रतन शाह और लाडेसर
राजस्थानी भाषा आन्दोलन की निर्भीक आवाज़
केशव भट्टड़
मारवाड़ी समाज का फैलाव अत्यंत विस्तृत है सुदूर गाँवों से लेकर बड़े महानगरों में मारवाड़ी समाज के लोग विश्वभर में बसे हैं आध्यात्मिकता, इतिहास, सामाजिकता, संस्कृति , साहित्य एवं देश भक्ति में यह समाज किसी भी अन्य समाज से होड़ लेने में सक्षम हैं इस समाज की अपनी समृद्ध भाषा ,इतिहास, साहित्य, लोक संस्कृति , लोक कलाएं, राग , संगीत, वाद्ययंत्र, मुंडिया लिपि, अपने कुशल व्यवसायी, उद्योगपति, डॉक्टर, इंजीनियर्स, प्रोफेसनल्स, लेखक, पत्रकार, कलाकार हैं, जो विश्व भर में अपनी अलग पहचान रखतें है इतना सरस-समृद्ध समाज और इतनी नकारात्मक छवि , आखिर कारण क्या है?
मारवाड़ी कौन है?
मारवाड़ी सम्मेलन का संविधान लिखता है-“ मारवाड़ी- वे व्यक्ति जो राजस्थान प्रदेश एवं उसके निकटवर्ती भू-भागों के,जहाँ का रहन सहन राजस्थान से मिलता जुलता हो, निवासी हों, या वे स्वयं अथवा उनके पूर्वज उन भू-भागों से आकर अन्य स्थानों में बस गये हों”
दूसरी परिभाषा भंवरमल सिंघी कि पुस्तक “मारवाड़ी समाज: चिंतन और चुनौती” के पृष्ठ 61 पर दी गई है-“ राजस्थानी शब्द में भौगोलिकता एक प्रदेश की है और उस दृष्टी से इतिहास की एक सीमा है पर जीवन के कर्मक्षेत्रों विभिन्नताएं सब विद्यमान हैं मारवाड़ी में जबकी भोगोलिक सीमा-विस्तार सब प्रदेशों का है, कर्म क्षेत्र की एकांगिकता है” रतन शाह का आदरणीय सिंघी जी से यहाँ विरोध है- “मारवाड़ी का अर्थ व्यापारी रख दिया न कर्म की एकांगिकता कहाँ है? डॉक्टर, इंजीनियर्स, लेखक, पत्रकार, व्यापारी सभी तो मारवाड़ी हैं यह एक छलावा है और ‘मारवाड़ी’ शब्द की गलत परिभाषा है” शाह कहते हैं कि ‘मारवाड़ी वह है जो मारवाड़ी बोलता है और भाषा विज्ञान जिसे राजस्थानी कि उप भाषा के नाम से, सदियों से जानता है’
राजस्थानी प्रचारणी सभा के संस्थापक सचिव रतन शाह बताते हैं-“ प्रसिद्ध चिन्तक समर सेन ने अपनी पत्रिका फ्रंटियर में लिखा था –‘मारवाड़ी असभ्य हैं’ मुझे यह बात अखर गई संपर्क करने पर श्री सेन ने समझाया कि सभ्यता का मानदंड होता है भाषा,साहित्य और संस्कृति मारवाड़ियों के पास व्यापार के अलावा कुछ है ?” शाह बताते हैं कि कलकता विश्वविद्यालय में नोपानी चेयर हुआ करती थी जिसमे ‘राजस्थानी कला और भाषा’ विषय पर बोलने के लिए अगरचंद नाहटा आमंत्रित थे कलकत्ता में इतना बड़ा मारवाड़ी समाज और श्रोता बमुश्किल 10 या 12 इस दर्पण में समाज का विद्रूप चेहरा झांकता दिखा किसी भी समाज के मूल्यांकन के लिए भाषा, साहित्य और संस्कृति ही निर्णायक तत्व हैं हम लोग इनकी ओर उदासीन रहें हैं समाज को जिंदा रखने के लिए हमें इस निद्रावस्था को त्यागना होगा राजस्थान के झुंझनू से कलकता आकर बसे शाह कहते हैं कि उस समय की एक फिल्म में देखा कि एक मारवाड़ी बनिये का चित्र इस तरह से रंग करके विकृत ढंग से दिखाया गया था ,जिससे पूरे समाज की छवि नष्ट हो रही थी मन में बात आई कि क्या इस शहर में एक भी व्यक्ति नहीं है जो इसका प्रतिवाद करे क्या यही और इतना ही परिचय है मारवाड़ी समाज का ? धीरे धीरे समान सोच के लोग शाह के साथ संगठित होते गये और परिचय का दायरा विराट होता गया राजस्थानी भाषा में पत्रिका निकालने की योजना बनी शाह बताते हैं कि इस पृष्ठभूमि पर राजस्थानी भाषा की अपनी पत्रिका का होना निहायत ही जरूरी था राजस्थानी भाषा के निष्ठावान हिमायती रावत सारस्वत ने सुझाव दिया कि ‘ राजस्थानी खातर जो भी काम करयो जावे बो महत्वपूर्ण है पण सबसु बेसी जरुरी है कै अठवाङियो नहीं तो कम-स्यूं-कम एक पखवाङियो छापों बेगै-स्यूं-बेगो चालू करयो जावै” पाक्षिक पत्रिका निकली और उसका नाम पड़ा-‘लाडेसर’ 22 अप्रेल 1967 को महाजाति सदन में गजानंद वर्मा की नृत्य नाटिका प्रदर्शन के साथ लाडेसर का पहला अंक आया
लाडेसर के माध्यम से राजस्थानी भाषा का विकास तथा मारवाड़ियों में फैली विसंगतियों और रूढियों पर हमला होता मारवाड़ी समाज की प्रमुख समस्याएं थी-1. मारवाड़ी समाज के प्रति घ्रिणात्मक वातावरण और 2. मारवाड़ी समाज पर होने वाले हिंसात्मक हमले
लाडेसर के संपादक रतन शाह के विचार थे कि हमारे समाज की भाषा, सभ्यता, संस्कृति से हम दूर हो गये जिस समाज के ये तत्व खतम हो जातें हैं , वह असभ्य और असंस्कृत कहला कर घृणा का पत्र बन जाता है मारवाड़ियों की जितनी भी उपलब्धियां हैं- नाट्य क्षेत्र में, कला-क्षेत्र में-विद्या क्षेत्र में- वे सब हिंदी भाषियों की उपलब्धियों में गुम हो जाती हैं और बुराई के काम मारवाड़ियों के मत्थे मंढ दिए जाते हैं अंतः इस घृणा के वातावरण को हमेशा हमेशा के लिए खत्म करने के लिए अपने गौरवशाली अतीत के बोध को पुनःसंस्थापित करें अपनी भाषा , सभ्यता, संस्कृति को अपने दैनिक जीवन में ढालें एक संपन्न भाषा वाले सुसभ्य एवं सुसंस्कृत समाज को किस प्रकार कोई घृणा की दृष्टी से देखेगा ? एक वणिक प्रवर्ती पूरे समाज पर हावी हो गई है और इससे समाज में भीरुता बढ़ी है खुद का एक अलग आस्तित्व, समाज का एक अलग व्यक्तित्व कायम करना होगा भाषा,साहित्य और संस्कृति के लिए मर-मिटने के होसलें रखने होगें समाज की भीरुता खतम करने के लिए चरित्र निर्माण करना होगा चरित्र निर्माण साहित्य से होता है भीरुता के कारण ही समाज पर हिंसात्मक हमले होतें हैं,पर हम अपने साहित्य को भूलें बैठें हैं- “ जणनी जणे तो दोय जण, के दाता के सूर”
इन होसलों के साथ कलकत्ता से राजस्थानी भाषा की संभवतः पहली पत्रिका लाडेसर सामने आई और मारवाड़ी साहित्य, भाषा और संस्कृति के साथ साथ राष्ट्र विवेचना के तत्वों की निर्भीक आवाज़ बनी युवा संपादक रतन शाह की दृष्टी साफ़ थी वह यह महसूस करते थे की व्यक्ति के निर्माण में समाज की महतवपूर्ण भूमिका होती है, अंतः व्यक्ति की भी भूमिका समाज के प्रति महत्वपूर्ण होनी चाहिये उसे भी समाज को कुछ देना चाहिये जिसका अहसास उसे हो धन ही नहीं, बल्कि उन्हें कुछ सिखाकर, उन्हे कुछ शिक्षित बनाकर, उन्हें कुछ अच्छी बातें देकर इस महत्ती उद्धेश्य से शाह ने दो खण्डों में ‘सांस्कृतिक राजस्थान’ पुस्तक का संपादन किया जो राजस्थान विश्वविद्यालय में सन्दर्भ ग्रंथ के रूप में रखा गया
संपादक शाह के इन क्रन्तिकारी विचारों की अभिव्यक्ति लाडेसर के माध्यम से मारवाड़ी समाज में गूंजी बीकानेर में राजस्थानी अकैडमी बनी केंद्रीय साहित्य अकैडमी द्वारा राजस्थानी भाषा को मान्यता देते हुए इस भाषा में प्रकाशित साहित्य पुस्तकों पर सम्मान दिया जाने लगा अढाई साल के प्रकाशन काल में लाडेसर ने राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता के लिए जो मशाल जलाई वो आज भी बुझी नहीं हैं सच तो यह है कि ‘लाडेसर’ का एक एक अंक ऐसा है जो अपने आप में दस्तावेज़ है रतन शाह का विश्वकोशों से खोजकर निकाला गया तथ्य की राजस्थानी बोली (dialects) नहीं , भाषा (language) है, से राजस्थानी भाषा के संवैधानिक मान्यता आंदोलन को गति मिली राजस्थानी अकैडमी के प्रथम प्रवासी साहित्यश्री सम्मान से सम्मानित , प्रथम अन्तराष्ट्रीय राजस्थानी सम्मेलन के संयोजक रतन शाह आज भी राजस्थानी भाषा और साहित्य के सर्वांगीण विकास के लिए कमरबद्ध हैं “संवैधानिक मान्यता राजनितिक कारणों से रुकी हुई है”, कहते हुए रतन शाह पूछते हैं- “यदि राजस्थानी भाषा नहीं हैं तो केंद्रीय साहित्य अकादमी पिछले लगभग 25 सालों से राजस्थानी भाषा के नाम पर किन पुस्तकों को सम्मानित कर रही है ?”
केशव भट्टड़
Keshava2007@yahoo.co.in
एक बेहतरीन और अन्वेषण युक्त लेख ! किसी भी नजरिये से देख लें रतन शाह ! रतन शाह हैं। समाज के प्रति उनकी जिजीविषा का कोई अंत नहीं।
ReplyDelete