Sunday, November 28, 2010

भाषा , साहित्य, और लोकतंत्र

'तराश कर कदीम पत्थरों को घर बनाया है', कभी कहीं पढ़ा था ऐसा क्यों होता है कि राजनीति जो चाहती है -जैसा चाहती है,वैसा ही सोचा जाता है अमूमन बगैर सोचे-समझे मान लिया जाता है 'साहित्य समाज का दर्पण है'-क्या सचमुच ? आज का साहित्यकार केवल अपने खेमे का दर्पण है बेईमानी और इमानदारी के बीच की 'स्मार्ट टॉक' एक हद तक साहित्य में स्थापित हो चुकी है हिंदी हो या प्रांतीय अहिन्दी , कहने को नेतृत्व इसका है, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि नेतृत्व की नाव इसके तट से कितनी दूर है 'यथा राजा,तथा प्रजा' वाली सोच के लोग लोकतंत्र को कितना समझते हैं ? व्यक्ति से विचार तक की यात्रा एक सरल रेखा नहीं है, लेकिन चलना तो शुरू हो सरकार की अपनी कुंठाए, अपनी मजबूरियां पूरे कार्य काल में दिखाई दे जाती है फिर भी चुनाव में कहने को नये वादे,नयी बातें हमारे राजनीतिबाज इस फन में माहिर हो चुके हैं और हम कान के कच्चे साहित्यकारों का बेडा पार लगाने वाली 'स्मार्ट टॉक' इनका भी बेडा पार लगाती है हम सब ने देखा है कि अपने लाभ के लिए कहीं वैचारिक मतभेद इनमे नहीं है (अपनी सेलेरी और पर्क्स बढ़ाने के लिए लेफ्ट को छोड़कर सब एक हो गये थे) दरअसल चुनावी मौसम में ही विचारधाराएँ उफनती नदियों का अवतार लेती है नहीं तो बदबू मारते नाले से ज्यादा इनकी औकात नहीं है ऐसे सड़े-गले माहौल में हमारी संस्कृति ही हमें बचा सकती है लेकिन इसका हाजमा भी दुरुस्त नहीं चश्मे कई हैं , लेकिन सही चीज फिर भी ओझल है हर जगह इतने परदे हैं की उनके पार कैसे झांके - सुराखों पर पाबंदियाँ है दरअसल स्वतंत्र साहित्यकारों का , विचारकों का ,पत्रकारों का,मध्यम वर्गीय प्रोफेसनल्स का , पढ़े-लिखे बेरोजगारों का, विश्वविद्यालयों के सक्रिय पढ़ाकुओं का ,कलाकारों का, विश्वसनीय नेताओं का एक निष्पक्ष वैचारिक साझा मंच तक पूरे देश में कहीं नहीं है बल कहाँ से आये शरीर खुजली से भरा है लेकिन ऊपर तो सूट पहना हुआ है और मुंह खोलने का साहस नहीं इलाज़ कैसे हो ? धीरे-धीरे खुजली में मज़ा आने लगता है कुल मिलाकर विश्वसनीयता कहीं नहीं है हमारा लोकतंत्र सर के बल खड़ा है-बाजीगरों का तमाशा; और हम तमाशो के शैदाई आज के राजनितिक मूल्य सामाजिक मूल्यों से भिन्न हैं प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति से आगे चलने वाली मशाल है -उनका कहा उनके साथ गया अब सारी चीजों की मशाल और मिसाल राजनीति से इतर कुछ भी नहीं जोड़-तोड़ से एक लाला जब किसी संस्था का सभापति बन जाता है तो दूकान की तरह वह संस्था को चलाता है, और चाहता है कि सभी उसके सामने नतमस्तक हों, आखिर वो सर्वोच्च है जागरूक जनता की चेतना राजतंत्र को रास नहीं आती वहाँ 'खरा' और 'खारा' दोनों ही हाशिये पर हैं राजतंत्र की भावनाओं और भंगिमाओं को उधार लेकर हमारा लोकतंत्र चल रहा है इसके अपने भाव-भंगिमाओं का, विचार का, संवाद का विकास होना बाकि है तब वो 'पोजिटिव पाथ' साकार होगा जिसके सपने हम देखते हैं
भाषा का रोल संवाद और तर्क से लेकर विचार बनाने तक, सब जगह मौजूद है अब देखिये हिंदी मनोरंजन (तनोरंजन पढ़ें) की भाषा बनकर रह गई है हिंदी वालों की सामूहिक समझ के औसत के हिसाब से सिनेमा, रेडियो, टी.वी. में हिंदी परोसी जाती है, क्योंकि बाज़ार का मामला है गंभीरता उसमे कम है प्लानिंग,प्रोसेस और अंतिम परिणिति को छोड़कर यहाँ सिर्फ हासिल नतीजें दिखाए जाते हैयह मान लिया गया है कि हिंदी वालें मानसिक पिछडेपन के वाहक हैअंतः ज्ञान-विज्ञान की चर्चा , बौद्धिक बहस के दायरे से बाहर हैं कुछ हटी लोग हैं जो फिर भी बाज़ नहीं आते और अपना मोहल्ला खड़ा कर लेतें हैं, वैचारिक चर्चा करते है और मोहल्ले की हलचल बढ़ाते हैं नीति निर्धारण करने वाला अमला अभी भी हिंदी को थर्ड क्लास से ज्यादा महत्व नहीं देता शाषन की भाषा बनकर फारसी पूरे देश में फैली आज वही सम्मान अंग्रेजी का है तो कुल मिलाकर हिंदी शोषितों -वंचितों की भाषा है शोषित हैं-दमित हैं-वंचित हैं क्योकि अनपढ़ हैं,गंवार हैं, बेजुबान है लेकिन मजबूरी है- बाजार में यही लोग अधिक है हिंदी की जो भी चमक दिखाई पड़ रही है वो बाजार की मजबूरी हे या हिन्दीवालों का दमखम - जानना बाकी है 'क्या करें,एक की कमाई से पूरा नहीं पड़ता'-अमर वाक्य के कारण महिलाएं काम-क़ाज़ी हो रहीं है या नारी मुक्ति आंदोलन के कारण- बताइए विरोधाभास से जनित विडंबनाएं हिंदी वालों की नियति मालूम होती है या इमानदारी का आभाव है राजनीति हमारे देश में नहीं होती, यहाँ जो होता है वो मत प्राप्त करने की नीति (मतनिती) से ज्यादा नहीं गाय को चारा मिलता रहें तो वो शांत रहती है खटालवाला चारा देता है या थपकी दूध तो उसने निकालना ही है अपन तो भोंथरी कलम चला सकते हैं या ताली बजा सकते हैं नख-दन्त हीन हिंदी वाले और किस लायक है ? लेखक मित्र प्रश्न उठाते हैं कि हिंदी की चर्चा में आलोचक, साहित्यकार या पत्रकार किस्म के लोग ही क्यों सुनाई देते है ? मध्यमवर्ग का इतना बड़ा दायरा है तो अन्य विद्याओं के लोग क्यों नहीं आते ? विदेशी साहित्यकार तो भूल से भी नहीं ऐसा क्यों ? भाई साहब , इस भाषा का विशाल मध्यम वर्ग चर्चा में आयेगा , हिंदी के केन्द्र में आयेगा तो उसके साथ उसका चिंतन उसकी समस्याएं भी आएँगी,जो नये साहित्यिक विषयों को जन्म देंगी और यह वैविध्यता से भरा विशाल वर्ग उनका समाधान भी मांगेगा तो एक - इससे 'सुराज !' 'डिस्टर्ब' होगा 'डिस्टर्बेंस प्रोग्रेस को एफ्फेक्ट करेगा' बताइए ,प्रोग्रेस के साथ कहीं समझौता होता है ? इसलिए हिंदी वालों को पूर्ण सम्मान का दिखावा करते हुए सिमित दायरे में रखना जरूरी है दो- हिंदी के तथाकथित महाविद्वान मध्यमवर्गीय विचारों के कितने नजदीक-कितने दूर हैं, पता चल जायेगा गांव की दिवार पर उपले सूखते देखकर कोई विद्वान सोच सकता है - 'दिवार पर गाय कैसे चढ़ी ? इसलिए उन लानतो को शाषन की प्रोत्साहन नीति के स्तर पर 'मैनेज' करना जरूरी है जिसकी मलामत बुद्धिजीवी करते रहें हैं विडम्बना देखिये कि राजनीति मनुष्य के लिए होनी चाहिये पर भारतीय राजनीति के केन्द्र से मनुष्य गायब है और बाजार इसका मुकुट है बाजार के लिए हिंदी भाषी (बड़ा बाजार) है ही कनस्तर-बोतल नहीं तो हिंदी के सहारे शेशे ही बेच लेंगे पढ़े लिखे मध्यम वर्ग का हिंदी-दर्प किसी कोने में पड़ा है, ढूँढिये घटनाओ की श्रृंखला से जुडकर कुछ शब्द मनोवैज्ञानिक रूप से खास 'पिक्टोरिअल प्रजेंटेसन' देने लगते हैंसाहित्यकारों की लेखनी उस शब्द चित्र में गहरे रंग भरे या उसका खरापन उभारे, ये उनकी भक्ति-शक्ति पर निर्भर हैअगंभीर से कुछ गंभीर उम्मीद रखेंगे तो तड़प बढ़ेगी संचार क्रांति ने वार्तालाप सुगम कर दिया हैउम्मीद साध रखिये कि वो सुबह कभी तो आएगी जब सदाशयता को भी पंख मिलेंगेकहानी सुनी है कि सागर-मंथन में शुरुआत में विष और आखिर में अमृत निकला बीते जमाने का पोपुलर फ़िल्मी गाना है-होनी को अनहोनी कर दे, अनहोनी को होनी/ एक जगह जब जमा हो तीनों; अमर-अकबर-अन्थोनी नहीं तो 'संस्कृत' की सदगति ही 'हिंदी और प्रांतीय भाषाओँ' की प्राप्ति होगी शर्म और झेंप 'खाने और सोने' वालों का विषय ही नहीं है लेकिन यदि आप जाग रहें हैं तो कबीर को याद कीजिये सहमतियाँ/असहमतियां अपनी जगह, बात-चीत अपनी जगह मकसद तो राह ढूढना है विदा
- केशव भट्टड़

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