प्रेस क्लब, कोलकाता ,19 अप्रेल 2010
अभिनन्दन कार्यक्रम की घोषणा के लिए आयोजित प्रेस कांफेरेंस
श्री चम्पालाल मोहता ‘अनोखा’- एक परिचय
राजस्थान की सांस्कृतिक राजधानी बीकानेर में सन 1934-35 में श्री चंपा लाल मोहता स्व. मानक लाल मोहता एवं श्रीमती इमारती देवी मोहता के पुत्र रूप में जन्में
जन्म के ठीक 19 दिन पहले पिता का स्वर्गवास हो गया इसलिए लोगो ने इन्हें अप -शुगनी समझा 9 वर्ष के होते होते ममतामई माँ भी चल बसी बड़े भाई मोहनलाल एवं भाभी रतनी देवी ने माता पिता की भूमिका निभाई प्राथमिक शिक्षा बीकानेर में ही हुई द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पहली बार कोलकाता आये समय रहा होगा सन 40-42 का भगदड़ के चलते वापिस बीकानेर लौट गए इसी दौरान माँ की मृत्यु हुई सन 45-46 में वापिस कोलकाता आये और तब से यहीं के होकर रह गए सन 46 में श्री महेश्वरी विद्यालय में प्रवेश लिया भाई साहब जितना कमाते थे उसमें स्कूल की फ़ीस देना संभव नहीं था चम्पालाल जी पढ़ना चाहते थे विद्यालय व्यवस्थापकों से फ़ीस माफ करवा कर , किसी भी तरह दसवीं कक्षा तक पढाई की किताबों-कापियों के खर्च की मारामारी अपनी जगह थी
विद्यार्थी जीवन में ही उनकी रचनाएँ महेश्वरी विद्यालय की पत्रिका ‘भारती’ में प्रकाशित होने लगी विद्यालय के उप प्रधानाध्यापक श्री वी.एन.टी. ने चम्पालाल जी की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें ‘अनोखा’ कहा तो उसे ही उन्होंने अपने उपनाम के रूप में अपना लिया पुस्तकालयों में पढाई कर ज्ञानार्जन करते हुए कवि सम्मेलनों , मुशायरों में जा-गा कर उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा को निखारा
सन 52-54 के मध्य कवि सम्मेलनों – मुशायरों में शिरकत करते हुए , एक उभरते हुए सितारे के रूप में स्थापित हुआ युवा शायर चम्पालाल मोहता ‘अनोखा’ हिन्दुस्तान के तमाम बड़े और मशहूर कवियों , शायरों के साथ ‘अनोखा’ ने अपने अनोखे रंग-ढंग में काव्य –पाठ किया है, उनसे अपनी पीठ ठुकावाई है उस समय कोलकाता और आस-पास के अंचलों में प्राय: सभी कवि सम्मेलनों में उनकी उपस्थिति दर्ज होती मूनलाईट थियेटर के लिए भी ‘अनोखा’ गीत लिखते रहे कोलकाता बाल परिषद के प्रकाशन नई-किरण ,खिलते कमल में रचनाएँ प्रकाशित हुई
अनिरुद्ध कर्मशील के संपादन में , साप्ताहिक विश्वमित्र में सर्वप्रथम रचंयें प्रकाशित हुई लगातार सिलसिला चला देश भर में कई पत्र पत्रिकाओं ने ‘अनोखा’ को प्रकाशीत किया सन 1955 में पुरूलिया निवासी ‘कशी’ से विवाह के बाद , नौकरी के सिलसिले में वे राऊरकेला चले गए 18 मार्च सन 1957 को एक ह्रदय विदारक अगलगी की घटना ने जीवन साथी छीन लिया उस घटना में ‘अनोखा’ भी इतने गंभीर रूपप से जख्मी हुए की छः महीने अस्पताल में रहे
उनके भाई साहब को अब यह चिंता सताने लगी कि कहीं यह लड़का भटक न जाए रोजी रोटी के जुगाड में कोलकाता आये साहसी युवक कविताई के चक्कर में भूखों न मरे इसलिए एक उपन्यास , ‘मधुशाला’ के प्रत्युत्तर में 125 छंदों में रचित ‘रणशाला’ सहित ढेरों गीत-गज़लों की पांडुलिपियाँ तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं का रजिस्टर भाई साहब ने चार-आने किलो के भाव कबाड़ी को दे दिया अस्पताल से लौटे ‘अनोखा’ पर यह भीषण वज्रपात साबित हुआ वह विद्रोही हो गया
जैसे-तैसे जीवन यापन करते हुए उन्होंने अन्तर्जातीय-अंतरवर्णीय विवाह कर घर संसार बसा लिया तीन बेटों के साथ जीवन की गाड़ी आगे बढती रही शायर-कवि-गीतकार बनने के सपने ने तो दम तोड़ दिया, लेकिन कविताई ने इनका साथ नहीं छोड़ा लोकपर्व गणगौर हो या कोई सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजन-लोग इनसे निवेदनपूर्वक गीतों-ग़ज़लों की फरमाइश करते ये भी लिख कर उन्हें दे देते अपने पास नहीं रखते थे
भला हो चाचीजी(पुतली देवी) का जिन्होंने कागजों के वे टुकड़े रद्दी में से संभाल कर रख लिए, जिनमे कई उम्दा रचनाएँ हुई थी इसी क्रम में बहुत से गायक-गायिकाओं ने इनसे जो रचनाएँ लिखवाई, उनके यथा संभव संकलन का बीड़ा उठाया गया और वे अब एक संग्रह के रूप में प्रकाशित होने को हैं
दुर्दांत जिजीविषा के धनी, बीकानेरी मिजाज के मस्तमौला , प्रगतिशील विचारक , चितन से साम्यवादी , सिंहों से साहसी ‘अनोखा’ आज कल कंठनली के कैंसर से संघर्ष कर रहें हैं एक वर्ष पहले यह कहने वाले कि ‘अब ज्यादा समय नहीं है’, आज यह कह रहें हैं कि ‘इतनी जल्दी जानेवाला नहीं हूँ क्योंकि शोकसभा तो मेरे मित्रों ने 1957 में ही कर दी थी’
केशव भट्टड़ , कार्यक्रम संयोजक
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