Sunday, October 10, 2010


कला और संस्कृति का प्रदेश
मरुधरा राजस्थान

केशव भट्टड़

प्रागेतिहासिक ग्रंथों के अनुसार राजस्थान के राजपूत वैदिक भारत के क्षत्रियों के वंशज हैं राजस्थान में राजपूत कुलों के उत्थान का इतिहास छठी - सातवीं सदी से मिलता है 5वीं सदी में गुप्तवंश के पराभव के बाद इस क्षेत्र में फैली अस्थिरता को गुर्जर-प्रतिहार वंश के शाषकों ने अपना शाषन स्थापित कर दूर किया राजस्थान के राजपूत वंशों को तीन भागों में रखा जा सकता है सूर्यवंशी, जो राम की वंशावली से हैं और चंद्रवंशी या इन्दुवंशी , जो कृष्ण की वंशावली से हैं इन परम्परागत वंशो के अलावा अग्निकुल के क्षत्रिय हैं मान्यता है कि अग्निकुल की उत्पति आबू के पहाड़ों पर पवित्र अग्नि से हुई इन प्रमुख कुलों के राजपूत 36 वंशो और 21 रियासतों में बंटे हुए थेइनमे मुख्य थे-मेवाड़( उदयपुर) के सिसोदिया, अम्बर(जयपुर) के कच्छावा , मारवाड़ (जोधपुर और बीकानेर) के राठोड़ , झालावाड़ और बूंदी के हाडा , जैसलमेर के भाटी , शेखावाटि के शेखावत और अजमेर के चौहान उत्तर पश्चिम भारत का सीमांत प्रदेश राजस्थान अंग्रेजों के साम्राज्यवादी शाषन से मुक्त रहा सम्राट अशोक द्वारा किया गया बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रयास यहाँ अधिक प्रभाव छोड़ने में असफल रहा, हालाँकि दक्षिणी राजस्थान के झालावाड़ में बौद्ध स्तूप और गुफायें हैं रामायण और महाभारत में यहाँ के पवित्र-पुष्कर का उल्लेख है, जिससे इसकी प्राचीनता का अंदाज़ लगाया जा सकता है

यहाँ संपर्क भाषा हिंदी है मगर मुख्य भाषा राजस्थानी ही है अलग अलग स्थानों पर राजस्थानी की उप-भाषाएँ बोली जाती हैं दक्षिण-पूर्व राजस्थान में मालवी, उत्तर पूर्व राजस्थान में मेवाती, पूर्वी भाग में जैपुरी आदि कुछ विशिष्ट उदाहरण हैं

राजस्थान अपनी समृद्ध संस्कृति और परम्पराओं के लिए प्रसिद्ध है यहाँ की विशिष्ट संस्कृति विश्व के सैलानियों का ध्यान आकृष्ट करती है यहाँ की कला और संस्कृति की समृद्ध विरासत प्राचीन भारतीय जीवन शैली को प्रतिबिंबित करती है परंपरागत तरीकों से गाँवों में विकसित यहाँ की विविधता से भरी समृद्ध संस्कृति निश्चित रूप से प्रसंसनीय है उत्कृष्ट हस्त कलाएं, चहल पहल से गूंजते मेले-मगरिये, चमकीले और रंग बिरंगे आकर्षक वस्त्र , वास्तु में चटकीले रंग और मीनाकारी यहाँ की समृद्ध संस्कृति के विशिष्ट अवयव हैं रागाधारित शाष्त्रीय लोक गीत-संगीत और नृत्य राजस्थानियों की संस्कृति के मुख्य अंश हैं जैसलमेर का कालबेलिया नृत्य और उदयपुर का घुमर पूरे विश्व में जाना जाता है इनके अलावा भवयीं और गैर यहाँ के प्रसिद्ध नृत्य है यहाँ का लोक संगीत और यहाँ के गीत रोज़मर्रा के काम-काज और आपस में गुंथे रिश्तों को दर्शाते हैं इन लोक गीतों में वीरता और श्रृंगार के रस प्रधान होतें है ढोला-मारू , रामू-चनणा आदि की प्रेम कहानियाँ और भजन भी गाये जाते हैं मीरा बाई के भजन यहाँ खास प्रचलन में हैं
मारू थारे देस में, निपजे तीन रतन
एक ढोलो दूजी मारवण तिजो कसूमल रंग
पधारों म्हारे देस जी
केसरिया बालम आओनी पधारो म्हारे देस
लोक गायिका पद्मश्री अल्लाह जिलाई बाई (1 फरवरी 1902 – 3 नवंबर 1992, बीकानेर) का राग मांड पर गाया गया यह गीत राजस्थान के प्रतिनिधि गीतों में स्वीकृत है जीवन को सरस और कठोर श्रम की थकान को मिटाने के लिए पूरे राजस्थान के लोक जीवन में वाद्य के साथ गायन और नृत्य की परंपरा मिलती है कला और संस्कृति का प्रदेश है मरू भूमि राजस्थान मांगणियार , लंगा , डूम , ढोली आदि स्थानीय जातियां परंपरा से गायन और नृत्य के पेशे में हैं जसनाथी जाति के लोग जलती आग पर नृत्य करने में पारंगत है चँग, भोपा, तेजाजी, कठपुतली आदि प्रसिद्ध लोक संगीत हैं रम्मत यहाँ की प्रसिद्ध नृत्य नाट्य लोक शैली है एकतारा, सारंगी और रावणहत्था यहाँ के विशिष्ट वाद्य यन्त्र हैं वस्त्र विन्यास की विश्व प्रसिद्ध बंधेज शैली राजस्थान की देन है

होली , दिवाली, ईद के अलावा थार उत्सव, ऊंट मेला, हाथी मेला,पुष्कर मेला, गणगौर मेला , तीज उत्सव आदि यहाँ के चर्चित मेलें और त्यौहार हैं

राजस्थान की भूमि किलों और हवेलियों के लिए विश्व भर में जानी जाती है रणकपुर और दिलवाड़ा के मंदिर स्थापत्य कला में बेजोड हैं चित्रकला और लकड़ी पर नक्कासी के काम की राजस्थानी शैली की एक समृद्ध परंपरा है

प्रकृति से कठोर परिश्रमी राजास्थानियों की जीवन शैली उनकी अपनी संस्कृति से संचालित हो क्योंकि आधुनिक जीवन की तेज गति से बदलती दुनिया में यह सांस्कृतिक विरासत ही राजास्थानियों की पहचान है विश्वास है की प्रवास में भी राजस्थानी अपनी इस विशिष्ट पहचान को बनाये रखेंगे और दूसरे प्रदेशों से इसके माध्यम से सांस्कृतिक आदान प्रदान भी करेंगे याद रखना है की सभ्यता का मूल श्रोत संस्कृति ही है


KESHAV BHATTAR
9330919201

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