आधुनिक राजस्थानी साहित्य के जनक:शिवचंद्र भरतिया
-केशव भट्टड़
प्रवासी राजस्थानी साहित्यकार श्री शिवचंद्र भरतिया आधुनिक राजस्थानी साहित्य के जनक माने जाते हैं उन्होंने राजस्थानी गद्ध के क्षेत्र में न सिर्फ पहला नाटक और उपन्यास लिखा बल्कि आधुनीक राजस्थानी गद्ध साहित्य की विभिन्न विधाओं की शुरुआत की
बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में राजस्थानी साहित्य में आत्मकथा का अभाव था जिसे कलम के धनी भरतिया जी ने अपने दर्शन विधायक ग्रंथ ‘विचार दर्शन’ के परिशिष्ट में ‘काल-प्रभाव’ और ‘दु:खाश्रुपात’ कविता के माध्यम से अपना जीवनवृत्त प्रस्तुत कर दूर किया उन्होंने अपने उपन्यास ‘कनक सुन्दर’ और ‘ नाटक ‘फाटका जंजाल’ की भूमिका और उपसंहार में अपने जीवनवृत्त की झलक प्रस्तुत की है ‘विचार दर्शन’ के प्रस्तावना भाग में जहाँ उन्होंने ‘सरस्वती’ के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी से अपने संबंधों का जिक्र किया है वहीँ ‘वृतांत’ शीर्षक से अपना जीवनवृत्त प्रस्तुत किया है ‘विचार दर्शन’ में श्री द्वारिका प्रसाद सेवक के संपादकीय लेख से भी भरतिया जी के जीवन से सम्बंधित प्रामाणिक जानकारी मिलती है
शिवचंद्र भरतिया के जीवनवृत्त को सबसे पहले मोतीलाल मेनारिया ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य’ में प्रकाशित किया इसके बाद डॉ.किरणचंद नाहटा ने भरतिया जी की रचनाओं की खोजबीन करके उनके जीवन और विचारों को जीवनी रूप में प्रस्तुत किया
‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ नाम से साहित्य अकैडमी, दिल्ली द्वारा चुनिन्दा साहित्यकारों के जीवन और उनके रचना संसार पर प्रकाशित पुस्तकों में शिवचंद्र भरतिया के जीवन और रचना संसार से सम्बंधित समीक्षात्मक पुस्तक श्री लक्ष्मीकांत व्यास ने लिखी इसमें भरतिया जी की उपलब्ध रचनाओं पर समीक्षात्मक टिपण्णी और उनकी विचार धारा पर प्रकाश डाला गया है इस पुस्तक के माध्यम से श्री व्यास ने शिवचंद्र भरतिया पर शोध करने वालों की राह रोशन की है
प्रवासी राजस्थानी साहित्यकार शिवचंद्र भरतिया के पूर्वज राजस्थान के जोधपुर रियासत के डीडवाना गांव से हैदराबाद के कन्नड़ गांव में जा बसे वहीँ सन 1853 में भरतिया जी का जन्म हुआ उनके दादा का नाम श्री गंगाराम भरतिया और पिता का नाम श्री बलदेव भरतिया था वैश्य-अग्रवाल कुल में जन्मे भरतिया जी अपने चार भाईयों में सबसे बड़े थे पिता की मृत्यु के बाद भरतिया जी को छोड़कर तीनों भाईयों ने पैतृक सम्पति आपस में बाँट ली भरतिया जी ने व्यापार छोड़कर वकालत शुरू कर दी वकालत में भी मन नहीं लगा तो इंदौर आकर सरकारी नौकरी कर ली पिता की मृत्यु के बाद भरतिया जी के पुत्र, पत्नी और पुत्री की भी मृत्यु हो गई जीवन के उतर चढाव और विविधताओं ने उनके अध्ययन और अनुभवों को गहराई दी इन परिस्थितियों से भरतिया जी विचलित नहीं हुए परन्तु इनका असर उनकी रचनाओं पर जरूर पड़ा
भरतिया जी कईं भाषाओँ के जानकार थे राजस्थानी के साथ संस्कृत, हिंदी, मराठी और गुजराती भाषाओँ पर उनका समान अधिकार था इन भाषाओँ को उन्होंने अपनी रचनाओं का आधार बनाया उन्होंने हिंदी में 17, मराठी में 13, राजस्थानी में 9 और संस्कृत में 3 ग्रंथो की रचना की ‘सरस्वती’ पत्रिका के यशश्वी संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उनको ‘अनेक भाषा कोविद’ के रूप में संबोधित किया तो एक प्रसंग में लिखा कि भरतिया जी संस्कृत और मराठी के अच्छे ज्ञाता हैं, हिंदी और राजस्थानी की तरह वे मराठी में भी लेख और कवितायेँ लिख सकते हैं
उस वक्त राजस्थानी भाषा और मारवाड़ी समाज की स्थिति ठीक नहीं थी ‘केशर विलास’ नाटक की भूमिका में भरतिया जी लिखतें हैं-‘ आपणी मारवाड़ी बोली आज ईशा सुधारां की कळश ऊपर पूग्योङी दुनिया मांहे पण अँधेरी गुफा के अंदर गोती खाती रैव्है, इणको अभिमान आप सरदारां ने नहीं कांई ? अफ़सोस की बात छै आज तांई मारवाड़ी बोली मांहे छोटो-मोटो एक भी ग्रंथ नहीं, ग्रंथ तो दूर साधारण कोई पुस्तक नहीं?होवे कठे सूं ? बिचारी मारवाड़ी बोली की तरफ कोई को भी लक्ष्य नहीं’
एक ओर मारवाड़ी भाषा में पुस्तकों का गंभीर अभाव तो दूसरी ओर मारवाड़ी समाज में फैली कुरीतियाँ और अंधविश्वासों का मकडजाल दूसरे समाज के लोग मारवाड़ियों को घृणा की नज़र से देखते ‘कनक सुन्दर’ उपन्यास की भूमिका में भरतिया जी लिखतें हैं – “ममोई और बीं का आजु बाजु का प्रांत मांहे ‘मारवाड़ी’ ये चार अक्षर इतना सुगला और घृणित हो रया छै के ‘श्यालक’ यहूदी रे नांव रा अक्षर भी इणरे आगे कुछ नहीं उठी ने हल्का आदमी रि उपमा ‘हां पक्का मारवाड़ी आहे’ अर्थात ओ पक्को मारवाड़ी छै, इशी हो रही छै” मारवाड़ी भाषा और मारवाड़ी समाज की इस स्थिति ने चिंतन प्रधान भारतिया जी का ध्यान आकर्षित किया मारवाड़ी समाज के सुधार के लिए भरतिया जी ने मारवाड़ी भाषा में पुस्तकें लिखी, जो इस प्रकार है – केसर विलास (नाटक), 02. बुढ़ापा की सगाई (नाटक) 03. फटका जंजाल (नाटक), 04.कनकसुन्दर (उपन्यास), 05. मोत्यां की कंठी (दोहा-संग्रह), 06. वैश्य प्रबोध, 07. बोध दर्पण, 08. संगीत मानकुंवर (नाटक), 09. विश्रांत प्रवासी ये रचनाएँ आदर्शोन्मुखी है और यथार्थ के धरातल पर है इन नाटकों की प्रशंशा करते हुए महावीर प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं –“रचना इसकी बहुत ही स्वाभाविक है कहीं कहीं पढते समय , स्वाभाविकता का इतना आविर्भाव हो उठता है कि इस बात की विस्मृति हो जाती है कि यह कल्पित कथा पढ़ रहें हैं”
भारतेंदु हरीशचंद्र और शिवचंद्र भरतिया में कईं समानताएं दृष्टिगोचर होती हैं डॉ. गोविन्द शंकर शर्मा के अनुसार-‘ये समानताएं नाम,कुल,वंश जैसी उपरी परतों से प्रारम्भ होकर जीवन के प्रति दृष्टिकोण, विचारधारा एवं साहित्यिक कृतियों के गहरे धरातल तक दृष्टिगोचर होती हैं जिस प्रकार हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में भारतेंदु का अप्रतिम महत्व है और उन्हें हिंदी में नवयुग का प्रारम्भकर्ता माना जाता है उसी प्रकार भरतिया आधुनिक राजस्थानी के प्रवर्तक एवं शलाका पुरुष हैं’
भरतिया जी समाज में आदर्श की स्थापना करना चाहते थे वे अध्यात्म प्रेमी थे पर थोथे ब्राह्मणवाद और पाखण्ड के प्रबल विरोधी वे मारवाड़ी समाज में व्याप्त बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, दहेज और घूँघट की कुप्रथा के विरोधी थे उन्होंने विधवा विवाह, और नारी शिक्षा के प्रचार पर बल दिया मारवाड़ी समाज और मारवाड़ी भाषा की उन्नति के लिए तत्परता दिखाई उन्होंने भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को ससम्मान स्वीकारा उन्होंने सट्टे का विरोध किया और देश के ओद्योगिक विकास के लिए ‘स्वदेशी’ अपनाने पर जोर दिया वे सर्वधर्म समभाव के समर्थक थे कईं नयें रचनाकारों ने भरतियाजी के साहित्य को पढ़ कर लेखन प्रारम्भ किया उस काल को आधुनिक राजस्थानी साहित्य में भरतिया युग के नाम से जाना जाता है
सन 1900 में छपा नाटक ‘केसर विलास’ भरतियाजी की पहली रचना होने के साथ-साथ आधुनिक राजस्थानी का पहला नाटक है सन 1903 में छपा उपन्यास ‘कनक सुन्दर’ भी राजस्थानी की पहली औपन्यासिक कृति मानी जाती है राजस्थानी गद्य साहित्य के क्षेत्र में आधुनिक विधाओं में प्रथम रचनाकार होने के कारण शिवचंद्र भरतिया को आधुनिक राजस्थानी गद्य साहित्य का जनक माना जाता है
आधुनिक राजस्थानी गद्य–साहित्य के जनक, राजस्थानी साहित्य के भारतेंदु और युग प्रवर्तक प्रवासी राजस्थानी साहित्यकार शिवचंद्र भरतिया की मृत्यु पर महावीर प्रसाद दिवेदी ने ‘सरस्वती’ में ‘श्रीयुत शिवचंद्रजी भरतिया का परलोक गमन’ शीर्षक से लिखा-‘
हिंदी के प्रसिद्ध प्रेमी और लेखक श्रीयुत्त शिवचंद्रजी भरतिया ने 12 फरवरी ,1915 को इंदौर में अपनी मानव-लीला समाप्त कर दी”
इनकी स्मृति में राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा शिवचंद्र भरतिया गद्य पुरस्कार प्रदान किया जाता है
हिंदी और राजस्थानी भाषा में एक शताब्दी पहले लिखी गयीं भरतिया जी की रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि भरतियाजी ने जिस समाज की कल्पना अपने समय में की थी, समाज का वो रुप आज भी स्थापित नहीं हो पाया है ऐसे में भरतियाजी के साहित्य का समग्र रूप में मूल्यांकन होना और भी जरूरी हो जाता है
keshava2007@yahoo.co.in
-केशव भट्टड़
प्रवासी राजस्थानी साहित्यकार श्री शिवचंद्र भरतिया आधुनिक राजस्थानी साहित्य के जनक माने जाते हैं उन्होंने राजस्थानी गद्ध के क्षेत्र में न सिर्फ पहला नाटक और उपन्यास लिखा बल्कि आधुनीक राजस्थानी गद्ध साहित्य की विभिन्न विधाओं की शुरुआत की
बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में राजस्थानी साहित्य में आत्मकथा का अभाव था जिसे कलम के धनी भरतिया जी ने अपने दर्शन विधायक ग्रंथ ‘विचार दर्शन’ के परिशिष्ट में ‘काल-प्रभाव’ और ‘दु:खाश्रुपात’ कविता के माध्यम से अपना जीवनवृत्त प्रस्तुत कर दूर किया उन्होंने अपने उपन्यास ‘कनक सुन्दर’ और ‘ नाटक ‘फाटका जंजाल’ की भूमिका और उपसंहार में अपने जीवनवृत्त की झलक प्रस्तुत की है ‘विचार दर्शन’ के प्रस्तावना भाग में जहाँ उन्होंने ‘सरस्वती’ के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी से अपने संबंधों का जिक्र किया है वहीँ ‘वृतांत’ शीर्षक से अपना जीवनवृत्त प्रस्तुत किया है ‘विचार दर्शन’ में श्री द्वारिका प्रसाद सेवक के संपादकीय लेख से भी भरतिया जी के जीवन से सम्बंधित प्रामाणिक जानकारी मिलती है
शिवचंद्र भरतिया के जीवनवृत्त को सबसे पहले मोतीलाल मेनारिया ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य’ में प्रकाशित किया इसके बाद डॉ.किरणचंद नाहटा ने भरतिया जी की रचनाओं की खोजबीन करके उनके जीवन और विचारों को जीवनी रूप में प्रस्तुत किया
‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ नाम से साहित्य अकैडमी, दिल्ली द्वारा चुनिन्दा साहित्यकारों के जीवन और उनके रचना संसार पर प्रकाशित पुस्तकों में शिवचंद्र भरतिया के जीवन और रचना संसार से सम्बंधित समीक्षात्मक पुस्तक श्री लक्ष्मीकांत व्यास ने लिखी इसमें भरतिया जी की उपलब्ध रचनाओं पर समीक्षात्मक टिपण्णी और उनकी विचार धारा पर प्रकाश डाला गया है इस पुस्तक के माध्यम से श्री व्यास ने शिवचंद्र भरतिया पर शोध करने वालों की राह रोशन की है
प्रवासी राजस्थानी साहित्यकार शिवचंद्र भरतिया के पूर्वज राजस्थान के जोधपुर रियासत के डीडवाना गांव से हैदराबाद के कन्नड़ गांव में जा बसे वहीँ सन 1853 में भरतिया जी का जन्म हुआ उनके दादा का नाम श्री गंगाराम भरतिया और पिता का नाम श्री बलदेव भरतिया था वैश्य-अग्रवाल कुल में जन्मे भरतिया जी अपने चार भाईयों में सबसे बड़े थे पिता की मृत्यु के बाद भरतिया जी को छोड़कर तीनों भाईयों ने पैतृक सम्पति आपस में बाँट ली भरतिया जी ने व्यापार छोड़कर वकालत शुरू कर दी वकालत में भी मन नहीं लगा तो इंदौर आकर सरकारी नौकरी कर ली पिता की मृत्यु के बाद भरतिया जी के पुत्र, पत्नी और पुत्री की भी मृत्यु हो गई जीवन के उतर चढाव और विविधताओं ने उनके अध्ययन और अनुभवों को गहराई दी इन परिस्थितियों से भरतिया जी विचलित नहीं हुए परन्तु इनका असर उनकी रचनाओं पर जरूर पड़ा
भरतिया जी कईं भाषाओँ के जानकार थे राजस्थानी के साथ संस्कृत, हिंदी, मराठी और गुजराती भाषाओँ पर उनका समान अधिकार था इन भाषाओँ को उन्होंने अपनी रचनाओं का आधार बनाया उन्होंने हिंदी में 17, मराठी में 13, राजस्थानी में 9 और संस्कृत में 3 ग्रंथो की रचना की ‘सरस्वती’ पत्रिका के यशश्वी संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उनको ‘अनेक भाषा कोविद’ के रूप में संबोधित किया तो एक प्रसंग में लिखा कि भरतिया जी संस्कृत और मराठी के अच्छे ज्ञाता हैं, हिंदी और राजस्थानी की तरह वे मराठी में भी लेख और कवितायेँ लिख सकते हैं
उस वक्त राजस्थानी भाषा और मारवाड़ी समाज की स्थिति ठीक नहीं थी ‘केशर विलास’ नाटक की भूमिका में भरतिया जी लिखतें हैं-‘ आपणी मारवाड़ी बोली आज ईशा सुधारां की कळश ऊपर पूग्योङी दुनिया मांहे पण अँधेरी गुफा के अंदर गोती खाती रैव्है, इणको अभिमान आप सरदारां ने नहीं कांई ? अफ़सोस की बात छै आज तांई मारवाड़ी बोली मांहे छोटो-मोटो एक भी ग्रंथ नहीं, ग्रंथ तो दूर साधारण कोई पुस्तक नहीं?होवे कठे सूं ? बिचारी मारवाड़ी बोली की तरफ कोई को भी लक्ष्य नहीं’
एक ओर मारवाड़ी भाषा में पुस्तकों का गंभीर अभाव तो दूसरी ओर मारवाड़ी समाज में फैली कुरीतियाँ और अंधविश्वासों का मकडजाल दूसरे समाज के लोग मारवाड़ियों को घृणा की नज़र से देखते ‘कनक सुन्दर’ उपन्यास की भूमिका में भरतिया जी लिखतें हैं – “ममोई और बीं का आजु बाजु का प्रांत मांहे ‘मारवाड़ी’ ये चार अक्षर इतना सुगला और घृणित हो रया छै के ‘श्यालक’ यहूदी रे नांव रा अक्षर भी इणरे आगे कुछ नहीं उठी ने हल्का आदमी रि उपमा ‘हां पक्का मारवाड़ी आहे’ अर्थात ओ पक्को मारवाड़ी छै, इशी हो रही छै” मारवाड़ी भाषा और मारवाड़ी समाज की इस स्थिति ने चिंतन प्रधान भारतिया जी का ध्यान आकर्षित किया मारवाड़ी समाज के सुधार के लिए भरतिया जी ने मारवाड़ी भाषा में पुस्तकें लिखी, जो इस प्रकार है – केसर विलास (नाटक), 02. बुढ़ापा की सगाई (नाटक) 03. फटका जंजाल (नाटक), 04.कनकसुन्दर (उपन्यास), 05. मोत्यां की कंठी (दोहा-संग्रह), 06. वैश्य प्रबोध, 07. बोध दर्पण, 08. संगीत मानकुंवर (नाटक), 09. विश्रांत प्रवासी ये रचनाएँ आदर्शोन्मुखी है और यथार्थ के धरातल पर है इन नाटकों की प्रशंशा करते हुए महावीर प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं –“रचना इसकी बहुत ही स्वाभाविक है कहीं कहीं पढते समय , स्वाभाविकता का इतना आविर्भाव हो उठता है कि इस बात की विस्मृति हो जाती है कि यह कल्पित कथा पढ़ रहें हैं”
भारतेंदु हरीशचंद्र और शिवचंद्र भरतिया में कईं समानताएं दृष्टिगोचर होती हैं डॉ. गोविन्द शंकर शर्मा के अनुसार-‘ये समानताएं नाम,कुल,वंश जैसी उपरी परतों से प्रारम्भ होकर जीवन के प्रति दृष्टिकोण, विचारधारा एवं साहित्यिक कृतियों के गहरे धरातल तक दृष्टिगोचर होती हैं जिस प्रकार हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में भारतेंदु का अप्रतिम महत्व है और उन्हें हिंदी में नवयुग का प्रारम्भकर्ता माना जाता है उसी प्रकार भरतिया आधुनिक राजस्थानी के प्रवर्तक एवं शलाका पुरुष हैं’
भरतिया जी समाज में आदर्श की स्थापना करना चाहते थे वे अध्यात्म प्रेमी थे पर थोथे ब्राह्मणवाद और पाखण्ड के प्रबल विरोधी वे मारवाड़ी समाज में व्याप्त बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, दहेज और घूँघट की कुप्रथा के विरोधी थे उन्होंने विधवा विवाह, और नारी शिक्षा के प्रचार पर बल दिया मारवाड़ी समाज और मारवाड़ी भाषा की उन्नति के लिए तत्परता दिखाई उन्होंने भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को ससम्मान स्वीकारा उन्होंने सट्टे का विरोध किया और देश के ओद्योगिक विकास के लिए ‘स्वदेशी’ अपनाने पर जोर दिया वे सर्वधर्म समभाव के समर्थक थे कईं नयें रचनाकारों ने भरतियाजी के साहित्य को पढ़ कर लेखन प्रारम्भ किया उस काल को आधुनिक राजस्थानी साहित्य में भरतिया युग के नाम से जाना जाता है
सन 1900 में छपा नाटक ‘केसर विलास’ भरतियाजी की पहली रचना होने के साथ-साथ आधुनिक राजस्थानी का पहला नाटक है सन 1903 में छपा उपन्यास ‘कनक सुन्दर’ भी राजस्थानी की पहली औपन्यासिक कृति मानी जाती है राजस्थानी गद्य साहित्य के क्षेत्र में आधुनिक विधाओं में प्रथम रचनाकार होने के कारण शिवचंद्र भरतिया को आधुनिक राजस्थानी गद्य साहित्य का जनक माना जाता है
आधुनिक राजस्थानी गद्य–साहित्य के जनक, राजस्थानी साहित्य के भारतेंदु और युग प्रवर्तक प्रवासी राजस्थानी साहित्यकार शिवचंद्र भरतिया की मृत्यु पर महावीर प्रसाद दिवेदी ने ‘सरस्वती’ में ‘श्रीयुत शिवचंद्रजी भरतिया का परलोक गमन’ शीर्षक से लिखा-‘
हिंदी के प्रसिद्ध प्रेमी और लेखक श्रीयुत्त शिवचंद्रजी भरतिया ने 12 फरवरी ,1915 को इंदौर में अपनी मानव-लीला समाप्त कर दी”
इनकी स्मृति में राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा शिवचंद्र भरतिया गद्य पुरस्कार प्रदान किया जाता है
हिंदी और राजस्थानी भाषा में एक शताब्दी पहले लिखी गयीं भरतिया जी की रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि भरतियाजी ने जिस समाज की कल्पना अपने समय में की थी, समाज का वो रुप आज भी स्थापित नहीं हो पाया है ऐसे में भरतियाजी के साहित्य का समग्र रूप में मूल्यांकन होना और भी जरूरी हो जाता है
keshava2007@yahoo.co.in
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