‘फैज़ अहमद फैज़’ का जन्मशताब्दी वर्ष
प्रेम और क्रांति के कवि थे फैज़ अहमद फैज़
फैज़ का जन्म 13 फरवरी 1911 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रान्त के सियालकोट (अभी पाकिस्तान में) के कला कदेर गांव (अब फैज़ नगर) में एक साहित्यिक माहौल वाले धार्मिक परिवार में हुआ फैज़ की माँ सुल्तान फातिमा और पिता सुल्तान मोहम्मद खान थे फैज़ के पिता ने आमिर अब्दुर्रहमान की जीवनी लिखी थी चार साल की आयु में फैज़ ने पवित्र कुरान की आयतें सीखना शुरू किया परंपरागत तरीके से 1916 में मौलवी इब्राहीम सियालकोट के विद्यालय में फैज़ की प्रारंभिक शिक्षा शुरू हुई जहाँ उन्होंने उर्दू, फारसी और अरबी भाषा की प्रारंभिक शिक्षा ली वे 1921 में स्कॉट मिशन हाई स्कूल में कक्षा 4 में भरती किये गए उन्होंने मुरे कालेज सियालकोट से दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की इसी बीच उन्होंने उर्दू के मशहूर शायर अल्लामा इकबाल के शिक्षक जनाब शम्सुल उल्लामा मौलवी सय्यद मीर हसन से फारसी और अरबी सीखी प्रो. युसूफ सलीम चिस्ती का उन पर गहरा प्रभाव था जिनसे फैज़ ने उर्दू सीखी गवर्मेंट कालेज,लाहौर से अरबी में स्नातक होने के बाद 1932 में उन्होंने इसी कालेज से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर डिग्री ली ओरियंटल कालेज , लाहौर से फैज़ ने अरबी साहित्य में एम्.ए. प्रथम श्रेणी से पास किया एम्.ए.ओ. कालेज, अमृतसर से 1935 में अंग्रेजी के लेक्चरार के रूप में अपना करियर शुरू किया और बाद में हैली कालेज ऑफ कॉमर्स , लाहौर में लेक्चरार बने 1942 में कैप्टन के रूप में मिलिट्री में आये और दिल्ली में सेना का जन-संपर्क विभाग संभाला 1943 में प्रोन्नत होकर मेजर और 1944 में लेफ्टिनेन्ट कर्नल बने 1947 में सेना से त्यागपत्र देकर लाहौर चले आये और 1959 में पाकिस्तान आर्ट कौंसिल के सचिव नियुक्त हुए और 1962 तक इस पद पर काम किया 1964 में लन्दन से लौटकर फैज़ ने कराची को अपना स्थायी निवास बनाया और अब्दुल्लाह हारुन कालेज , कराची के प्रिंसिपल बने 1947 से 1958 तक मासिक पत्रिका अदब-ए-लतीफ़ का संपादन किया पाकिस्तान टाइम्स के पहले प्रधान संपादक होने के साथ उन्होंने उर्दू अखबार ‘इमरोज’ , और साप्ताहिक पत्रिका ‘लैल-ओ-निहार’ का संपादन भी किया 1965 के भारत पकिस्तान युद्ध के समय सूचना विभाग में उन्होंने अवैतनिक कार्य किया मास्को, लन्दन और बेरुत में उन्होंने एफ्रो-एशियाई पत्रिका ‘लोटस’ का संपादन किया रावलपिंडी षडयंत्र मामले में सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार हुए और चार साल एक महीने तक सरगोधा और मोंटगोमेरी की जेलों में बिताने के बाद 1955 में रिहा हुए वापस 1958 में जेल और फिर रिहाई फैज़ की शायरी में यहाँ से मोड़ आता है –“वो बात ,सारे फ़साने में जिसका जिक्र न था / वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है” बंगलादेश मुक्ति आंदोलन के दौरान हुए खून-खराबे के विरोध में फैज़ ने कवितायेँ लिखी ‘कम्युनिस्ट’ फैज़ सूफी मत के समर्थक थे बाबा मलंग साहिब, अशफाक अहमद,सय्यद फखरुद्दीन बल्ली, वासिफ अली वासिफ आदि नामचीन सूफियों के वे प्रसंशक थे सूफियों को फैज़ सच्चा ‘कामरेड’ कहते थे ‘नक्श ए फरियादी’ (1943), ‘ दस्त-ए-सबा’ (1952), ‘ज़िन्दाँ नामा’ (1956), ‘दस्त-ए-तह-ए-संग’ (1965) उनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ है ‘नुस्खा हाये वफ़ा’ के नाम से इन रचनाओं का संयुक्त संस्करण भी प्रकाशित हुआ ‘सर-ए-वादी-ए-सीना’ (1971), ‘शाम-ए-सहर-ए-यारां’ (1978), ‘मेरे दिल मेरे मुसाफिर’ (1980) फैज़ के अन्य प्रकाशित काव्य संग्रह है इसके अलावा ‘मिजान’ (लेख संग्रह, 1963), ‘सलीबें मेरे दरिचें में’ (पत्नी श्रीमती एलिस फैज़ को जेल से लिखे गए पत्रों का संग्रह, 1971) और ‘मताए-लौह-ओ-कलम’ (भाषण, लेख, साक्षात्कार और नाटक आदि का संग्रह, 1980) भी प्रकाशित हो चुके हैं फैज़ अहमद फैज़ की रचनाओं का अंग्रेजी और रुसी भाषा सहित विश्व की बहुत सी भाषाओँ में अनुवाद हुआ फैज़ के मित्र बलूची कवि मीर गुल खान नासिर ने फैज़ के शायरी संग्रह ‘सर-ए-वादी-ए-सीना” का बलूच में ‘सीनै किचाग आ’ (1980) नाम से अनुवाद किया
1930 में ब्रिटिश महिला एलिस से फैज़ का विवाह हुआ उनकी दो बेटियां मोनीज़ा और सलीमा हाशमी हैं फैज़ एशिया के पहले कवि थे जिन्हें सोवियत रूस का प्रसिद्ध ‘लेनिन शांति पुरस्कार’ (1963) मिला उनकी मृत्यु से पहले 1984 में उनका नाम साहित्य के नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया फैज़ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे और 1936 में उन्होंने पंजाब में प्रगतिशील लेखक संघ की शाखा बनायीं और उसका सचिव के रूप में नेतृत्व किया फैज़ कम्युनिज्म को मानते थे और पाकिस्तान में कम्युनिस्ट आंदोलन को खड़ा करने का उनका प्रयास अविष्मर्णीय रहेगा
इकबाल के साथ उर्दू के महान कवि के रूप में फैज़ को बहुत पहले ही स्वीकृति मिल चुकी है फैज़ के सामाजिक-राजनितिक प्रगतिशील विचारों के आलोचक भी इससे इनकार नहीं करते हाँ, उनकी प्रसंशा करते हुए फैज़ के आलोचक आश्चर्य करते हैं कि इतना बढ़िया आदमी कम्युनिस्ट कैसे बन गया ? अन्य भाषाओँ के साथ फैज़ उर्दू,पंजाबी,हिंदी, अरबी, फारसी और अंग्रेजी की ‘क्लासिकल’ कविताओं की विभिन्न धाराओं के गंभीर प्रशिक्षु थे और शुरुआती दौर में ही फैज़ ने महसूस किया -कि शायरी कला में तथ्य आधार है, बुनावट नहीं, -कि वास्तविकता का शायरी में हो रहे नए प्रयोगों से बहुत कम सरोकार है, -कि शायरी मनुष्यता को इसकी पूर्णता और समग्रता से समझने की कला है उनके आलोचनात्मक लेख इस सत्य को प्रकाशित करते हैं कि हमारे युग में कविताओं के जरुरी तत्त्व क्या हो इकबाल अपनी कविताओं में क्रांति को महिमामंडित करते हैं और शोषक वर्ग के विरुद्ध आम आदमी के खड़े होने का आह्वान करते हैं नोबल पुरस्कार से सम्मानित रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीतों में जन गण के प्रेम-विरह-प्रकृति-दर्शन-सिद्धांत है इकबाल फैज़ की पसंद थे फैज़ आम लोगो के विद्रोह से खुद को जोड़ते हैं और कवि के रूप में क्रांति के सामूहिक कारणों को अंगीकार कर तदानुसार उत्पन्न विभिन्न परिस्थितियों और मिजाज को अपनी शायरी का विषय बनाते हैं लंबे और दुरूह क्रांतिकारी संघर्ष की यात्रा में आम आदमी के ,किसान और मजदूर के अनुभव उनकी रचनाओं की विशेषता है अपने एक पंजाबी गीत में फैज़ किसानो से संबोधित हैं-..’भुलिया, तूं जग दा अनदाता / तेरी बाँदी धरती माता / तूं जग दा पालणहारा ...’ और आगे ...’एका कर लो हो जओ कट्ठे / भूल जाओ रांगङ, चीमे चट्ठे / सब्भे दा इक परवार,... फैज़ महान गीतकार हैं और प्रेम उनकी कविताओं का आवरण है एक नज़रिए से देखने पर लगता है कि फैज़ ने प्रेम के गीत ही रचे हैं ग़ालिब कहते थे कि अच्छे शायर को बूंद में सागर देखने का इल्म आना चाहिए फैज़ शायरी लेखन में ग़ालिब से गहरे दार्शनिक समन्वय का सिद्धांत लेते हैं और अपने समय के कवियों के सिद्धांत को खारिज करते हैं जो शायरी लेखन को साहित्य की सिर्फ सहायक गतिविधि मानते है वे एक कदम आगे जाकर कहते हैं कि ग़ालिब की शायरी लेखन की परिभाषा अधूरी है क्योंकि कवि को बूंद में सागर देखना ही काफी नहीं , उसे पाठकों और श्रोताओं को बूंद में सागर दिखाना भी पड़ता है क्रांति-कवि होने के साथ फैज़ प्रेम-कवि भी है और फैज़ की कविताओं में दोनों में कोई विभेद नहीं है क्रांति और प्रेम ,दोनों फैज़ के साथ एकाकार हैं, उम्मीदों से भरें हैं ‘दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है; लंबी है गम की शाम मगर, शाम ही तो है’ फैज़ को इकबाल बानो की जुबानी सुने-‘ और एहल-ए-हुकुम के सर ऊपर ,जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी ”या “हम देखेंगे”- यहाँ फैज़ अपने समकालीन कवियों से बहुत आगे हैं फैज़ की कविताओं में महान साहित्यिक मूल्य और आम आदमी के सामाजिक सरोकारों की धारावाहिकता है उनकी शायरी की सबसे बड़ी शक्ति उनका जन-मानस से सम्बन्ध है चाहे दुनिया के किसी भी कोने में अत्याचार हो, फैज़ किसी भी अंतर्राष्ट्रीय घटना से अछूते नहीं रहे इरान के छात्रों के समर्थन में ‘ईरानी तुलबा के नाम’, अफ्रीका के स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थन में ‘अफ्रीका कम बेक’, साम्राज्यवादियों से संघर्षरत अरबों के समर्थन में ‘सर-ए-वादी-ए-सीना’, फिलिस्तानियों के लिए ‘दो नज्मे फिलिस्तीन के लिए’ , बेरुत-जनसंहार के विरुद्ध ‘एक नगमा करबला-ए-बेरुत के लिए’ लिखकर अपना रोष व्यक्त करते हैं – “ हर कुश्ता मकाँ हर एक खंडर, हम-पाया-ए-कस्त्र-ए-दारा है / हर गाज़ी रश्क-ए-इस्कन्दर, हर दुख्तर क़ामत-ए-लैला है / बैरुत निगार-ए-बज़्म-ए-जहाँ, बैरुत बादिल-ए-बाग-ए-जिनां ” इस तरह फैज़ की कवितायेँ स्थान और समय की सीमाओं से आगे जाकर विश्व के तमाम शोषित और दलित जन की पुकार बन जाती है-“ मेरे दर्द को जो जबाँ मिले / मुझे अपना नाम-ओ-निशाँ मिले” आम आदमी के लिए फैज़ की शायरी संघर्ष और उससे तपे सुनहरे भविष्य का प्रतिक है-“ मेरी ज़ात का जो निशाँ मिले, मुझे राज-ए-नज़्म-ए-जहां मिले/ जो मुझे ये राज-ए-निहां मिले, मेरी खामोशी को बयाँ मिले / मुझे कायनात की सरवरी, मुझे दौलत-ए-दो-जहाँ मिले” इन मायनों में सरहदी बंधनों से मुक्त फैज़ अंतर्राष्ट्रीय कवि हैं
20 नवंबर 1984 को लाहौर में उनका निधन हुआ फैज़ अमर हैं कि कवि और शायर कभी नहीं मरते धरती पर बेड़ियों से जकड़े आम-आदमी के संघर्ष को कविताओं में ढालने वाले कवि हैं फैज़ कहीं भी हुकूमत किसी की भी हो, सिनाई की घाटी में जब जब बिजलियाँ चमकेगी-फिर बर्क फ़रोज़ाँ है सर-ए-वादी-ए-सीना- दुनिया में जब जहाँ अन्याय होगा, फैज़ के बोल – “बोल के लब आज़ाद हैं तेरे /बोल जबां अब एक तेरी है/ तेरा सुतवां जिस्म है तेरा / बोल,के जाँ अब तक तेरी है” – अन्याय के विरुद्ध संघर्ष में आम आदमी को ताक़त देते रहेंगे
प्रेम और क्रांति के कवि थे फैज़ अहमद फैज़
फैज़ का जन्म 13 फरवरी 1911 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रान्त के सियालकोट (अभी पाकिस्तान में) के कला कदेर गांव (अब फैज़ नगर) में एक साहित्यिक माहौल वाले धार्मिक परिवार में हुआ फैज़ की माँ सुल्तान फातिमा और पिता सुल्तान मोहम्मद खान थे फैज़ के पिता ने आमिर अब्दुर्रहमान की जीवनी लिखी थी चार साल की आयु में फैज़ ने पवित्र कुरान की आयतें सीखना शुरू किया परंपरागत तरीके से 1916 में मौलवी इब्राहीम सियालकोट के विद्यालय में फैज़ की प्रारंभिक शिक्षा शुरू हुई जहाँ उन्होंने उर्दू, फारसी और अरबी भाषा की प्रारंभिक शिक्षा ली वे 1921 में स्कॉट मिशन हाई स्कूल में कक्षा 4 में भरती किये गए उन्होंने मुरे कालेज सियालकोट से दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की इसी बीच उन्होंने उर्दू के मशहूर शायर अल्लामा इकबाल के शिक्षक जनाब शम्सुल उल्लामा मौलवी सय्यद मीर हसन से फारसी और अरबी सीखी प्रो. युसूफ सलीम चिस्ती का उन पर गहरा प्रभाव था जिनसे फैज़ ने उर्दू सीखी गवर्मेंट कालेज,लाहौर से अरबी में स्नातक होने के बाद 1932 में उन्होंने इसी कालेज से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर डिग्री ली ओरियंटल कालेज , लाहौर से फैज़ ने अरबी साहित्य में एम्.ए. प्रथम श्रेणी से पास किया एम्.ए.ओ. कालेज, अमृतसर से 1935 में अंग्रेजी के लेक्चरार के रूप में अपना करियर शुरू किया और बाद में हैली कालेज ऑफ कॉमर्स , लाहौर में लेक्चरार बने 1942 में कैप्टन के रूप में मिलिट्री में आये और दिल्ली में सेना का जन-संपर्क विभाग संभाला 1943 में प्रोन्नत होकर मेजर और 1944 में लेफ्टिनेन्ट कर्नल बने 1947 में सेना से त्यागपत्र देकर लाहौर चले आये और 1959 में पाकिस्तान आर्ट कौंसिल के सचिव नियुक्त हुए और 1962 तक इस पद पर काम किया 1964 में लन्दन से लौटकर फैज़ ने कराची को अपना स्थायी निवास बनाया और अब्दुल्लाह हारुन कालेज , कराची के प्रिंसिपल बने 1947 से 1958 तक मासिक पत्रिका अदब-ए-लतीफ़ का संपादन किया पाकिस्तान टाइम्स के पहले प्रधान संपादक होने के साथ उन्होंने उर्दू अखबार ‘इमरोज’ , और साप्ताहिक पत्रिका ‘लैल-ओ-निहार’ का संपादन भी किया 1965 के भारत पकिस्तान युद्ध के समय सूचना विभाग में उन्होंने अवैतनिक कार्य किया मास्को, लन्दन और बेरुत में उन्होंने एफ्रो-एशियाई पत्रिका ‘लोटस’ का संपादन किया रावलपिंडी षडयंत्र मामले में सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार हुए और चार साल एक महीने तक सरगोधा और मोंटगोमेरी की जेलों में बिताने के बाद 1955 में रिहा हुए वापस 1958 में जेल और फिर रिहाई फैज़ की शायरी में यहाँ से मोड़ आता है –“वो बात ,सारे फ़साने में जिसका जिक्र न था / वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है” बंगलादेश मुक्ति आंदोलन के दौरान हुए खून-खराबे के विरोध में फैज़ ने कवितायेँ लिखी ‘कम्युनिस्ट’ फैज़ सूफी मत के समर्थक थे बाबा मलंग साहिब, अशफाक अहमद,सय्यद फखरुद्दीन बल्ली, वासिफ अली वासिफ आदि नामचीन सूफियों के वे प्रसंशक थे सूफियों को फैज़ सच्चा ‘कामरेड’ कहते थे ‘नक्श ए फरियादी’ (1943), ‘ दस्त-ए-सबा’ (1952), ‘ज़िन्दाँ नामा’ (1956), ‘दस्त-ए-तह-ए-संग’ (1965) उनकी प्रमुख काव्य-रचनाएँ है ‘नुस्खा हाये वफ़ा’ के नाम से इन रचनाओं का संयुक्त संस्करण भी प्रकाशित हुआ ‘सर-ए-वादी-ए-सीना’ (1971), ‘शाम-ए-सहर-ए-यारां’ (1978), ‘मेरे दिल मेरे मुसाफिर’ (1980) फैज़ के अन्य प्रकाशित काव्य संग्रह है इसके अलावा ‘मिजान’ (लेख संग्रह, 1963), ‘सलीबें मेरे दरिचें में’ (पत्नी श्रीमती एलिस फैज़ को जेल से लिखे गए पत्रों का संग्रह, 1971) और ‘मताए-लौह-ओ-कलम’ (भाषण, लेख, साक्षात्कार और नाटक आदि का संग्रह, 1980) भी प्रकाशित हो चुके हैं फैज़ अहमद फैज़ की रचनाओं का अंग्रेजी और रुसी भाषा सहित विश्व की बहुत सी भाषाओँ में अनुवाद हुआ फैज़ के मित्र बलूची कवि मीर गुल खान नासिर ने फैज़ के शायरी संग्रह ‘सर-ए-वादी-ए-सीना” का बलूच में ‘सीनै किचाग आ’ (1980) नाम से अनुवाद किया
1930 में ब्रिटिश महिला एलिस से फैज़ का विवाह हुआ उनकी दो बेटियां मोनीज़ा और सलीमा हाशमी हैं फैज़ एशिया के पहले कवि थे जिन्हें सोवियत रूस का प्रसिद्ध ‘लेनिन शांति पुरस्कार’ (1963) मिला उनकी मृत्यु से पहले 1984 में उनका नाम साहित्य के नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया फैज़ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे और 1936 में उन्होंने पंजाब में प्रगतिशील लेखक संघ की शाखा बनायीं और उसका सचिव के रूप में नेतृत्व किया फैज़ कम्युनिज्म को मानते थे और पाकिस्तान में कम्युनिस्ट आंदोलन को खड़ा करने का उनका प्रयास अविष्मर्णीय रहेगा
इकबाल के साथ उर्दू के महान कवि के रूप में फैज़ को बहुत पहले ही स्वीकृति मिल चुकी है फैज़ के सामाजिक-राजनितिक प्रगतिशील विचारों के आलोचक भी इससे इनकार नहीं करते हाँ, उनकी प्रसंशा करते हुए फैज़ के आलोचक आश्चर्य करते हैं कि इतना बढ़िया आदमी कम्युनिस्ट कैसे बन गया ? अन्य भाषाओँ के साथ फैज़ उर्दू,पंजाबी,हिंदी, अरबी, फारसी और अंग्रेजी की ‘क्लासिकल’ कविताओं की विभिन्न धाराओं के गंभीर प्रशिक्षु थे और शुरुआती दौर में ही फैज़ ने महसूस किया -कि शायरी कला में तथ्य आधार है, बुनावट नहीं, -कि वास्तविकता का शायरी में हो रहे नए प्रयोगों से बहुत कम सरोकार है, -कि शायरी मनुष्यता को इसकी पूर्णता और समग्रता से समझने की कला है उनके आलोचनात्मक लेख इस सत्य को प्रकाशित करते हैं कि हमारे युग में कविताओं के जरुरी तत्त्व क्या हो इकबाल अपनी कविताओं में क्रांति को महिमामंडित करते हैं और शोषक वर्ग के विरुद्ध आम आदमी के खड़े होने का आह्वान करते हैं नोबल पुरस्कार से सम्मानित रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीतों में जन गण के प्रेम-विरह-प्रकृति-दर्शन-सिद्धांत है इकबाल फैज़ की पसंद थे फैज़ आम लोगो के विद्रोह से खुद को जोड़ते हैं और कवि के रूप में क्रांति के सामूहिक कारणों को अंगीकार कर तदानुसार उत्पन्न विभिन्न परिस्थितियों और मिजाज को अपनी शायरी का विषय बनाते हैं लंबे और दुरूह क्रांतिकारी संघर्ष की यात्रा में आम आदमी के ,किसान और मजदूर के अनुभव उनकी रचनाओं की विशेषता है अपने एक पंजाबी गीत में फैज़ किसानो से संबोधित हैं-..’भुलिया, तूं जग दा अनदाता / तेरी बाँदी धरती माता / तूं जग दा पालणहारा ...’ और आगे ...’एका कर लो हो जओ कट्ठे / भूल जाओ रांगङ, चीमे चट्ठे / सब्भे दा इक परवार,... फैज़ महान गीतकार हैं और प्रेम उनकी कविताओं का आवरण है एक नज़रिए से देखने पर लगता है कि फैज़ ने प्रेम के गीत ही रचे हैं ग़ालिब कहते थे कि अच्छे शायर को बूंद में सागर देखने का इल्म आना चाहिए फैज़ शायरी लेखन में ग़ालिब से गहरे दार्शनिक समन्वय का सिद्धांत लेते हैं और अपने समय के कवियों के सिद्धांत को खारिज करते हैं जो शायरी लेखन को साहित्य की सिर्फ सहायक गतिविधि मानते है वे एक कदम आगे जाकर कहते हैं कि ग़ालिब की शायरी लेखन की परिभाषा अधूरी है क्योंकि कवि को बूंद में सागर देखना ही काफी नहीं , उसे पाठकों और श्रोताओं को बूंद में सागर दिखाना भी पड़ता है क्रांति-कवि होने के साथ फैज़ प्रेम-कवि भी है और फैज़ की कविताओं में दोनों में कोई विभेद नहीं है क्रांति और प्रेम ,दोनों फैज़ के साथ एकाकार हैं, उम्मीदों से भरें हैं ‘दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है; लंबी है गम की शाम मगर, शाम ही तो है’ फैज़ को इकबाल बानो की जुबानी सुने-‘ और एहल-ए-हुकुम के सर ऊपर ,जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी ”या “हम देखेंगे”- यहाँ फैज़ अपने समकालीन कवियों से बहुत आगे हैं फैज़ की कविताओं में महान साहित्यिक मूल्य और आम आदमी के सामाजिक सरोकारों की धारावाहिकता है उनकी शायरी की सबसे बड़ी शक्ति उनका जन-मानस से सम्बन्ध है चाहे दुनिया के किसी भी कोने में अत्याचार हो, फैज़ किसी भी अंतर्राष्ट्रीय घटना से अछूते नहीं रहे इरान के छात्रों के समर्थन में ‘ईरानी तुलबा के नाम’, अफ्रीका के स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थन में ‘अफ्रीका कम बेक’, साम्राज्यवादियों से संघर्षरत अरबों के समर्थन में ‘सर-ए-वादी-ए-सीना’, फिलिस्तानियों के लिए ‘दो नज्मे फिलिस्तीन के लिए’ , बेरुत-जनसंहार के विरुद्ध ‘एक नगमा करबला-ए-बेरुत के लिए’ लिखकर अपना रोष व्यक्त करते हैं – “ हर कुश्ता मकाँ हर एक खंडर, हम-पाया-ए-कस्त्र-ए-दारा है / हर गाज़ी रश्क-ए-इस्कन्दर, हर दुख्तर क़ामत-ए-लैला है / बैरुत निगार-ए-बज़्म-ए-जहाँ, बैरुत बादिल-ए-बाग-ए-जिनां ” इस तरह फैज़ की कवितायेँ स्थान और समय की सीमाओं से आगे जाकर विश्व के तमाम शोषित और दलित जन की पुकार बन जाती है-“ मेरे दर्द को जो जबाँ मिले / मुझे अपना नाम-ओ-निशाँ मिले” आम आदमी के लिए फैज़ की शायरी संघर्ष और उससे तपे सुनहरे भविष्य का प्रतिक है-“ मेरी ज़ात का जो निशाँ मिले, मुझे राज-ए-नज़्म-ए-जहां मिले/ जो मुझे ये राज-ए-निहां मिले, मेरी खामोशी को बयाँ मिले / मुझे कायनात की सरवरी, मुझे दौलत-ए-दो-जहाँ मिले” इन मायनों में सरहदी बंधनों से मुक्त फैज़ अंतर्राष्ट्रीय कवि हैं
20 नवंबर 1984 को लाहौर में उनका निधन हुआ फैज़ अमर हैं कि कवि और शायर कभी नहीं मरते धरती पर बेड़ियों से जकड़े आम-आदमी के संघर्ष को कविताओं में ढालने वाले कवि हैं फैज़ कहीं भी हुकूमत किसी की भी हो, सिनाई की घाटी में जब जब बिजलियाँ चमकेगी-फिर बर्क फ़रोज़ाँ है सर-ए-वादी-ए-सीना- दुनिया में जब जहाँ अन्याय होगा, फैज़ के बोल – “बोल के लब आज़ाद हैं तेरे /बोल जबां अब एक तेरी है/ तेरा सुतवां जिस्म है तेरा / बोल,के जाँ अब तक तेरी है” – अन्याय के विरुद्ध संघर्ष में आम आदमी को ताक़त देते रहेंगे