के धुंआधार प्रवचनकर्ताओं के लिये शमशेर की काव्यकला एक चुनौती थी, चुनौती रहेगी शमशेर ने अपना पाला कभी नहीं बदला, शत्रुपक्ष की लाख-लाख कोशिशों के बावजूद
दो पंक्तियों के बीच, कभी-कभी दो शब्दों के बीच शमशेर जो मौन साधते हैं, जो अंतराल देतें हैं, यदि वहाँ थम कर आगे न बढ़ा जाये, उनके इस्तेमाल किये गए विरामो को न पकड़ा जाये तो न तो उनकी अभिव्यक्ति का सही आस्वाद लिया जा सकता है, न कविता के मर्म तक पहुंचा जा सकता है
शमशेर संस्कार और संकल्प के द्वंद्व के कवि थे उन्हें विरासत में मिले संस्कार मध्यवर्ग के थे जब कि उनके संकल्प सर्वहारा के मुक्ति संग्राम के 1946 में ही वे जान गये थे कि दुविधाओं का अंत कहाँ है और नये समाधान, नयी अभिव्यक्ति की दिशा किधर उस वक्त की उनकी पंक्तियाँ है –

“घिर गया है समय का रथ कहाँ
लालिमा से मढ़ गया है राग
भावना की तुंग लहरें
बंध अपना, अंत अपना जान
रोलती है मुक्ति के उदगार”

भावना और उभरते यथार्थ की रगड़ से फूटती चिनगारियों ने शमशेर को नयी रौशनी दी थी वह समय
तेलंगाना- आंदोलन की पृष्ठभूमि का समय थायाद रखना चाहिये कि शमशेर ‘कम्युनिष्ट कम्यून’ में रह रहे थे – बम्बई में शमशेर ने अपना पथ, अपना पक्ष चुनने में कोई देर न की, कोई हिचक न दिखाई ‘ ‘मार्क्सवाद’ उनके लिये ऑक्सीजन था ! हाँ, आलोचक शिव कुमार मिश्र बिलकुल ठीक कहते हैं कि शमशेर इतने सहज कवि नहीं हैं, जिसे आसानी से घूंट घूंट पी लिया जाये
1949 में बात साफ़ होने और लड़ाई के नये रूप तलाशने की छटपटाहट के बीच उन्होंने लिखा – कामरेड रुद्रदत्त भारद्वाज की शहादत की पहली वर्षी के मौके पर – “ देखता है मौन अक्षय वट / क्रांति का एक वृहद कुंभ / क्रांतिमय निर्माण का / एक वृहद पर्व / चमकती असी धार-सी है / धार गंगा की / हरहरा कर उठ रहा है नव जन-महासागर ” मिथकीय प्रतीकों और नयी जनप्रेरणाओं का अवलेह शमशेर की कविताओं को सदा नयी सामर्थ्य देता रहा अक्षयवट का मौन और नव जन-महासागर की हरहराहट का एक साथ घटित यह संयोग बताता है कि शमशेर पूर्ण संश्लिष्टता के साथ यथार्थ देख रहे थे,परख रहे थे अगर वे विवादस्पद रहे तो किन्ही क्षेत्रों में अपनी अद्वितीयता के ही कारण उनके कलाकार में काल से होड़ लेने की अकूत ताकत बनी रही गहरी मानवीयता और जीवन-राग से सघन संपृक्तता के कारण शमशेर ने बहुत कम कवितायेँ लिखी होंगी इकहरी अभिव्यक्ति वाली उनका एक गीत देखें – “ धरा शिर / ह्रदय पर / वक्ष बांह से / तुम्हें मैं सुहाग दूँ / चिर सुहाग दूँ / प्रेम-अग्नि से तुम्हें / मैं सुहाग दूँ / विरह-आग से – तुम्हें / मैं सुहाग दूँ” शमशेर मुहब्बत और खूबसूरती की तलाश के अद्वितीय शब्द शिल्पी थे वे उस सियासत के खिलाफ लगातार जूझते रहे जो आदमी और आदमी के प्यार का रिश्ता तोड़ती है खूबसूरती की उनकी तलाश किसी एक देश और जाति तक नहीं रूकती उन्हें अमरीका का ‘लिबर्टी स्टेच्यु’ ‘मास्को के लाल तारे’ से कम खूबसूरत, कम लुभावना नहीं लगता सही अर्थों में वे विश्वचेतस कलाकार थे उन्होंने कहा था-“ सार हम होते/ अनुपम भूत भविष्य के/ यदि हम वर्तमान में/ एक साथ/ हँसते–रोते गाते/ एक साथ ? एक साथ ? एक साथ ?”
शमशेर शरीर से भले चले गए , भारतीय कविता से शमशेरियत को कभी विदा नहीं होना है थे, हैं और रहेंगे हिंदी कविता के आकाश में एक और सुरमई शिखर शमशेर बहादुर सिंह
पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज के महासचिव डॉ. अशोक सिंह ने कहा कि समाज ने सबसे अधिक जोर साहित्यिक कार्यक्रमों पर दिया है उन्होंने बताया कि सचिव मंडल के सर्वसम्मत निर्णयानुसार पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज, बांग्ला भाषी समाज के साथ सांस्कृतिक संवाद आरम्भ करने के लिये, भारतीय सिनेमा के जीनियस ऋत्विक घटक की फिल्म “मेघे ढाका तारा” के पचास वर्ष पर संगोष्ठी आयोजित करेगा और विश्वकवि रविंद्रनाथ टेगौर की 150 वीं जयंती को गरिमा के साथ मनायेगा यह वर्ष भारतीय कविता के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है कवि शमशेर बहादुर सिंह, फैज़ अहमद फैज़, नागार्जुन, अज्ञेय और केदारनाथ अग्रवाल का यह जन्मशती वर्ष है जिसे मनाने का निर्णय सचिव मंडल की बैठक में सर्वसम्मति से लिया गया है इसी श्रृंखला में आज ‘कवियों के कवि’ शमशेर बहादुर सिंह के जन्मशती वर्ष का उदघाटन ‘पाषाण’ जी ने किया है
शमशेर जन्मशती वर्ष के उदघाटन पर्व की अध्यक्षता करते कोलकाता प्रेस क्लब के भूतपूर्व अध्यक्ष राज मिठौलिया ने कहा कि समाज ने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है आशुतोष केसर ने सभी का आभार व्यक्त किया संचालन केशव भट्टड़ ने किया

केशव भट्टड़

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