Sunday, October 10, 2010


धारा के विरुद्ध रमण माहेश्वरी
केशव भट्टड़

अपने जीवन के 84 वें वसंत की दहलीज पर खड़े रमण माहेश्वरी के बारे में कुछ भी कहना या लिखना सूरज को दीपक दिखाना है सिद्धांतों की प्रतिबद्धता के साथ सतत संस्कृति कर्मी का दायित्व निभाने वाले रमण माहेश्वरी अपने राजनीतिक दल के अनुशाषित सिपाही रहें है, और आज भी हैं वे एक सच्चे मित्र, अभिभावक, नेता होने के साथ साथ नाट्य संस्कृति को समर्पित एक गंभीर व्यक्तित्व है उनके द्वारा बांग्ला में प्रकाशित ग्रुप थियेटर नाट्य पत्रिका पश्चिम बंगाल के सांस्कृतिक परिवेश को समृद्ध करने वाला हस्तक्षेप है स्वर्गीय नीलकंठ सेनगुप्त के शब्दों में “आज ग्रुप थियेटर पत्रिका ने बांग्ला नाट्य चर्चा के क्षेत्र में प्रायः प्रतिनिधित्व करने का जो स्थान हासिल किया है, उसके पिछे रमण माहेश्वरी एक विशाल वटवृक्ष के रूप में खड़े हैं” (धारा के विरुद्ध, पृष्ठ 113) राजस्थानी मूल के रमण माहेश्वरी को बांग्ला भाषा और सांस्कृतिक संस्कार हावड़ा जिले के बंगाली संस्कृति में रचे-बसे राजगंज स्थित अपने ननिहाल से मिले गुरु (मारजा) पाठशाला में प्रारम्भिक शिक्षा के बाद माहेश्वरी विद्यालय में स्कूली शिक्षा नाम मात्र की ही हुई जनकवि हरीश भादानी के शब्दों में – “मेरे मित्र रमण माहेश्वरी ने औपचारिक शिक्षा की ब मुश्किल दो-तीन सीढियाँ ही चढ़कर कार्यक्षेत्र की सड़क अपना ली व्यापार की गद्दी में भी पढना, मित्रों में बैठकर सुनना समझनाइस क्रम में रमण माहेश्वरी को अपनी विचारधारा और राजनीतिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी ने शिक्षित अवश्य कर दिया (वही,पृष्ठ 67) ” 14 वर्ष की आयु में सन 1941 में विवाह बंधन में बांधे गये रमण माहेश्वरी कोलकाता के बड़ाबाजार में व्यवसाय (गद्दी) व घर की जिम्मेदारियों को निभाने के बाद बचे समय में साहित्यिक-राजनीतिक चर्चा के उद्धेश्य से पोस्ता के नजदीक फ्रेंड्स यूनियन क्लब से जुड़े वहाँ इनके प्रमुख साथी थे कवि शंकर माहेश्वरी, जमुना लाल दमानी और एस. नारायण दमानी इन सभी को हिंदी साहित्य की और ले जाने वाले व्यक्ति थे कलकत्ता के सुरेन्द्रनाथ कालेज के हिंदी विद्वान प्रो. जमुना शंकर चौबे हिंदी में राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, प्रेमचंद, रागेयराघव, धर्मवीर भारती, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी, उपेन्द्रनाथ अश्क को पढ़ने वाले रमण माहेश्वरी को बांग्ला में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय और रवींद्रनाथ टैगोर ने न सिर्फ प्रभावित किया बल्कि प्रशिक्षित भी किया जैसा की रमण माहेश्वरी के बेटे और आलोचक-लेखक अरुण माहेश्वरी कहतें हैं - “हम जिस परिवार से आते हैं, जिसके मुखिया बाबु (रमण माहेश्वरी) रहें है, उसकी अपनी एक अलग ही सरंचना है यह कम अनोखी बात नहीं है कि पूरे पश्चिम बंगाल में अकेला यही एक मारवाड़ी व्यावसायिक परिवार है,जिसने यहाँ की वामपंथी राजनीति और संस्कृति से अपने को नैसर्गिक रूप से जोड़ने का प्रयास किया है बाबु ने लगभग एक जिद की हद तक साहित्य और बौद्धिकता के संस्कारों को अपनाने की कोशिश की जो व्यवसाय और बनियागिरी के संस्कारों से एक संपूर्ण विद्रोह कि कोशिश कही जा सकती है व्यवसाय नहीं छोड़ेंगे लेकिन व्यवसाय के संस्कार छोड़ेंगे जीवन में व्यवसाय सिर्फ जीविका-यापन तक ही सिमित रहेगा, बाकि का समुचा खाली समय राजनीति, साहित्य और संस्कृति की प्रगतिशील परंपरा से जुड़े लोगों के साथ ही बीतेगा कोई भी ऐसे एक मुखिया के परिवार में मिलने वाले संस्कारों और विश्वासों का सहज ही अंदाज़ लगा सकता है यह प्रचलित मूल्यों और संस्कारों के संपूर्ण निषेध का संस्कार था (जैसा की पाब्लो नेरुदा कहते हैं- “मैं अपनी जड़ों से टूटकर अलग हुआ / मेरा देश अपने आकार में बड़ा हुआ”) वे आज भी जिस निष्ठा और लगन के साथ ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्रकाशन में लगे हुए हें , वह सचमुच गौर करने लायक है (वही, पृष्ठ 60)” 2005 में शिउडी के रवीन्द्र सदन में ‘थियेटर अभियान” के अंतर्गत रमण माहेश्वरी का अभिनन्दन करने वाले रंगकर्मी सुविनय दास लिखते हैं – “आज हम अपने को गर्वित महसूस कर रहें हैं उन्होंने हमारे निमंत्रण को स्वीकारा तथा शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद कोलकाता से शिउडी आये उस दिन के उनके व्यक्तव्य ने उपस्थित नाट्य प्रेमियों तथा नाट्य कर्मियों को पूरी तरह अनुप्रेरित किया वे एक स्पष्ट वक्ता तथा अनुशासन प्रिय व्यक्ति हैं बहुत दिनों से कई दृष्टिकोण से उनको देखते रहने पर मुझे लगा कि रमण माहेश्वरी एक ईमानदार,समझदार मेहनती व्यक्ति हैं वे सिर्फ एक व्यापारी ही नहीं है, बांग्ला नाटकों के प्रचार प्रसार तथा नाट्य आंदोलन के एक कुशल सैनिक भी हैं” (वही,पृष्ठ 115) बीकानेर शहर के ‘साले की होली’ मोहल्ला में पिता छगनलाल धनानी का पुस्तैनी मकान आज भी , खँडहर रूप में ही सही, यादों को संजोये हुए खड़ा है “मैंने अपने आप को बंगाल का वासी माना, प्रवासी नहीं आप कहीं भी रहो, स्थानीय भाषा से आपका जुड़ना जरूरी है बांग्ला भाषा से जुडाव होने पर यहाँ के साहित्य और संस्कृति से भी सही परिचय हुआ नाटक एक संपूर्ण कला है और संस्कृति का दर्पण भी नाटक देखने और पढ़ने की आदत का हिंदी में प्रचलन नहीं के बराबर था कलकत्ता में श्यामा नन्द जालान नाटक करते थे लेकिन उन दिनों कुल मिलाकर हिंदी नाटक किसी गिनती में नहीं आते थे इसलिए हमने बांग्ला में ग्रुप थियेटर पत्रिका निकलीहिंदी नाटकों में स्थिरता नहीं है जो कर लो वही सही हिंदी में नये लोगों में इधर उमा झुनझुनवाला-अजहर आलम गंभीर और अच्छा काम कर रहें हैं”रमण माहेश्वरी कहते हैं ऋत्विक घटक को श्रेष्ठतम फिल्म निर्देशक मानने वाले रमण माहेश्वरी ने ‘बोगुलार बंगदर्शन’ फिल्म के लिए उन्हें पूना से बुलाकर आर्थिक सहयोग दिया वे राजनीतिज्ञों में नेहरु को दूरदर्शी नेता मानते हैं वे कहते हैं कि नेहरु ने जो बनाया बाद वाले उसे बेचने में लगे हुए हैं ज्योति बसु के साथ अपनापन के रिश्ते पर वह कहते हैं - “हमारे बीच निष्पक्ष उचित-अनुचित की चर्चा होती रहती थी मेरा मानना रहा की आदर्शविहीन जीवन विवेक-शून्यता के अलावा कुछ नहीं होता है किसी भी प्रकार के अंधानुकरण से मैं आजीवन बचा रहा” श्री हर्ष लिखतें हैं कि “रमण जी के व्यक्तित्व का मानवीय पक्ष उनके राजनितिक हठ से टकराता हुआ चलता है वे सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं करते लेकिन अपने मानवीय व्यवहार को कमज़ोर भी नहीं होने देते अपने सिद्धांतों पर अटल हैं रमण जी (वही,पृष्ठ 72) ” जैसा की रमण माहेश्वरी की बेटी और उनके व्यक्तित्व पर आधारित धारा के विरुद्ध की संपादक दुर्गा डागा लिखती हैं – “ पिता के समय समय पर उठाये गये क्रन्तिकारी कदमों के साथ बाई (माँ) ने इस तरह तालमेल बैठा लिया था कि जीवन सहजता से चलता रहा बाबु पूरी तरह से कट्टर नास्तिक और घर या बाहर किसी भी तरह की पूजा आदि से दूर-दूर का कोई लेन-देन नहीं लेकिन जीवन के प्रति घोर आस्था के चलते कभी उनका रुख नकारात्मक नहीं रहा उनकी नास्तिकता जंगखाए अंधविश्वासों के प्रति एक जंग के रूप में सामने आई (वही,पृष्ठ 8) ” धार्मिक आडम्बरों से दूर रहने वाले, पर्दा प्रथा का विरोध करने वाले ,स्त्री शिक्षा और मानव मात्र के सर्वांगीण उत्थान के मुखर पक्षधर रमण माहेश्वरी ने व्यवसाय में धर्मादे की प्रथा को बन्द किया अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता, प्रगतिशील वस्तुवादी दृष्टिकोण तथा वामपंथी नैतिकता के चलते जीवन में कई साहसी कदम उठाने वाले और रुढियों के विरुद्ध क्रन्तिकारी फैसले लेने वाले रमण माहेश्वरी ने अंतिम संकल्प के रूप में अपनी देह दान करने का निश्चय किया है ”वैसे तो मेरी उम्र 80 को पार कर गई है बिमारियों से जर्जर शरीर अंग चिकित्सकों के शोध कार्य में कितना काम आ सकेगा, यह कहना मेरे लिए कठिन है पर धार्मिक कुसंस्कारों और कर्मकांडो के खिलाफ मेरा यह फैसला मेरी लड़ाई का अंतिम चरण होगा जिसे मैं जीतने को प्रतिबद्ध हूँ अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक संस्कारों के खिलाफ यह मेरी आखिरी मुहीम होगी” (वही,पृष्ठ 36) विचारों पर दृढ़ रहना और तदानुसार अपने जीवन और परिवार को ढालना और उन्ही में रमजाना रमण माहेश्वरी को निसंदेह औरों से अलग व्यक्तित्व प्रदान करता है आनेवाले युग को यह मशाल अपने विचारों से आलोकित करती रहे, यही कामना है

एक अनोखा संग्रहालय नाटकों का: ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका

नाटक एक संपूर्ण कला है इसमें कथा-काल के अनुसार अभिनय,गीत,संगीत,पौशाक, साज-सज्जा-सजावट, आभूषण, वार्तालाप इत्यादि कई घटकों का जीवंत सम्मिश्रण रहता है नाटक अपने आप में कला और संस्कृति का साक्षात्कार है यह सर्वविदित है कि पश्चिम बंगाल राज्य के सांस्कृतिक परिवेश में नाटकों का स्थान महत्वपूर्ण है इतनी संख्या में विभिन्न जगहों पर मंचित होने वाले नाटकों का संकलन और प्रकाशन करने के लिए तीन महीनों के अंतराल से प्रकाशित होने वाली ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका लेकर रमण माहेश्वरी सामने आये पश्चिम बंगाल के नाट्य-सांस्कृति के माहौल में प्रकाशन की यह एक नयी और बड़ी घटना थी, संभवतः पहली भी, जिसके नेपथ्य में एक राजस्थानी मूल का व्यक्ति खड़ा था आलोचक विमल वर्मा लिखतें हैं-“शोषक,-दमनात्मक-भेदभावपूर्ण मूल्यों, व्यवहारों, रीतिरिवाजों ,अंधविश्वासों के विरुद्ध और वैज्ञानिक ज्ञान के लिए संघर्ष की अनिवार्यताओं ने रमण जी को नाटक की पत्रिका ‘ग्रुप थियेटर’ के प्रकाशन के लिए उत्प्रेरित किया ”(धारा के विरुद्ध, पृष्ठ 80) 14 अगस्त 1978 को पहले अंक का अनौपचारिक विमोचन रमण माहेश्वरी और बांग्ला नाट्य अकादमी की पत्रिका के यशश्वी संपादक तथा नाट्य जगत के ख्यातिलब्ध आलोचक नृपेन साहा ने अत्यंत सादगी पूर्ण तरीके से विशिष्ट मेहमानों और विद्वानों की उपस्थिति में थियेटर कम्यून के ‘दानसागर’ नाटक के अवसर पर किया नयी पत्रिका के प्रचार-प्रसार के लिए इसके पोस्टर दीवारों पर स्वयं रमण माहेश्वरी और उनके साथियों नृपेन साहा और निखिल रंजन दास ने लगाये अरुण मुख़र्जी लिखते हैं-“ समय-समय पर ग्रुप थियेटर पत्रिका के संपादक भले ही बदले हैं, लेकिन पत्रिका के मुख्या कर्ता-धर्ता हमेशा रमण माहेश्वरी ही रहे” (वही,पृष्ठ 121) कालांतर में ग्रुप थियेटर पत्रिका से मची हलचल नें बंगाल के पूरे नाट्य क्षेत्र में एक आंदोलन का माहौल तैयार किया पत्रिका ने बड़े सुनियोजित तरीके से बंगाल के जिले-जिले में बिखरे नाट्य समूहों और उनके कार्यों को कलकत्ता के पाठकों तथा दर्शकों से जोड़ा छोटे-छोटे शहरों के नाट्य कर्मियों का परिचय महानगर के लोगों से हुआ और महानगर के नाट्य कर्मियों को दूर-दराज़ जिले-कस्बों में कर्मरत रंग कर्मियों और नाट्य प्रेमियों के करीब आने का मौका मिला पिछले 30 सालों में ग्रुप थियेटर में 538 एकांकी और 122 पूर्णांग नाटक छपे हैं पूरे बंगाल में फैले पाठक समाज के लिए लगातार 32 सालों से प्रकाशित हो रही ग्रुप थियेटर पत्रिका अपने आप में बंगाल के नाटकों का पुस्तकाकार ही सही ,एक विश्वनीय संग्रहालय है भविष्य में बंगाल के नाटकों पर शोध करने वालों के लिए ग्रुप थियेटर पत्रिका एक आवश्यक उपकरण साबित होगी निखिल रंजन दास लिखते हैं – “ कभी-कभी तो लगता है ग्रुप थियेटर भी रमण जी की एक और संतान है इस पत्रिका को प्रगतिशील संस्कृति की दुनिया में महत्वपूर्ण भूमिका का पालन करने में एक सशक्त माध्यम के रूप में बचाए रखना , इस काम को और अधिक प्रसारित करना ही रमण जी का मूल लक्ष्य है” (वही,पृष्ठ 136) इंद्रनाथ बंदोपाध्याय लिखतें हैं कि “ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्रसार के पीछे उनके (रमण जी) अदम्य साहस, चिंता,सक्रिय उद्योग के साथ ही उनका गंभीर जीवन बोध,वस्तुवादी जीवन दर्शन तथा नाटकों के प्रति उनका लगाव ही रहा है....विज्ञान का नियम है कि एक न एक दिन , आगे या पीछे इस धरती को छोड़ हमें जाना ही है किन्तु बंग्ला नाट्य आंदोलन तथा नाट्य पत्रिकाओं में ग्रुप थियेटर और रमण जी का नाम आज जैसे पहली पंक्ति में है भविष्य में उसी तरह रहेगा क्योंकि जिस तरह कटहल के रेशे के चेप से छूटा नहीं जा सकता उसी तरह बांग्ला नाटकों की दुनिया से रमण जी का नाम अलग नहीं किया जा सकता ”(वही, पृष्ठ 89,91) शिशिर चौधरी लिखतें है-“ ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्राण पुरुष ! आपको रक्तिम अभिनन्दन बांग्ला नाट्य पत्रिकाओं का इतिहास आपके निश्वार्थ अवदान तथा प्रेरणा को सदा याद रखेगा”(वही,पृष्ठ 122)


एक अनोखा नाट्य संग्रहालय : ग्रुप थियेटर पत्रिका

नाटक एक संपूर्ण कला है इसमें कथा-काल के अनुसार अभिनय,गीत,संगीत,पौशाक, साज-सज्जा-सजावट, आभूषण, वार्तालाप इत्यादि कई घटकों का जिवंत सम्मिश्रण रहता है नाटक अपने आप में कला और संस्कृति का साक्षात्कार है यह सर्वविदित है कि पश्चिम बंगाल के सांस्कृतिक परिवेश में नाटकों का स्थान महत्वपूर्ण है इतनी संख्या में विभिन्न जगहों पर मंचित होने वाले नाटकों का संकलन और प्रकाशन करने के लिए तीन महीनों के अंतराल से प्रकाशित होने वाली ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका लेकर रमण माहेश्वरी (देखें बॉक्स ) सामने आये पश्चिम बंगाल के नाट्य-सांस्कृति के माहौल में प्रकाशन की यह एक नयी और बड़ी घटना थी, संभवतः पहली भी, जिसके नेपथ्य में एक राजस्थानी मूल का व्यक्ति खड़ा था आलोचक-लेखक विमल वर्मा लिखतें हैं-“शोषक,-दमनात्मक-भेदभावपूर्ण मूल्यों, व्यवहारों, रीतिरिवाजों ,अंधविश्वासों के विरुद्ध और वैज्ञानिक ज्ञान के लिए संघर्ष की अनिवार्यताओं ने रमण जी को नाटक की पत्रिका ‘ग्रुप थियेटर’ के प्रकाशन के लिए उत्प्रेरित किया” 14 अगस्त 1978 को पहले अंक का अनौपचारिक विमोचन रमण माहेश्वरी और नृपेन साहा ने अत्यंत सादगी पूर्ण तरीके से विशिष्ट मेहमानों और विद्वानों की उपस्थिति में थियेटर कम्यून के ‘दानसागर’ नाटक के अवसर पर किया नयी पत्रिका के प्रचार-प्रसार के लिए इसके पोस्टर दीवारों पर स्वयं रमण माहेश्वरी और उनके साथियों नृपेन साहा और निखिल रंजन दास ने लगाये कालांतर में ग्रुप थियेटर पत्रिका से मची हलचल नें बंगाल के पूरे नाट्य क्षेत्र में एक आंदोलन का माहौल तैयार किया पत्रिका ने बड़े सुनियोजित तरीके से बंगाल के जिले-जिले में बिखरे नाट्य समूहों और उनके कार्यों को कलकत्ता के पाठकों तथा दर्शकों से जोड़ा छोटे-छोटे शहरों के नाट्य कर्मियों का परिचय महानगर के लोगों से हुआ और महानगर के नाट्य कर्मियों को दूर-दराज़ जिले-कस्बों में कर्मरत नाट्य कर्मियों के करीब आने का मौका मिला पिछले 30 सालों में ग्रुप थियेटर में 538 एकांकी और 122 पूर्णांग नाटक छपे हैं पूरे बंगाल में फैले पाठक समाज के लिए लगातार 32 सालों से प्रकाशित हो रही ग्रुप थियेटर पत्रिका अपने आप में बंगाल के नाटकों का पुस्तकाकार ही सही ,एक विश्वनीय संग्रहालय है भविष्य में बंगाल के नाटकों पर शोध करने वालों के लिए ग्रुप थियेटर पत्रिका एक आवश्यक उपकरण साबित होगी इंद्रनाथ बंदोपाध्याय लिखतें हैं कि ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्रसार के पीछे उनके (रमण जी) अदम्य साहस, चिंता,सक्रिय उद्योग के साथ ही उनका गंभीर जीवन बोध,वस्तुवादी जीवन दर्शन तथा नाटकों के प्रति उनका लगाव ही रहा है शिशिर चौधरी लिखतें है-“ ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्राण पुरुष ! आपको रक्तिम अभिनन्दन बांग्ला नाट्य पत्रिकाओं का इतिहास आपके निश्वार्थ अवदान तथा प्रेरणा को सदा याद रखेगा”

(धारा के विरुद्ध, संपादक-दुर्गा डागा, ग्रुपथियेटर प्रकाशन,कोलकाता और श्री रमण माहेश्वरी से बातचीत पर आधारित)

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