[कश्मीर में अशांति का दौर फिर उभरा है 90 के दशक की अशांति के दौर के बाद पिछले वर्ष नयी पीढ़ी के नौजवानों को सड़कों पर पत्थर बरसाते हुए पूरे देश ने देखा कश्मीर की अशांत स्थिति का जायजा लेने , अगस्त ‘10 में दल के निर्देश पर – स्वयं उद्धेलित होकर – सांप्रदायिक असंतोष के कारणों और उसका स्रोत ढूँढने - कश्मीर पहुंचे थे मोहम्मद सलीम राजनितिक यात्रा होने के बावजूद उनकी नज़र मनोहर पहाड़ी क्षेत्र के सनातन सौंदर्य और परम्परागत विरासत पर भी रही नये राजनितिक घटनाक्रमों से कश्मीर में फिर अशांति के बादल छाने की आशंका है नीटिगत आवेग को लेकर किया गया यह विश्लेषण आज की परिस्थितियों में ज्यदा समीचीन है
मोहम्मद सलीम
कश्मीर में अविराम वर्षा
उद्धेलित-अशांत श्रीनगर
पार्टी से मिले निर्देशानुशार पार्टी के महासचिव प्रकाश करात के साथ मुझे भी शीघ्र श्रीनगर जाना होगा, और हरियाली धरती पर पहुँच कर आम लोगो के साथ वार्ता कर अचानक बदली हुई परिस्थितियों के कारणों को ढूंढना होगा बादलों से भरे आकाश को देखते-देखते हम अगस्त के तीसरे सप्ताह में पहाड़ियों में हाज़िर हो गये
पत्थर वृष्टि से कश्मीर तब खौल रहा था साथ में आकाश भी बरस रहा था इलाके के बच्चे-बूढ़े और युवकों के झुण्ड के झुण्ड बाहर निकलकर सुरक्षा कर्मियों पर अनवरत पत्थर बरसा रहे थे सुरक्षा बालों के जवान भी हाथों के अस्त्रों से उसका जबाब दे रहे थे अमरनाथ यात्रा के ठीक पहले जून के महीने से लगातार आंदोलन, घोषित-अघोषित कर्फ्यू ,बन्द और संघर्ष से पूरी पहाड़ी धधक रही थी स्वाभाविक जीवन-यापन जड़ हो चूका था एक दशक के बाद इस जन आक्रोश के उभार से मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्लाह के माथे पर सलवटें पड़ी हुयी थे केंद्रीय की यू.पी.ए. सरकार उदिग्न होने पर भी विराट जन-असंतोष को रोकने के लिए राजनितिक इच्छा शक्ति दिखाने में पूर्ण रूप से विफल रही पहाड़ी क्षेत्र के बाहर का पूरा भारत चुपचाप जैसे तमाशा देख रहा हो उधर पकिस्तान की बांछे खिली हुई थी – जल रहा है , जलने दो- कश्मीर को मुद्दा बनाने का यह अच्छा मौका है
कश्मीर के विभिन्न विरोधी दल भी गरम हवा से फायदा उठाने में पीछे नहीं थे और क्यों नहीं हो , 64 दिनों में सुरक्षा बालों की गोली से 63 युवकों के प्राण उनके शरीर से अलग हो गये – एक सुरक्षा जवान भी मारा गया पूरा परिवेश दूषित हो रहा था आंदोलन पर पूरा नियंत्रण पाकिस्तान पंथी वृद्ध जननेता अलीशाह जिलानी का था उनकी नीति, उन्ही के उकसावे से युवकों की भीड़ पूरे पहाड़ी इलाके में प्रश्न उठा रही थी- हम क्या मांगते ? साथ-साथ सभी के गलों से एक ही जबाब - आजादी-आज़ादी
बराबर कश्मीरियों के पास
वामपंथी बराबर कश्मीरियों के साथ खड़े थे आज भी हैं इस मामले में सी.पी.आइ.एम. का नजरिया बगैर किसी दुराग्रह के बिलकुल स्पष्ट है एक- दिल्ली के खास-दरबार में बैठकर या पर्यटकों की तरह दुरी बनाये रखते हुए दो-एक बार घूम आने से कश्मीर को नहीं समझा जा सकता- परिस्थितियों का सटिक मूल्यांकन नहीं हो सकता दो- डल झील के सजे धजे परिवेश में हरि पर्वत के शिखर पर खड़े होकर अथवा पहाड़ी के निचले हिस्से में स्थित वातानुकूलित ‘शेख – मंजिल’ के अति सुरक्षित महल से भी पहाड़ी क्षेत्र का अभिमान, क्षोभ, वंचना, और आतंक का अंदाज़ करना मुश्किल है काश्मिरियों के बचे-खुचे अस्थि-पंजरो को सादर छूकर आत्मीयता से देखना होगा की असंतोष की जड़ें कहाँ है ? तीन- कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है वहाँ की समस्याओं को लेकर पाकिस्तान या वांशिगटन का हस्तक्षेप नहीं चलेगा चार- वार्ता मेज़ पर बैठकर कश्मीरियत को सही अर्थों में मर्यादा देते हुए सभी पक्षों के साथ बातचीत कर सही राह ढूंढनी होगी पाँच- यह सिर्फ शाषक और शाषित की द्वि-पक्षीय समस्या नहीं है इसका स्रोत बहुत गहराई में है इतिहास, कश्मीरियों के संघर्ष की लंबी परंपरा , इलाके की भौगोलिक स्थिति एवं धार्मिक सहिष्णुता के धारावाहिक प्रवाह को समझकर उस गहराई के तल को जानना होगा छः – कश्मीरी भारत के प्राचीन जन समुदायों में से है धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को लेकर उन्होंने भारत के साथ स्वेच्छा से अपने को जोड़ा 90 के दशक की शुरुआत में अचानक ये विचार बदल गये,क्यों ? सात- दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु , चेन्नई एवं दूसरे महत्व पूर्ण शहरों के विकास के साथ पहाड़ी क्षेत्र का, विशेषकर श्रीनगर की श्री वृद्धि में इतना अन्तर क्यों ? क्या कारण है ? विषमता ? अलगावबोध ?
वामपंथियों की स्थायी स्थिति और हमदर्दी को दिमाग में रखकर हम उसी समय उद्धेलित परिस्थितियों के कारण खोजने शीघ्रताशीघ्र श्रीनगर आ पहुंचे प्रकाश करात ने दल के कार्यकर्ताओं , समर्थकों और अन्यान्य लोगों के साथ बातचीत की हमें दो दिन रुकना पड़ा रहने की जगह थी सर्किट हाउस
सहिष्णुता की परंपरा का मनोहर बगीचा
मेरे कमरे के बरामदे में खड़े होकर या खिडकी की ओर मुंह करते ही आँखों के सामने आभाषित होता है दूर दिखती पर्वत श्रृंखला और सेतु से घिरे शहर का मेघाच्छन नज़ारा बहुत बार कश्मीर आया हूँ कभी दल या सरकारी कार्य से , कभी व्यक्तिगत यात्रा में हर बार मन में आया – इस पहाड़ी क्षेत्र एवं उपमहादेश के अत्यंत प्राचीन शहर के रूप में प्रतिष्ठित श्रीनगर की खूबसूरत रहस्यमयता मानो अनंत है इसका प्रारंभ और अंत कहाँ है- कौन जानता है ? चारों तरफ सदा बहार सौंदर्य का विशाल फैलाव कहीं पहाड़ों के धसने से डल झील की हृदयस्थली के साथ अद्भुत साम्जस्यता बनाये हुए उत्तर की तरफ रास्ता निकलता है कहीं चढने उतरने के रस्ते और जिस इलाके में एक समय मीर वाइज मौलवी फारूक रहते थे- अभी उसी घर में हुर्रियत नेता उमर अब्दुल्लाह का घर और कार्यालय है इस अंचल को निःशब्द छूता है डल झील का पानी, छोटे बड़े पेड़ और शांत वातावरण वहीँ है मुसलमानों का पुण्य तीर्थ हज़रत बल दरगाह डल गेट घनी आबादी और जगह-जगह होटलों से भरा है युगों से परंपरा रही है कि देशी विदेशी पर्यटक यहाँ ठहरकर ही घूमने की तैयारी करते हैं डल गेट से दक्षिण, पश्चिम या पूर्व की तरफ बढते ही इतिहास के असंख्य आश्चर्य दीखते हैं यही तो कुह-ए-सुलेईमान पहाड़ पर खड़े हैं अर्थात यह सुलेईमान या शंकराचार्य मंदिर है आँखों के सामने मानो आ रहा है कोह-ए-मारन यानि हरि पर्वत, फिर महल, राजा प्रभारसेन द्वारा निर्मित एवं सम्राट अशोक के निर्देश पर पुनःनिर्मित प्राचीन कश्मीर की राजधानी पन्दरथन के ध्वंशावशेष और उस तरफ गौतम बुद्ध की पवित्र स्मृति संजोये पीर महल , एक मील दूर सौंदर्य प्रेमी बादशाह शाहजहाँ द्वारा निर्मित चश्मे-शाही , सम्राट जहाँगीर की प्रिय पत्नी नूरजहाँ के सगे भाई आसफ खान द्वारा निर्मित विशाल निशात बाग एवं अकबर के पुत्र की स्मृति संजोये शालीमार बाग पूरा पहाड़ी क्षेत्र ही मानो विविध जन समुदायों, धार्मिक संस्कृति की स्थापत्यता एवं ख़ूबसूरत प्राकृति के आशीर्वाद से सजा सहिष्णुता की परंपरा का विशाल मनोहर बगीचा है कुदरत के इस बाग में बर्फ के निचे एवं ऊपर आग किसने लगायी ? किसने बारबार उकसाकर शांतिप्रिय सहनशील कश्मीरियों के हाथों में बन्दूक और पत्थर दिए ? किनकी उदासीनता और भेद-भाव का शिकार होकर कम आयु के तरुण भयभीत होकर आज रास्तों पर निकल पड़े ? – इन सब प्रश्नों के जबाब विवेकपूर्ण नीति से ढूँढने की जरूरत है समस्या का अविलम्ब समाधान नहीं हुआ तो कश्मीर कश्मीरियत के बाहर चला जायेगा लाशों के ढेर पर खड़े होकर महान कश्मीरी सभ्यता की, कश्मीरियत की नाक ऊँची नहीं रह पाएगी प्रकृति मनुष्य के कंधो पर एक एक समय में दायित्व रखती है, सत्य की राह तलाश करने के निर्देश के साथ समाज और राष्ट्र अपना दायित्व भूलकर चलने की चेष्टा करें तो क्रमशः बढती उत्तेजना मूर्त रूप धारण कर पूजा का दावा करती है मनुष्य कुछ समय तक रक्त देकर उसकी उपासना भी करता रहता है लेकिन जब पूरा शरीर रक्तहीन हो जाये तब ही भयंकर सामाजिक बिमारियाँ फूटती है कश्मीर को इस व्याधि से मुक्त रखने का दायित्व सिर्फ कश्मीर का नहीं है, हम सब का है
उचित रास्ता , उचित विचार का रास्ता
चलते-चलते विभिन्न स्तर के लोगो से बातचीत करते करते दो दिन बीत गये देखने लायक इतिहास प्रसिद्ध जगहों को घूमकर देखना एवं और अनेक लोगो से बातचीत नहीं हुई फिर आयेंगे, यही सोचकर खुद को आश्वस्त किया पहले भी आया , इस बार भी मन में आया – 1. कश्मीरी स्वभाव से विनम्र है, सभ्य है उनके हाथों में बन्दूक शोभा नहीं देती मुनि-ज्ञानी और सूफियों का भूखंड , जिनका जनजीवन पर गहरा प्रभाव है फिर भी गत शताब्दी के 90 के दशक की शुरुआत में पहले जे.के.एल.एफ., बाद में धार्मिक जन्गजुओं ने भारतवर्ष के विरुद्ध हथियार उठा लिए 2. साधारण लोगों ने जन्गजुओं और जेहादियों के आतंक को नहीं माना प्रतिवाद और प्रतिरोध में अनेक लोग शहीद हुए जन समर्थन के अभाव में जन्गजुओं की संख्या 70 हज़ार से 7 हज़ार रह गई 3. हमारे सुरक्षा कर्मी आतंक का दमन करते हुए जैसे मारे गएँ हैं, वैसे ही जन्गजुओं के विरुद्ध समय-समय पर तलाशी अभियान में साधारण लोग भी इस राष्ट्रीय आतंक की बलि चढ़े हैं लोकतंत्र में यह उचित नहीं 4. एक दशक के आतंक पूर्ण माहोल में साधारण लोगों का दम घुट गया चुनावों में बी.जे.पी के सत्ताच्युत होने पर कश्मीरियों ने सोचा था , सत्ता में यू.पी.ए. सरकार आई है, वह समस्या का उचित समाधान ढूंढेगी गुलाम नबी आज़ाद के मुख्यमंत्री बनने पर जन्गजुओं के उपद्रव में थोड़ी कमी भी आई बहुतेरों ने हथियार छोड़कर सामान्य जीवन अपना लिया 5. नवयुवकों ने नौजवान मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्लाह को तारणहार समझा था उसको ‘आइकन’ बनाने का प्रयास दिल्ली, इस्लामाबाद और वांशिगटन ने किया किन्तु उमर नौजवानों की आशा पूरी करने विफल रहे, यह सामाजिक जन असंतोष की शुरुआत से ही प्रमाणित हो गया 90 के दशक के अंत में जिनका जन्म हुआ उनका बचपन अशांत परिवेश में गुजरा, दहशतगर्दी और राष्ट्रीय आतंक देखते-देखते जो बड़े हुए - उन्होंने देखा की उमर उसी सिक्के का एक और पहलु मात्र है अनीति, गरीबी बढ़ रही है, विकास थम गया है, थोपे गये असंतोष का जबाब खोजने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है कश्मीरियत को मिलने लायक मर्यादा ही अस्वीकृत है केन्द्र-राज्य दोनों पक्ष ही इस मामले में उदासीन है अतएव घुटता हुआ असंतोष विक्षोभ के रूप में सड़कों पर उतर आया जिन सब कम उम्र के तरुणों ने पिछले विधान सभा चुनाव में उमर अब्दुल्लाह को समर्थन दिया , वही सब अलीशाह जिलानी के नेतृत्व को स्वीकार कर आंदोलन में कूद पड़े 6. नीति बदल गई हाथों में बन्दूक नहीं, पत्थर और जन-विद्रोह उनके अस्त्र बने और पत्थरों के बदले ईंटो के टुकड़े नहीं , गोलियाँ छोड़नी शुरू की हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा वाहिनी ने दो महीनो में 63 तरुण मारे गये, 100 दिनों में 104 तब भी बन्दूक और जन्गजुओं को पहाड़ियों ने बढ़ावा नहीं दिया यह अच्छा लक्षण है 7. उमर अब्दुल्लाह ने भयंकर भूल की , उन्होंने अतिरिक्त केंद्रीय वाहिनी की मांग की जन असंतोष को अस्त्रों का भय दिखाकर नहीं तोड़ा जा सकता- यह वास्तविकता वे भूल गये उन्ही के दादा एवं काश्मिरियत के प्रधान प्रवक्ता कश्मीर-केसरी शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह के निःशस्त्र आंदोलन का इतिहास भी उनको याद नहीं रहा शेख अब्दुल्लाह को किसानो की तरफ से डोगरा राजा के खिलाफ अपने जीवन की आधी शती लड़ाई में लगानी पड़ी अस्त्र को उन्होंने महत्व नहीं दिया उनकी साथी आम जनता थी और सपना था अखंड ,स्वशाषित कश्मीर का- जहाँ कश्मीर की परंपरागत विरासत , सहनशीलता सर्वोपरि रहेगी, उन्माद को बढ़ावा नहीं मिलेगा, राष्ट्र लोगों पर लाठियां नहीं बरसायेगा
व्यक्तिगत प्रार्थना
मेरे मन में आया, शेख अब्दुल्लाह के सपने का साकार होना ही कश्मीर समस्या के समाधान का बेहतर रास्ता है कश्मीरियों को उनका अधिकार देना ही होगा सेना उतारकर , कदम कदम पर अर्ध सैनिकों के पहरे बैठा कर दबे हुए अथवा प्रदर्शित जन विक्षोभ को सम्भाला नहीं जा सकेगा इससे अविश्वास बढ़ेगा, अलगावबोध की जगह स्थायी अलगाव बोध ले लेगा केन्द्र स्वायतशाषन की बात कर रहा है, इसका आश्वाशन या आश्वाशन का प्रयोग इस समय संभवतः समस्या का सही समाधान नहीं है एकमात्र सुविचारित बातचीत और कश्मीरी भावावेग की स्वीकृति ही अशांत कश्मीर में शांति और सहिष्णुता वापस ला पायेगी दूसरी तरफ कश्मीर के सन्दर्भ में इस्लामाबाद या वांशिगटन की दादागिरी का रास्ता हमेशा के लिए बन्द कर देना होगा ; हमारी भूलें , हमारे संशय , हमारी उदासीनता से अमेरिका या पाकिस्तान को अपनी छोटी-बड़ी नाक पहाड़ी क्षेत्र में घुसाने का मौका ना मिले जिन्होंने चुनाव में समर्थन पाकर जन प्रतिनिधित्व करने का सुयोग पाया है, वे सभी इस मंगलभावना में शामिल हों- यही व्यक्तिगत प्रार्थना है
लेखक लोकसभा के भू.पू, सांसद और सी.पी.आई.एम की केंद्रीय कमिटी के सदस्य हैं
No comments:
Post a Comment