Monday, March 7, 2011

‘फैज़ अहमद फैज़’ का जन्मशताब्दी वर्ष
प्रेम और क्रांति के कवि थे फैज़ अहमद फैज़



फैज़ का जन्म 13 फरवरी 1911 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रान्त के सियालकोट (अभी पाकिस्तान में) के कला कदेर गांव (अब फैज़ नगर) में एक साहित्यिक माहौल वाले धार्मिक परिवार में हुआ फैज़ की माँ सुल्तान फातिमा और पिता सुल्तान मोहम्मद खान थे फैज़ के पिता ने आमिर अब्दुर्रहमान की जीवनी लिखी थी चार साल की आयु में फैज़ ने पवित्र कुरान की आयतें सीखना शुरू किया परंपरागत तरीके से 1916 में मौलवी इब्राहीम सियालकोट के विद्यालय में फैज़ की प्रारंभिक शिक्षा शुरू हुई जहाँ उन्होंने उर्दू, फारसी और अरबी भाषा की प्रारंभिक शिक्षा ली वे 1921 में स्कॉट मिशन हाई स्कूल में कक्षा 4 में भरती किये गए उन्होंने मुरे कालेज सियालकोट से दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की इसी बीच उन्होंने उर्दू के मशहूर शायर अल्लामा इकबाल के शिक्षक जनाब शम्सुल उल्लामा मौलवी सय्यद मीर हसन से फारसी और अरबी सीखी प्रो. युसूफ सलीम चिस्ती का उन पर गहरा प्रभाव था जिनसे फैज़ ने उर्दू सीखी गवर्मेंट कालेज,लाहौर से अरबी में स्नातक होने के बाद 1932 में उन्होंने इसी कालेज से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर डिग्री ली ओरियंटल कालेज , लाहौर से फैज़ ने अरबी साहित्य में एम्.ए. प्रथम श्रेणी से पास किया एम्.ए.ओ. कालेज, अमृतसर से 1935 में अंग्रेजी के लेक्चरार के रूप में अपना करियर शुरू किया और बाद में हैली कालेज ऑफ कॉमर्स , लाहौर में लेक्चरार बने 1942 में कैप्टन के रूप में मिलिट्री में आये और दिल्ली में सेना का जन-संपर्क विभाग संभाला 1943 में प्रोन्नत होकर मेजर और 1944 में लेफ्टिनेन्ट कर्नल बने 1947 में सेना से त्यागपत्र देकर लाहौर चले आये और 1959 में पाकिस्तान आर्ट कौंसिल के सचिव नियुक्त हुए और 1962 तक इस पद पर काम किया 1964 में लन्दन से लौटकर फैज़ ने कराची को अपना स्थायी निवास बनाया और अब्दुल्लाह हारुन कालेज , कराची के प्रिंसिपल बने 1947 से 1958 तक मासिक पत्रिका अदब-ए-लतीफ़ का संपादन किया पाकिस्तान टाइम्स के पहले प्रधान संपादक होने के साथ उन्होंने उर्दू अखबार ‘इमरोज’ , और साप्ताहिक पत्रिका ‘लैल-ओ-निहार’ का संपादन भी किया 1965 के भारत पकिस्तान युद्ध के समय सूचना विभाग में उन्होंने अवैतनिक कार्य किया मास्को, लन्दन और बेरुत में उन्होंने एफ्रो-एशियाई पत्रिका ‘लोटस’ का संपादन किया रावलपिंडी षडयंत्र मामले में सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार हुए और चार साल एक महीने तक सरगोधा और मोंटगोमेरी की जेलों में बिताने के बाद 1955 में रिहा हुए वापस 1958 में जेल और फिर रिहाई फैज़ की शायरी में यहाँ से मोड़ आता है –“वो बात ,सारे फ़साने में जिसका जिक्र न था / वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है” बंगलादेश मुक्ति आंदोलन के दौरान हुए खून-खराबे के विरोध में फैज़ ने कवितायेँ लिखी ‘कम्युनिस्ट’ फैज़ सूफी मत के समर्थक थे बाबा मलंग साहिब, अशफाक अहमद,सय्यद फखरुद्दीन बल्ली, वासिफ अली वासिफ आदि नामचीन सूफियों के वे प्रसंशक थे सूफियों को फैज़ सच्चा ‘कामरेड’ कहते थे ‘नक्श ए फरियादी’ (1943), ‘ दस्त-ए-सबा’ (1952), ‘ज़िन्दाँ नामा’ (1956), ‘दस्त-ए-तह-ए-संग’ (1965) उनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ है ‘नुस्खा हाये वफ़ा’ के नाम से इन रचनाओं का संयुक्त संस्करण भी प्रकाशित हुआ ‘सर-ए-वादी-ए-सीना’ (1971), ‘शाम-ए-सहर-ए-यारां’ (1978), ‘मेरे दिल मेरे मुसाफिर’ (1980) फैज़ के अन्य प्रकाशित काव्य संग्रह है इसके अलावा ‘मिजान’ (लेख संग्रह, 1963), ‘सलीबें मेरे दरिचें में’ (पत्नी श्रीमती एलिस फैज़ को जेल से लिखे गए पत्रों का संग्रह, 1971) और ‘मताए-लौह-ओ-कलम’ (भाषण, लेख, साक्षात्कार और नाटक आदि का संग्रह, 1980) भी प्रकाशित हो चुके हैं फैज़ अहमद फैज़ की रचनाओं का अंग्रेजी और रुसी भाषा सहित विश्व की बहुत सी भाषाओँ में अनुवाद हुआ फैज़ के मित्र बलूची कवि मीर गुल खान नासिर ने फैज़ के शायरी संग्रह ‘सर-ए-वादी-ए-सीना” का बलूच में ‘सीनै किचाग आ’ (1980) नाम से अनुवाद किया
1930 में ब्रिटिश महिला एलिस से फैज़ का विवाह हुआ उनकी दो बेटियां मोनीज़ा और सलीमा हाशमी हैं फैज़ एशिया के पहले कवि थे जिन्हें सोवियत रूस का प्रसिद्ध ‘लेनिन शांति पुरस्कार’ (1963) मिला उनकी मृत्यु से पहले 1984 में उनका नाम साहित्य के नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया फैज़ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे और 1936 में उन्होंने पंजाब में प्रगतिशील लेखक संघ की शाखा बनायीं और उसका सचिव के रूप में नेतृत्व किया फैज़ कम्युनिज्म को मानते थे और पाकिस्तान में कम्युनिस्ट आंदोलन को खड़ा करने का उनका प्रयास अविष्मर्णीय रहेगा
इकबाल के साथ उर्दू के महान कवि के रूप में फैज़ को बहुत पहले ही स्वीकृति मिल चुकी है फैज़ के सामाजिक-राजनितिक प्रगतिशील विचारों के आलोचक भी इससे इनकार नहीं करते हाँ, उनकी प्रसंशा करते हुए फैज़ के आलोचक आश्चर्य करते हैं कि इतना बढ़िया आदमी कम्युनिस्ट कैसे बन गया ? अन्य भाषाओँ के साथ फैज़ उर्दू,पंजाबी,हिंदी, अरबी, फारसी और अंग्रेजी की ‘क्लासिकल’ कविताओं की विभिन्न धाराओं के गंभीर प्रशिक्षु थे और शुरुआती दौर में ही फैज़ ने महसूस किया -कि शायरी कला में तथ्य आधार है, बुनावट नहीं, -कि वास्तविकता का शायरी में हो रहे नए प्रयोगों से बहुत कम सरोकार है, -कि शायरी मनुष्यता को इसकी पूर्णता और समग्रता से समझने की कला है उनके आलोचनात्मक लेख इस सत्य को प्रकाशित करते हैं कि हमारे युग में कविताओं के जरुरी तत्त्व क्या हो इकबाल अपनी कविताओं में क्रांति को महिमामंडित करते हैं और शोषक वर्ग के विरुद्ध आम आदमी के खड़े होने का आह्वान करते हैं नोबल पुरस्कार से सम्मानित रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीतों में जन गण के प्रेम-विरह-प्रकृति-दर्शन-सिद्धांत है इकबाल फैज़ की पसंद थे फैज़ आम लोगो के विद्रोह से खुद को जोड़ते हैं और कवि के रूप में क्रांति के सामूहिक कारणों को अंगीकार कर तदानुसार उत्पन्न विभिन्न परिस्थितियों और मिजाज को अपनी शायरी का विषय बनाते हैं लंबे और दुरूह क्रांतिकारी संघर्ष की यात्रा में आम आदमी के ,किसान और मजदूर के अनुभव उनकी रचनाओं की विशेषता है अपने एक पंजाबी गीत में फैज़ किसानो से संबोधित हैं-..’भुलिया, तूं जग दा अनदाता / तेरी बाँदी धरती माता / तूं जग दा पालणहारा ...’ और आगे ...’एका कर लो हो जओ कट्ठे / भूल जाओ रांगङ, चीमे चट्ठे / सब्भे दा इक परवार,... फैज़ महान गीतकार हैं और प्रेम उनकी कविताओं का आवरण है एक नज़रिए से देखने पर लगता है कि फैज़ ने प्रेम के गीत ही रचे हैं ग़ालिब कहते थे कि अच्छे शायर को बूंद में सागर देखने का इल्म आना चाहिए फैज़ शायरी लेखन में ग़ालिब से गहरे दार्शनिक समन्वय का सिद्धांत लेते हैं और अपने समय के कवियों के सिद्धांत को खारिज करते हैं जो शायरी लेखन को साहित्य की सिर्फ सहायक गतिविधि मानते है वे एक कदम आगे जाकर कहते हैं कि ग़ालिब की शायरी लेखन की परिभाषा अधूरी है क्योंकि कवि को बूंद में सागर देखना ही काफी नहीं , उसे पाठकों और श्रोताओं को बूंद में सागर दिखाना भी पड़ता है क्रांति-कवि होने के साथ फैज़ प्रेम-कवि भी है और फैज़ की कविताओं में दोनों में कोई विभेद नहीं है क्रांति और प्रेम ,दोनों फैज़ के साथ एकाकार हैं, उम्मीदों से भरें हैं ‘दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है; लंबी है गम की शाम मगर, शाम ही तो है’ फैज़ को इकबाल बानो की जुबानी सुने-‘ और एहल-ए-हुकुम के सर ऊपर ,जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी ”या “हम देखेंगे”- यहाँ फैज़ अपने समकालीन कवियों से बहुत आगे हैं फैज़ की कविताओं में महान साहित्यिक मूल्य और आम आदमी के सामाजिक सरोकारों की धारावाहिकता है उनकी शायरी की सबसे बड़ी शक्ति उनका जन-मानस से सम्बन्ध है चाहे दुनिया के किसी भी कोने में अत्याचार हो, फैज़ किसी भी अंतर्राष्ट्रीय घटना से अछूते नहीं रहे इरान के छात्रों के समर्थन में ‘ईरानी तुलबा के नाम’, अफ्रीका के स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थन में ‘अफ्रीका कम बेक’, साम्राज्यवादियों से संघर्षरत अरबों के समर्थन में ‘सर-ए-वादी-ए-सीना’, फिलिस्तानियों के लिए ‘दो नज्मे फिलिस्तीन के लिए’ , बेरुत-जनसंहार के विरुद्ध ‘एक नगमा करबला-ए-बेरुत के लिए’ लिखकर अपना रोष व्यक्त करते हैं – “ हर कुश्ता मकाँ हर एक खंडर, हम-पाया-ए-कस्त्र-ए-दारा है / हर गाज़ी रश्क-ए-इस्कन्दर, हर दुख्तर क़ामत-ए-लैला है / बैरुत निगार-ए-बज़्म-ए-जहाँ, बैरुत बादिल-ए-बाग-ए-जिनां ” इस तरह फैज़ की कवितायेँ स्थान और समय की सीमाओं से आगे जाकर विश्व के तमाम शोषित और दलित जन की पुकार बन जाती है-“ मेरे दर्द को जो जबाँ मिले / मुझे अपना नाम-ओ-निशाँ मिले” आम आदमी के लिए फैज़ की शायरी संघर्ष और उससे तपे सुनहरे भविष्य का प्रतिक है-“ मेरी ज़ात का जो निशाँ मिले, मुझे राज-ए-नज़्म-ए-जहां मिले/ जो मुझे ये राज-ए-निहां मिले, मेरी खामोशी को बयाँ मिले / मुझे कायनात की सरवरी, मुझे दौलत-ए-दो-जहाँ मिले” इन मायनों में सरहदी बंधनों से मुक्त फैज़ अंतर्राष्ट्रीय कवि हैं
20 नवंबर 1984 को लाहौर में उनका निधन हुआ फैज़ अमर हैं कि कवि और शायर कभी नहीं मरते धरती पर बेड़ियों से जकड़े आम-आदमी के संघर्ष को कविताओं में ढालने वाले कवि हैं फैज़ कहीं भी हुकूमत किसी की भी हो, सिनाई की घाटी में जब जब बिजलियाँ चमकेगी-फिर बर्क फ़रोज़ाँ है सर-ए-वादी-ए-सीना- दुनिया में जब जहाँ अन्याय होगा, फैज़ के बोल – “बोल के लब आज़ाद हैं तेरे /बोल जबां अब एक तेरी है/ तेरा सुतवां जिस्म है तेरा / बोल,के जाँ अब तक तेरी है” – अन्याय के विरुद्ध संघर्ष में आम आदमी को ताक़त देते रहेंगे
[कश्मीर में अशांति का दौर फिर उभरा है 90 के दशक की अशांति के दौर के बाद पिछले वर्ष नयी पीढ़ी के नौजवानों को सड़कों पर पत्थर बरसाते हुए पूरे देश ने देखा कश्मीर की अशांत स्थिति का जायजा लेने , अगस्त ‘10 में दल के निर्देश पर – स्वयं उद्धेलित होकर – सांप्रदायिक असंतोष के कारणों और उसका स्रोत ढूँढने - कश्मीर पहुंचे थे मोहम्मद सलीम राजनितिक यात्रा होने के बावजूद उनकी नज़र मनोहर पहाड़ी क्षेत्र के सनातन सौंदर्य और परम्परागत विरासत पर भी रही नये राजनितिक घटनाक्रमों से कश्मीर में फिर अशांति के बादल छाने की आशंका है नीटिगत आवेग को लेकर किया गया यह विश्लेषण आज की परिस्थितियों में ज्यदा समीचीन है

मोहम्मद सलीम
कश्मीर में अविराम वर्षा

उद्धेलित-अशांत श्रीनगर
पार्टी से मिले निर्देशानुशार पार्टी के महासचिव प्रकाश करात के साथ मुझे भी शीघ्र श्रीनगर जाना होगा, और हरियाली धरती पर पहुँच कर आम लोगो के साथ वार्ता कर अचानक बदली हुई परिस्थितियों के कारणों को ढूंढना होगा बादलों से भरे आकाश को देखते-देखते हम अगस्त के तीसरे सप्ताह में पहाड़ियों में हाज़िर हो गये
पत्थर वृष्टि से कश्मीर तब खौल रहा था साथ में आकाश भी बरस रहा था इलाके के बच्चे-बूढ़े और युवकों के झुण्ड के झुण्ड बाहर निकलकर सुरक्षा कर्मियों पर अनवरत पत्थर बरसा रहे थे सुरक्षा बालों के जवान भी हाथों के अस्त्रों से उसका जबाब दे रहे थे अमरनाथ यात्रा के ठीक पहले जून के महीने से लगातार आंदोलन, घोषित-अघोषित कर्फ्यू ,बन्द और संघर्ष से पूरी पहाड़ी धधक रही थी स्वाभाविक जीवन-यापन जड़ हो चूका था एक दशक के बाद इस जन आक्रोश के उभार से मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्लाह के माथे पर सलवटें पड़ी हुयी थे केंद्रीय की यू.पी.ए. सरकार उदिग्न होने पर भी विराट जन-असंतोष को रोकने के लिए राजनितिक इच्छा शक्ति दिखाने में पूर्ण रूप से विफल रही पहाड़ी क्षेत्र के बाहर का पूरा भारत चुपचाप जैसे तमाशा देख रहा हो उधर पकिस्तान की बांछे खिली हुई थी – जल रहा है , जलने दो- कश्मीर को मुद्दा बनाने का यह अच्छा मौका है
कश्मीर के विभिन्न विरोधी दल भी गरम हवा से फायदा उठाने में पीछे नहीं थे और क्यों नहीं हो , 64 दिनों में सुरक्षा बालों की गोली से 63 युवकों के प्राण उनके शरीर से अलग हो गये – एक सुरक्षा जवान भी मारा गया पूरा परिवेश दूषित हो रहा था आंदोलन पर पूरा नियंत्रण पाकिस्तान पंथी वृद्ध जननेता अलीशाह जिलानी का था उनकी नीति, उन्ही के उकसावे से युवकों की भीड़ पूरे पहाड़ी इलाके में प्रश्न उठा रही थी- हम क्या मांगते ? साथ-साथ सभी के गलों से एक ही जबाब - आजादी-आज़ादी
बराबर कश्मीरियों के पास
वामपंथी बराबर कश्मीरियों के साथ खड़े थे आज भी हैं इस मामले में सी.पी.आइ.एम. का नजरिया बगैर किसी दुराग्रह के बिलकुल स्पष्ट है एक- दिल्ली के खास-दरबार में बैठकर या पर्यटकों की तरह दुरी बनाये रखते हुए दो-एक बार घूम आने से कश्मीर को नहीं समझा जा सकता- परिस्थितियों का सटिक मूल्यांकन नहीं हो सकता दो- डल झील के सजे धजे परिवेश में हरि पर्वत के शिखर पर खड़े होकर अथवा पहाड़ी के निचले हिस्से में स्थित वातानुकूलित ‘शेख – मंजिल’ के अति सुरक्षित महल से भी पहाड़ी क्षेत्र का अभिमान, क्षोभ, वंचना, और आतंक का अंदाज़ करना मुश्किल है काश्मिरियों के बचे-खुचे अस्थि-पंजरो को सादर छूकर आत्मीयता से देखना होगा की असंतोष की जड़ें कहाँ है ? तीन- कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है वहाँ की समस्याओं को लेकर पाकिस्तान या वांशिगटन का हस्तक्षेप नहीं चलेगा चार- वार्ता मेज़ पर बैठकर कश्मीरियत को सही अर्थों में मर्यादा देते हुए सभी पक्षों के साथ बातचीत कर सही राह ढूंढनी होगी पाँच- यह सिर्फ शाषक और शाषित की द्वि-पक्षीय समस्या नहीं है इसका स्रोत बहुत गहराई में है इतिहास, कश्मीरियों के संघर्ष की लंबी परंपरा , इलाके की भौगोलिक स्थिति एवं धार्मिक सहिष्णुता के धारावाहिक प्रवाह को समझकर उस गहराई के तल को जानना होगा छः – कश्मीरी भारत के प्राचीन जन समुदायों में से है धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को लेकर उन्होंने भारत के साथ स्वेच्छा से अपने को जोड़ा 90 के दशक की शुरुआत में अचानक ये विचार बदल गये,क्यों ? सात- दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु , चेन्नई एवं दूसरे महत्व पूर्ण शहरों के विकास के साथ पहाड़ी क्षेत्र का, विशेषकर श्रीनगर की श्री वृद्धि में इतना अन्तर क्यों ? क्या कारण है ? विषमता ? अलगावबोध ?
वामपंथियों की स्थायी स्थिति और हमदर्दी को दिमाग में रखकर हम उसी समय उद्धेलित परिस्थितियों के कारण खोजने शीघ्रताशीघ्र श्रीनगर आ पहुंचे प्रकाश करात ने दल के कार्यकर्ताओं , समर्थकों और अन्यान्य लोगों के साथ बातचीत की हमें दो दिन रुकना पड़ा रहने की जगह थी सर्किट हाउस
सहिष्णुता की परंपरा का मनोहर बगीचा
मेरे कमरे के बरामदे में खड़े होकर या खिडकी की ओर मुंह करते ही आँखों के सामने आभाषित होता है दूर दिखती पर्वत श्रृंखला और सेतु से घिरे शहर का मेघाच्छन नज़ारा बहुत बार कश्मीर आया हूँ कभी दल या सरकारी कार्य से , कभी व्यक्तिगत यात्रा में हर बार मन में आया – इस पहाड़ी क्षेत्र एवं उपमहादेश के अत्यंत प्राचीन शहर के रूप में प्रतिष्ठित श्रीनगर की खूबसूरत रहस्यमयता मानो अनंत है इसका प्रारंभ और अंत कहाँ है- कौन जानता है ? चारों तरफ सदा बहार सौंदर्य का विशाल फैलाव कहीं पहाड़ों के धसने से डल झील की हृदयस्थली के साथ अद्भुत साम्जस्यता बनाये हुए उत्तर की तरफ रास्ता निकलता है कहीं चढने उतरने के रस्ते और जिस इलाके में एक समय मीर वाइज मौलवी फारूक रहते थे- अभी उसी घर में हुर्रियत नेता उमर अब्दुल्लाह का घर और कार्यालय है इस अंचल को निःशब्द छूता है डल झील का पानी, छोटे बड़े पेड़ और शांत वातावरण वहीँ है मुसलमानों का पुण्य तीर्थ हज़रत बल दरगाह डल गेट घनी आबादी और जगह-जगह होटलों से भरा है युगों से परंपरा रही है कि देशी विदेशी पर्यटक यहाँ ठहरकर ही घूमने की तैयारी करते हैं डल गेट से दक्षिण, पश्चिम या पूर्व की तरफ बढते ही इतिहास के असंख्य आश्चर्य दीखते हैं यही तो कुह-ए-सुलेईमान पहाड़ पर खड़े हैं अर्थात यह सुलेईमान या शंकराचार्य मंदिर है आँखों के सामने मानो आ रहा है कोह-ए-मारन यानि हरि पर्वत, फिर महल, राजा प्रभारसेन द्वारा निर्मित एवं सम्राट अशोक के निर्देश पर पुनःनिर्मित प्राचीन कश्मीर की राजधानी पन्दरथन के ध्वंशावशेष और उस तरफ गौतम बुद्ध की पवित्र स्मृति संजोये पीर महल , एक मील दूर सौंदर्य प्रेमी बादशाह शाहजहाँ द्वारा निर्मित चश्मे-शाही , सम्राट जहाँगीर की प्रिय पत्नी नूरजहाँ के सगे भाई आसफ खान द्वारा निर्मित विशाल निशात बाग एवं अकबर के पुत्र की स्मृति संजोये शालीमार बाग पूरा पहाड़ी क्षेत्र ही मानो विविध जन समुदायों, धार्मिक संस्कृति की स्थापत्यता एवं ख़ूबसूरत प्राकृति के आशीर्वाद से सजा सहिष्णुता की परंपरा का विशाल मनोहर बगीचा है कुदरत के इस बाग में बर्फ के निचे एवं ऊपर आग किसने लगायी ? किसने बारबार उकसाकर शांतिप्रिय सहनशील कश्मीरियों के हाथों में बन्दूक और पत्थर दिए ? किनकी उदासीनता और भेद-भाव का शिकार होकर कम आयु के तरुण भयभीत होकर आज रास्तों पर निकल पड़े ? – इन सब प्रश्नों के जबाब विवेकपूर्ण नीति से ढूँढने की जरूरत है समस्या का अविलम्ब समाधान नहीं हुआ तो कश्मीर कश्मीरियत के बाहर चला जायेगा लाशों के ढेर पर खड़े होकर महान कश्मीरी सभ्यता की, कश्मीरियत की नाक ऊँची नहीं रह पाएगी प्रकृति मनुष्य के कंधो पर एक एक समय में दायित्व रखती है, सत्य की राह तलाश करने के निर्देश के साथ समाज और राष्ट्र अपना दायित्व भूलकर चलने की चेष्टा करें तो क्रमशः बढती उत्तेजना मूर्त रूप धारण कर पूजा का दावा करती है मनुष्य कुछ समय तक रक्त देकर उसकी उपासना भी करता रहता है लेकिन जब पूरा शरीर रक्तहीन हो जाये तब ही भयंकर सामाजिक बिमारियाँ फूटती है कश्मीर को इस व्याधि से मुक्त रखने का दायित्व सिर्फ कश्मीर का नहीं है, हम सब का है
उचित रास्ता , उचित विचार का रास्ता
चलते-चलते विभिन्न स्तर के लोगो से बातचीत करते करते दो दिन बीत गये देखने लायक इतिहास प्रसिद्ध जगहों को घूमकर देखना एवं और अनेक लोगो से बातचीत नहीं हुई फिर आयेंगे, यही सोचकर खुद को आश्वस्त किया पहले भी आया , इस बार भी मन में आया – 1. कश्मीरी स्वभाव से विनम्र है, सभ्य है उनके हाथों में बन्दूक शोभा नहीं देती मुनि-ज्ञानी और सूफियों का भूखंड , जिनका जनजीवन पर गहरा प्रभाव है फिर भी गत शताब्दी के 90 के दशक की शुरुआत में पहले जे.के.एल.एफ., बाद में धार्मिक जन्गजुओं ने भारतवर्ष के विरुद्ध हथियार उठा लिए 2. साधारण लोगों ने जन्गजुओं और जेहादियों के आतंक को नहीं माना प्रतिवाद और प्रतिरोध में अनेक लोग शहीद हुए जन समर्थन के अभाव में जन्गजुओं की संख्या 70 हज़ार से 7 हज़ार रह गई 3. हमारे सुरक्षा कर्मी आतंक का दमन करते हुए जैसे मारे गएँ हैं, वैसे ही जन्गजुओं के विरुद्ध समय-समय पर तलाशी अभियान में साधारण लोग भी इस राष्ट्रीय आतंक की बलि चढ़े हैं लोकतंत्र में यह उचित नहीं 4. एक दशक के आतंक पूर्ण माहोल में साधारण लोगों का दम घुट गया चुनावों में बी.जे.पी के सत्ताच्युत होने पर कश्मीरियों ने सोचा था , सत्ता में यू.पी.ए. सरकार आई है, वह समस्या का उचित समाधान ढूंढेगी गुलाम नबी आज़ाद के मुख्यमंत्री बनने पर जन्गजुओं के उपद्रव में थोड़ी कमी भी आई बहुतेरों ने हथियार छोड़कर सामान्य जीवन अपना लिया 5. नवयुवकों ने नौजवान मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्लाह को तारणहार समझा था उसको ‘आइकन’ बनाने का प्रयास दिल्ली, इस्लामाबाद और वांशिगटन ने किया किन्तु उमर नौजवानों की आशा पूरी करने विफल रहे, यह सामाजिक जन असंतोष की शुरुआत से ही प्रमाणित हो गया 90 के दशक के अंत में जिनका जन्म हुआ उनका बचपन अशांत परिवेश में गुजरा, दहशतगर्दी और राष्ट्रीय आतंक देखते-देखते जो बड़े हुए - उन्होंने देखा की उमर उसी सिक्के का एक और पहलु मात्र है अनीति, गरीबी बढ़ रही है, विकास थम गया है, थोपे गये असंतोष का जबाब खोजने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है कश्मीरियत को मिलने लायक मर्यादा ही अस्वीकृत है केन्द्र-राज्य दोनों पक्ष ही इस मामले में उदासीन है अतएव घुटता हुआ असंतोष विक्षोभ के रूप में सड़कों पर उतर आया जिन सब कम उम्र के तरुणों ने पिछले विधान सभा चुनाव में उमर अब्दुल्लाह को समर्थन दिया , वही सब अलीशाह जिलानी के नेतृत्व को स्वीकार कर आंदोलन में कूद पड़े 6. नीति बदल गई हाथों में बन्दूक नहीं, पत्थर और जन-विद्रोह उनके अस्त्र बने और पत्थरों के बदले ईंटो के टुकड़े नहीं , गोलियाँ छोड़नी शुरू की हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा वाहिनी ने दो महीनो में 63 तरुण मारे गये, 100 दिनों में 104 तब भी बन्दूक और जन्गजुओं को पहाड़ियों ने बढ़ावा नहीं दिया यह अच्छा लक्षण है 7. उमर अब्दुल्लाह ने भयंकर भूल की , उन्होंने अतिरिक्त केंद्रीय वाहिनी की मांग की जन असंतोष को अस्त्रों का भय दिखाकर नहीं तोड़ा जा सकता- यह वास्तविकता वे भूल गये उन्ही के दादा एवं काश्मिरियत के प्रधान प्रवक्ता कश्मीर-केसरी शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह के निःशस्त्र आंदोलन का इतिहास भी उनको याद नहीं रहा शेख अब्दुल्लाह को किसानो की तरफ से डोगरा राजा के खिलाफ अपने जीवन की आधी शती लड़ाई में लगानी पड़ी अस्त्र को उन्होंने महत्व नहीं दिया उनकी साथी आम जनता थी और सपना था अखंड ,स्वशाषित कश्मीर का- जहाँ कश्मीर की परंपरागत विरासत , सहनशीलता सर्वोपरि रहेगी, उन्माद को बढ़ावा नहीं मिलेगा, राष्ट्र लोगों पर लाठियां नहीं बरसायेगा
व्यक्तिगत प्रार्थना
मेरे मन में आया, शेख अब्दुल्लाह के सपने का साकार होना ही कश्मीर समस्या के समाधान का बेहतर रास्ता है कश्मीरियों को उनका अधिकार देना ही होगा सेना उतारकर , कदम कदम पर अर्ध सैनिकों के पहरे बैठा कर दबे हुए अथवा प्रदर्शित जन विक्षोभ को सम्भाला नहीं जा सकेगा इससे अविश्वास बढ़ेगा, अलगावबोध की जगह स्थायी अलगाव बोध ले लेगा केन्द्र स्वायतशाषन की बात कर रहा है, इसका आश्वाशन या आश्वाशन का प्रयोग इस समय संभवतः समस्या का सही समाधान नहीं है एकमात्र सुविचारित बातचीत और कश्मीरी भावावेग की स्वीकृति ही अशांत कश्मीर में शांति और सहिष्णुता वापस ला पायेगी दूसरी तरफ कश्मीर के सन्दर्भ में इस्लामाबाद या वांशिगटन की दादागिरी का रास्ता हमेशा के लिए बन्द कर देना होगा ; हमारी भूलें , हमारे संशय , हमारी उदासीनता से अमेरिका या पाकिस्तान को अपनी छोटी-बड़ी नाक पहाड़ी क्षेत्र में घुसाने का मौका ना मिले जिन्होंने चुनाव में समर्थन पाकर जन प्रतिनिधित्व करने का सुयोग पाया है, वे सभी इस मंगलभावना में शामिल हों- यही व्यक्तिगत प्रार्थना है
लेखक लोकसभा के भू.पू, सांसद और सी.पी.आई.एम की केंद्रीय कमिटी के सदस्य हैं
रेल बजट पेश - लक्ष्य राइटर्स
जगमग पश्चिम बंगाल, बाकी सब कंगाल


कोलकाता 27 फरवरी रेल मंत्री ममता बनर्जी ने 2011-12 का रेल बजट पेश कर दिया है जाहिर है कि उनके गृहराज्य पश्चिम बंगाल में इस साल होने वाले विधान सभा चुनाव में बढ़त लेने के लिए उन्होंने बजट का हथियार के रूप में प्रयोग किया है इसे लोकलुभावन बजट कहें या जनप्रिय बजट , उद्धेश्य पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनाव को अपने पक्ष में प्रभावित करना है चुनावी वर्ष में भाड़े को नहीं बढ़ाना , पिछले वादों की हकीकत से बेफिक्र घोषणाओं का नया विस्फोट, नयी वैगन-कोच फैक्टरियों का निर्माण, लाइन छमता बढाने का वादा और इन वादों, घोषणाओं को पूरा करने के लिए धन का अभाव और अन्य स्त्रोतों (निजी भागीदारी पर दारोमदार) को लेकर संशय स्पष्ट है कि लक्ष्य पश्चिम बंगाल का विधान सभा चुनाव ही हैं इस बजट के बाद भी रेलवे में जो जैसा था , वैसा ही रहने वाला है कोई बदलाव नहीं होगा ममता ने साबित किया कि उनकी रेल यूँ ही चलेगी पश्चिम बंगाल में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र उन्होंने योजनाओं का ऐसा पिटारा खोला जिनके पूरा होने में संदेह ही संदेह है ‘घोषणाओं से क्या नाम न होगा’ कि तर्ज़ पर ममता ने पश्चिम बंगाल सरकार के मुख्यालय राइटर्स बिल्डिंग जाने की जल्दी में 16 हज़ार पूर्व सैनिकों समेत दो लाख नए कर्मचारियों की भरती का एलान कर डाला है यह सोचे बगैर कि इससे रेलवे फिर उसी अंधी सुरंग में जा सकती है जिसका मुंह राकेश मोहन कमिटी ने बंद किया था उन्होंने रेलवे संरक्षा को लेकर पहली बार कुछ गंभीरता दिखाई मगर यह गंभीरता आठ जोनो में एंटी-कोलिज़न डिवाइस तथा सभी मानव रहित क्रोसिंगो पर चोकीदार तैनात करने तक ही सिमित है वर्ल्ड क्लास स्टेशनों और हाई स्पीड ट्रेनों के सुनहरे सपने में खोये यात्रियों को उन्होंने नए आदर्श स्टेशनों और गो इंडिया स्मार्ट कार्ड का लॉलीपॉप थमा दिया है ममता की लोकलुभावन कोशिशों का एकमात्र सकारात्मक पहलु यह है कि इनसे एक न एक दिन रेलवे की लाइन क्षमता का विस्तार होगा और रोलिंग स्टॉक की कमी दूर होगी इसके लिए रेल बजट में कई नयी वैगन कोच फैक्टरियों का एलान किया गया है रेल बजट में पश्चिम बंगाल के अलावा पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत को खास तरजीह दी गयी है, इन सभी क्षेत्रों में विधान सभा चुनाव होने हैं जम्मू कश्मीर में ब्रिज फैक्टरी और इंजीनियरिंग केंद्र की स्थापना वहाँ के हालात पर केंद्र की संजीदगी को दर्शाने के लिए है ममता को केंद्र से 15 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त बजटीय समर्थन इसी सब के लिए मिला है रेलवे बजट में इस बार भी कुलियों की अनदेखी की गयी


पश्चिम बंगाल पर उमड़ी ममता की ममता

-एक्सप्रेस और पेसेंजर ट्रेन मिलकर 34 नयी ट्रेन
-हावड़ा और सियालदह शाखा में 50 नयी लोकल ट्रेन
-एक टिकट में ही लोकल,मेट्रो और चक्र रेल की यात्रा के लिए स्मार्ट कार्ड
-कोलकाता रेल विकास कार्पोरेशन के गठन की घोषणा
-सुंदरवन क्षेत्र के बासंती, झाङखाली और सागर तक नए रेल पथ का विस्तार
-डायमंड हार्बर कल्याणी, श्रीरामपुर तक मेट्रो के विस्तार के लिए समीक्षा
-सिंगुर में मेट्रो कोच कारखाना
-नंदीग्राम और जलिंघ्या में ओद्योगिक पार्क और नया रेल पथ
-लालगढ़ में नयी ट्रेन
-उलबेङिया में ट्रेक मशीन कारखाना
-खङगपुर में प्रशिक्षण केंद्र
-मछ्लन्दपुर में पोलिटेक्निक कालेज
-दार्जिलिंग में सोफ्टवेयर प्रकल्प
-कर्सियांग में आधारभूत प्रशिक्षण केंद्र
-कोलकाता मेट्रो रेल को अलग जोन का दर्ज़ा (17 वीं जोन)
बंगाल को जो नहीं मिला -
-डबल डेकर ट्रेन पश्चिम बंगाल से दूर रही
-तीन नयी शताब्दी ट्रेनों की घोषणा – पश्चिम बंगाल को एक भी नहीं
बंगाल के राजस्थानी प्रवासिओं को उपहार
-राजस्थान और बंगाल के बीच हावड़ा – जैसलमेर एक्सप्रेस (साप्ताहिक)
-कोलकाता- अजमेर एक्सप्रेस (आसनसोल होकर-साप्ताहिक) शुरू करने की घोषणा
पिछली बजटीय घोषणाएँ – एक नज़र
-2010 के बजट में एक वर्ष में 1000 किलो मीटर नयी रेल लाइन विस्तार का लक्ष्य – समिक्षनुसार हासिल 206 किलो मीटर
-2009 के बजट में डेडिकेटेड फ्रेट कोरिडोर (हीरक कोरिडोर) बनाने का प्रस्ताव – समीक्षा बताती है की इस मामले में रेल प्रसाशन बुरी तरह पिछड़ा
-2009 के रेल बजट में घोषणा की गयी कि 50 स्टेशनों को वैश्विक मानदंडो के अनुसार तैयार करना – इसमें पश्चिम बंगाल के हावड़ा, सियालदह, कोलकाता, न्यू जलपाईगुडी और माझेरहाट का नाम शामिल था 2010 के रेल बजट में घोषणा की गयी कि इस प्रकल्प में 10 स्टेशन और जोड़े गए – पश्चिम बंगाल के बोलपुर और खडगपुर के नाम प्रकल्प में जोड़े गए 2011 में आर्थिक हालात के चलते प्रकल्प ख़ारिज

पिछले बजटों की घोषणाओं का हश्र संशय बढाता है, नया बजट फिर से आशाएं जगाता है