दुर्गापूजा : दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक उत्सव
केशव भट्टड़
जब अशुभ शक्तियों का प्रकोप बढ़ गया, शुभ शक्तियों ने अपनी शक्ति दुर्गा में संगृहीत कर उन्हें असुर से लड़ने का आग्रह किया अपने दस हाथों में तलवार, शंख, चक्र, माला, घंटा, तीर, धनुष, भाला आदि हथियारों से दुर्गा ने असुरों का नाश किया और स्वर्ग का उद्धार लंका युद्ध से पहले राम ने शक्ति पूजा की और शक्ति दुर्गा से विजय का आशीर्वाद मिला रावण का संहार हुआ विजया दशमी को रावण की अंत्येष्टि हुई रामायण, महाभारत, वेद, पुराण आदि में ये सन्दर्भ बहुतायात में मिलते हैं अशुभ शक्तियों पर शुभ शक्तियों की विजय का पर्व है दुर्गापूजा
पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा को अकालबोधन, मायेर पूजो, दुर्गोत्सव, शरदोत्सव, शारदीय पूजा, महापूजा के नाम से भी जाना जाता है आजकल पूजा कहने मात्र से दुर्गापूजा का ही बोध होता है पश्चिम बंगाल के कोलकाता, बहरामपुर, सिलीगुड़ी और लतागुड़ी (जलपाईगुड़ी) में दुर्गापूजा भव्यतम रूप में मनाई जाती है
इस पर्व को झारखंड, उड़ीसा, आसाम, त्रिपुरा, बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली में दुर्गापूजा के नाम से ही मनाया जाता है राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब,जम्मू-कश्मीर, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, केरल में इसे नवरात्री उत्सव, आंध्र में बोम्माला कोलुवु, तमिल नाडू में बोम्मई गोलू, कर्णाटक में मैसूर दशहरा, हिमांचल प्रदेश में कुल्लू दशहरा के नाम से मनाया जाता है केरल में विजयादशमी को विद्यारम्भम (शिक्षा की शुरुआत) के रूप में भी मनाया जाता है और सरस्वती की पूजा की जाती है उड़ीसा में दुर्गा की मूर्ति को गोसानी और दशहरा को गोसानी यात्रा कहते हैं उड़ीसा में नेताजी बोस ने दुर्गापूजा को ब्रिटिश राज के विरुद्ध नौजवानों को संगठित करने के उद्धेश्य से सार्वजनीन रूप से प्रचलित किया भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से दुर्गापूजा अछूती नहीं रही
भारत के बाहर बंगलादेश, नेपाल, भूटान, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया आदि देशो में भी दुर्गापूजा मनाई जाती है पूर्वी बंगाल (बंगलादेश) में इसे भगवती पूजा कहा जाता है नेपाल में दशहरा को दशैं (या दशन) कहा जाता है यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया में दुर्गा की मूर्तियां बंगाल के मूर्तिकारों की बस्ती ‘कुम्हारटोली’ से बनाकर भेजी जाती हैं लंदन के ईलिंग टाउन हॉल में लंदन शरदोत्सव द्वारा दुर्गापूजा का आयोजन किया जाता है लंदन में आयोजित होने वाली पुजा की मूर्तियों का विसर्जन टेम्स नदी में करने की अनुमति कुछ वर्षों पहले ही मिली है
सन 1757 ई. में कलकत्ता के शोभाबाजार राजबाड़ी के राजा नवकृष्ण देव ने लोर्ड क्लाइव के सम्मान में पहली बार शारदीय दुर्गा पूजा का आयोजन किया प्लासी युद्ध की विजय के बाद क्लाइव सभी को धन्यवाद कहना चाहते थे कलकत्ता का इकलौता चर्च सिराजुदोल्लाह ने नष्ट कर दिया था इसलिए राजा ने शारदीय दुर्गोत्सव मनाया जहाँ क्लाइव ने अपनी बात रखी 11 वीं शताब्दी के ग्रंथ अवनिमाया और 14 शताब्दी के विद्यापति के दुर्गाभक्तितरंगिणी में दुर्गापूजा का उल्लेख है इससे पता लगता है कि मध्ययुगीन बंगाल में दुर्गापूजा की परंपरा थी 17 वीं शताब्दी में राजशाही दरबार में तथा 18 वीं शताब्दी में नदिया में दुर्गापूजा मनाये जाने के दस्तावेज़ मिलते हैं उड़ीसा के रामेश्वरपुर में पिछले 400 सालों से एक ही स्थान पर दुर्गापूजा मनाई जा रही है वर्तमान में यह सबसे पुरानी पूजा मानी जाती है हावड़ा के कोटारंग के घोष महाशय अकबर के लशकर के साथ टोडरमल के नेतृत्व में यहाँ आये थे और यहीं बस गये उन्होंने इस पूजा की शुरुआत की ज़मींदारों और रजवाडो से निकलकर कर दुर्गापूजा ने आज सार्वजनीन (सब जन का) रूप ले लिया है पहली सार्वजनीन दुर्गापूजा गुप्तिपाडा की बारोयारी पूजा है ज़मींदार ने बारह दोस्तों को अपनी पूजा में प्रवेश की अनुमति नहीं दी विरोध में बारहों यारों ने चंदा एकत्रित कर पूजा का आयोजन किया जिसमे पूरा गांव सम्मिलित हुआ इसलिए इस पूजा का नाम बारोयारी (बारह यारो की ) पूजा पड़ा
परंपरागत रूप से दुर्गापूजा 10 दिनों तक मनाई जाति है माना जाता है की इन दिनों दुर्गा अपने पुत्रों गणेश और कार्तिकेय तथा पुत्री ज्योति तथा सखियाँ जया और विजया के साथ अपने पिता हिमालय के घर आती हैं (सन्दर्भ- क्रितिबास रामायण) पित्रपक्ष की समाप्ति के बाद महालया से देवीपक्ष की शुरुआत होती है परंपरागत तरीके से गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती का दुर्गा के साथ पूजन होता है अक्षय त्रित्या को रथ यात्रा के दिन गंगा से मूर्ति बनाने के लिए माटी ली जाति है महालया को मूर्तिकार मूर्ति की आँखें बनाते हैं इसे चक्षु दान कहा जाता है चक्षु दान से पहले मूर्तिकार एक दिन का उपवास रखते हैं और इस दौरान शाकाहारी भोजन करते हैं सार्वजनीन मुख्य पूजा षष्टी से शुरू होती है सप्तमी को मूर्ति में प्राण स्थापित किये जाते हैं इस प्रक्रिया को बोधन कहते हैं नदी से केले के गाछ (कोला- बोउ) में प्राण लाकर मूर्ति में स्थापित किये जाते हैं कोला बोउ को नदी में स्नान करा कर पिली साड़ी पहनाई जाती है अष्टमी चार दिवसीय सार्वजनीन दुर्गापूजा का महत्वपूर्ण दिन है इसी दिन देवी ने असुर का नाश किया अष्टमी और नवमी के संधिक्षण पर संधि पूजा की जाती है नवमी की शाम को महाआरती का आकर्षण रहता है दशमी को मूर्तियों का विसर्जन (भषाण) नदी में कर दिया जाता है नम आँखों से लोग मां दुर्गा को विदा करते हैं और आशा करते हैं की अगले वर्ष वो फिर आएँगी इन मूर्तियों के निर्माण में पर्यावरण को दूषित करने वाले अवयवों को दूर रखा जाता है कोजोगरी लक्ष्मी पूजा के आयोजन के साथ देविपक्ष समाप्त होता है
सन 1990 ई. से पूजा आयोजित करने का अंदाज़ बदल गया परंपरागत तरीकों की जगह विषय (थीम) आधारित पूजाओं का आयोजन होने लगा पूजा मंडप (पंडाल) और मूर्तियों का निर्माण विषयानुसार किया जाने लगा प्राचीन सभ्यताओं से लेकर टायटनिक और हेरी पोटर के थीम पूजाओं में दृष्टिगोचर हो चुके हैं प्रतिस्पर्धा होने के कारण थीम आधारित पूजाओं की सजावट में स्थानीय स्थापत्यकला के छात्रों को अपनी कुशलता प्रदर्शित करने का मौका मिलता है थीम आधारित पूजाओं का बजट परंपरागत पूजाओं के बजट से अधिक होता है उत्पादों के विज्ञापनों से शहर भर जाता है लेकिन थीम आधारित पूजा मंडपो में दर्शकों की भारी भीड़ उमडती है हर धर्म, जाती, समाज , वर्ग के लोग भीड़ में मिलते हैं
बंगाली समाज का सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सव है दुर्गापूजा दुर्गापूजा का मिजाज़ महालया को आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले 2 घंटे के कार्यक्रम में स्वर्गीय बिरेन्द्र कृष्ण भद्र या स्वर्गीय पंकज कुमार मल्लिक के महिषासुरमर्दिनी पाठ से बनना शुरू हो जाता है यह कार्यक्रम सन 1950 ई. से जारी है पूजा के दौरान शहर थम सा जाता है ढाक बजने लगते हैं पूजा की लागत कितनी भी हो, कहीं भी प्रवेश शुल्क नहीं लिया जाता है अब पूजा धार्मिक भाव से आगे निकल गई है घूम कर देखने से लगता है कि दुर्गा पूजा पृथ्वी का सबसे बड़ा कला उत्सव है पंडालो के विषय और तदानुसार उनकी सजावट, उच्चतर कारीगरी से बनायीं गई मूर्तियां, पंडालों के आस-पास बिजली की सजावट, कुल मिलकर कला प्रदर्शन का एक अनूठा आयोजन और इसकी स्वीकृति देते तमाम उम्र-वर्ग-भाषा-वर्ण-धर्म के आम-ओ-खास स्त्री-पुरुष पंडाल और मूर्तियों बनाने वाले कलाकारों के नाम हर मंडप में लिखे रहतें हैं
प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजित राय की फिल्म ‘ जय बाबा फेलुनाथ’ में दुर्गापूजा केन्द्र में है उन्ही की फिल्म ‘नायक’ में दुर्गापूजा का सन्दर्भ है रितुपर्णो घोष की ‘उत्सव’ और ‘अंदर महल’ के केन्द्र में दुर्गापूजा है हिंदी फिल्म ‘देवदास’ में भी दुर्गापूजा विशेष सन्दर्भ में है इस अवसर पर गानों के कैसेट और सीडी , पुस्तकों, फिल्मों का लोकार्पण होता है आधुनिक बांग्ला गाने ‘‘पुजोर गान’’ इस अवसर पर विशेष रूप से प्रत्येक वर्ष निकाले जाते हैं नये कपड़ों और मिठाईयों के साथ हर तरह के सामानों की खरीद होती है खुदरा बाज़ार की रौनक अपने चरम पर होती है खरीद पर विशेष छूट भी मिलती है संगी-साथियों के ‘अड्डे’ जमते हैं पत्र-पत्रिकाओं के पूजा वार्षिकी या शारदीय संख्या (विशेषांक) निकाले जाते हैं ‘आनंदमेला’ और ‘शुकतारा’ के विशेषांकों को उदहारण में रखा जा सकता है
चार दिवसीय पूजा का समापन विजय दशमी को होता है स्थानीय परंपरा में सभी एक दूसरे को शुभ कामनाएं और उपहार देते हैं ‘शुभो विजया’ के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं जो काली पूजा (दीपावली) तक गूंजते हैं दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक उत्सव है शारदीय कला-उत्सव ‘दुर्गापूजा’ जो आपसी मानवीय संबंधो को मजबूती देता है
अपने राज्य पश्चिम बंगाल की सांस्कृतिक सामाजिक बुनावट को समझने के लिए व्यवस्था के साथ सहयोग करते हुए पूजा जरुर घुमे सभी पाठकों को शारदीय अभिनन्दन और शुभो विजया
केशव भट्टड़
जब अशुभ शक्तियों का प्रकोप बढ़ गया, शुभ शक्तियों ने अपनी शक्ति दुर्गा में संगृहीत कर उन्हें असुर से लड़ने का आग्रह किया अपने दस हाथों में तलवार, शंख, चक्र, माला, घंटा, तीर, धनुष, भाला आदि हथियारों से दुर्गा ने असुरों का नाश किया और स्वर्ग का उद्धार लंका युद्ध से पहले राम ने शक्ति पूजा की और शक्ति दुर्गा से विजय का आशीर्वाद मिला रावण का संहार हुआ विजया दशमी को रावण की अंत्येष्टि हुई रामायण, महाभारत, वेद, पुराण आदि में ये सन्दर्भ बहुतायात में मिलते हैं अशुभ शक्तियों पर शुभ शक्तियों की विजय का पर्व है दुर्गापूजा
पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा को अकालबोधन, मायेर पूजो, दुर्गोत्सव, शरदोत्सव, शारदीय पूजा, महापूजा के नाम से भी जाना जाता है आजकल पूजा कहने मात्र से दुर्गापूजा का ही बोध होता है पश्चिम बंगाल के कोलकाता, बहरामपुर, सिलीगुड़ी और लतागुड़ी (जलपाईगुड़ी) में दुर्गापूजा भव्यतम रूप में मनाई जाती है
इस पर्व को झारखंड, उड़ीसा, आसाम, त्रिपुरा, बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली में दुर्गापूजा के नाम से ही मनाया जाता है राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब,जम्मू-कश्मीर, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, केरल में इसे नवरात्री उत्सव, आंध्र में बोम्माला कोलुवु, तमिल नाडू में बोम्मई गोलू, कर्णाटक में मैसूर दशहरा, हिमांचल प्रदेश में कुल्लू दशहरा के नाम से मनाया जाता है केरल में विजयादशमी को विद्यारम्भम (शिक्षा की शुरुआत) के रूप में भी मनाया जाता है और सरस्वती की पूजा की जाती है उड़ीसा में दुर्गा की मूर्ति को गोसानी और दशहरा को गोसानी यात्रा कहते हैं उड़ीसा में नेताजी बोस ने दुर्गापूजा को ब्रिटिश राज के विरुद्ध नौजवानों को संगठित करने के उद्धेश्य से सार्वजनीन रूप से प्रचलित किया भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से दुर्गापूजा अछूती नहीं रही
भारत के बाहर बंगलादेश, नेपाल, भूटान, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया आदि देशो में भी दुर्गापूजा मनाई जाती है पूर्वी बंगाल (बंगलादेश) में इसे भगवती पूजा कहा जाता है नेपाल में दशहरा को दशैं (या दशन) कहा जाता है यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया में दुर्गा की मूर्तियां बंगाल के मूर्तिकारों की बस्ती ‘कुम्हारटोली’ से बनाकर भेजी जाती हैं लंदन के ईलिंग टाउन हॉल में लंदन शरदोत्सव द्वारा दुर्गापूजा का आयोजन किया जाता है लंदन में आयोजित होने वाली पुजा की मूर्तियों का विसर्जन टेम्स नदी में करने की अनुमति कुछ वर्षों पहले ही मिली है
सन 1757 ई. में कलकत्ता के शोभाबाजार राजबाड़ी के राजा नवकृष्ण देव ने लोर्ड क्लाइव के सम्मान में पहली बार शारदीय दुर्गा पूजा का आयोजन किया प्लासी युद्ध की विजय के बाद क्लाइव सभी को धन्यवाद कहना चाहते थे कलकत्ता का इकलौता चर्च सिराजुदोल्लाह ने नष्ट कर दिया था इसलिए राजा ने शारदीय दुर्गोत्सव मनाया जहाँ क्लाइव ने अपनी बात रखी 11 वीं शताब्दी के ग्रंथ अवनिमाया और 14 शताब्दी के विद्यापति के दुर्गाभक्तितरंगिणी में दुर्गापूजा का उल्लेख है इससे पता लगता है कि मध्ययुगीन बंगाल में दुर्गापूजा की परंपरा थी 17 वीं शताब्दी में राजशाही दरबार में तथा 18 वीं शताब्दी में नदिया में दुर्गापूजा मनाये जाने के दस्तावेज़ मिलते हैं उड़ीसा के रामेश्वरपुर में पिछले 400 सालों से एक ही स्थान पर दुर्गापूजा मनाई जा रही है वर्तमान में यह सबसे पुरानी पूजा मानी जाती है हावड़ा के कोटारंग के घोष महाशय अकबर के लशकर के साथ टोडरमल के नेतृत्व में यहाँ आये थे और यहीं बस गये उन्होंने इस पूजा की शुरुआत की ज़मींदारों और रजवाडो से निकलकर कर दुर्गापूजा ने आज सार्वजनीन (सब जन का) रूप ले लिया है पहली सार्वजनीन दुर्गापूजा गुप्तिपाडा की बारोयारी पूजा है ज़मींदार ने बारह दोस्तों को अपनी पूजा में प्रवेश की अनुमति नहीं दी विरोध में बारहों यारों ने चंदा एकत्रित कर पूजा का आयोजन किया जिसमे पूरा गांव सम्मिलित हुआ इसलिए इस पूजा का नाम बारोयारी (बारह यारो की ) पूजा पड़ा
परंपरागत रूप से दुर्गापूजा 10 दिनों तक मनाई जाति है माना जाता है की इन दिनों दुर्गा अपने पुत्रों गणेश और कार्तिकेय तथा पुत्री ज्योति तथा सखियाँ जया और विजया के साथ अपने पिता हिमालय के घर आती हैं (सन्दर्भ- क्रितिबास रामायण) पित्रपक्ष की समाप्ति के बाद महालया से देवीपक्ष की शुरुआत होती है परंपरागत तरीके से गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती का दुर्गा के साथ पूजन होता है अक्षय त्रित्या को रथ यात्रा के दिन गंगा से मूर्ति बनाने के लिए माटी ली जाति है महालया को मूर्तिकार मूर्ति की आँखें बनाते हैं इसे चक्षु दान कहा जाता है चक्षु दान से पहले मूर्तिकार एक दिन का उपवास रखते हैं और इस दौरान शाकाहारी भोजन करते हैं सार्वजनीन मुख्य पूजा षष्टी से शुरू होती है सप्तमी को मूर्ति में प्राण स्थापित किये जाते हैं इस प्रक्रिया को बोधन कहते हैं नदी से केले के गाछ (कोला- बोउ) में प्राण लाकर मूर्ति में स्थापित किये जाते हैं कोला बोउ को नदी में स्नान करा कर पिली साड़ी पहनाई जाती है अष्टमी चार दिवसीय सार्वजनीन दुर्गापूजा का महत्वपूर्ण दिन है इसी दिन देवी ने असुर का नाश किया अष्टमी और नवमी के संधिक्षण पर संधि पूजा की जाती है नवमी की शाम को महाआरती का आकर्षण रहता है दशमी को मूर्तियों का विसर्जन (भषाण) नदी में कर दिया जाता है नम आँखों से लोग मां दुर्गा को विदा करते हैं और आशा करते हैं की अगले वर्ष वो फिर आएँगी इन मूर्तियों के निर्माण में पर्यावरण को दूषित करने वाले अवयवों को दूर रखा जाता है कोजोगरी लक्ष्मी पूजा के आयोजन के साथ देविपक्ष समाप्त होता है
सन 1990 ई. से पूजा आयोजित करने का अंदाज़ बदल गया परंपरागत तरीकों की जगह विषय (थीम) आधारित पूजाओं का आयोजन होने लगा पूजा मंडप (पंडाल) और मूर्तियों का निर्माण विषयानुसार किया जाने लगा प्राचीन सभ्यताओं से लेकर टायटनिक और हेरी पोटर के थीम पूजाओं में दृष्टिगोचर हो चुके हैं प्रतिस्पर्धा होने के कारण थीम आधारित पूजाओं की सजावट में स्थानीय स्थापत्यकला के छात्रों को अपनी कुशलता प्रदर्शित करने का मौका मिलता है थीम आधारित पूजाओं का बजट परंपरागत पूजाओं के बजट से अधिक होता है उत्पादों के विज्ञापनों से शहर भर जाता है लेकिन थीम आधारित पूजा मंडपो में दर्शकों की भारी भीड़ उमडती है हर धर्म, जाती, समाज , वर्ग के लोग भीड़ में मिलते हैं
बंगाली समाज का सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सव है दुर्गापूजा दुर्गापूजा का मिजाज़ महालया को आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले 2 घंटे के कार्यक्रम में स्वर्गीय बिरेन्द्र कृष्ण भद्र या स्वर्गीय पंकज कुमार मल्लिक के महिषासुरमर्दिनी पाठ से बनना शुरू हो जाता है यह कार्यक्रम सन 1950 ई. से जारी है पूजा के दौरान शहर थम सा जाता है ढाक बजने लगते हैं पूजा की लागत कितनी भी हो, कहीं भी प्रवेश शुल्क नहीं लिया जाता है अब पूजा धार्मिक भाव से आगे निकल गई है घूम कर देखने से लगता है कि दुर्गा पूजा पृथ्वी का सबसे बड़ा कला उत्सव है पंडालो के विषय और तदानुसार उनकी सजावट, उच्चतर कारीगरी से बनायीं गई मूर्तियां, पंडालों के आस-पास बिजली की सजावट, कुल मिलकर कला प्रदर्शन का एक अनूठा आयोजन और इसकी स्वीकृति देते तमाम उम्र-वर्ग-भाषा-वर्ण-धर्म के आम-ओ-खास स्त्री-पुरुष पंडाल और मूर्तियों बनाने वाले कलाकारों के नाम हर मंडप में लिखे रहतें हैं
प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजित राय की फिल्म ‘ जय बाबा फेलुनाथ’ में दुर्गापूजा केन्द्र में है उन्ही की फिल्म ‘नायक’ में दुर्गापूजा का सन्दर्भ है रितुपर्णो घोष की ‘उत्सव’ और ‘अंदर महल’ के केन्द्र में दुर्गापूजा है हिंदी फिल्म ‘देवदास’ में भी दुर्गापूजा विशेष सन्दर्भ में है इस अवसर पर गानों के कैसेट और सीडी , पुस्तकों, फिल्मों का लोकार्पण होता है आधुनिक बांग्ला गाने ‘‘पुजोर गान’’ इस अवसर पर विशेष रूप से प्रत्येक वर्ष निकाले जाते हैं नये कपड़ों और मिठाईयों के साथ हर तरह के सामानों की खरीद होती है खुदरा बाज़ार की रौनक अपने चरम पर होती है खरीद पर विशेष छूट भी मिलती है संगी-साथियों के ‘अड्डे’ जमते हैं पत्र-पत्रिकाओं के पूजा वार्षिकी या शारदीय संख्या (विशेषांक) निकाले जाते हैं ‘आनंदमेला’ और ‘शुकतारा’ के विशेषांकों को उदहारण में रखा जा सकता है
चार दिवसीय पूजा का समापन विजय दशमी को होता है स्थानीय परंपरा में सभी एक दूसरे को शुभ कामनाएं और उपहार देते हैं ‘शुभो विजया’ के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं जो काली पूजा (दीपावली) तक गूंजते हैं दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक उत्सव है शारदीय कला-उत्सव ‘दुर्गापूजा’ जो आपसी मानवीय संबंधो को मजबूती देता है
अपने राज्य पश्चिम बंगाल की सांस्कृतिक सामाजिक बुनावट को समझने के लिए व्यवस्था के साथ सहयोग करते हुए पूजा जरुर घुमे सभी पाठकों को शारदीय अभिनन्दन और शुभो विजया
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