जड़ों की ओर झाँकने का झरोखा
‘इस शहर के लोग’
(बीकानेर के लोगों को समर्पित मानिक बच्छावत की कविता पुस्तक)
केशव भट्टड़
कोई भी शहर मकानों, सड़कों , वास्तु, बगीचों आदि से नहीं , वहाँ के लोगों के मिजाज़, सोचने और काम करने के ढंग,उनके संस्कार और आपसी सोहार्द से जाना जाता है लोगों का चरित्र ही शहर का चरित्र होता है रोज़गार के भेद, जाती के भेद, धर्म और भाषा के भेद बीकानेर के लोगों में आपस में मतभेद के कारण नहीं बने;आज के युग में बीकानेर जैसे शहर का होना - सुकून का, विश्वास का, भाईचारे का – कूल मिलाकर आदमी के आदमियत से रिश्तें का जिंदा रहना है ‘इस शहर के लोग’ काव्य संग्रह के माध्यम से बीकानेरी संस्कृति का इन्द्रधनुषी रूप साहित्य में दर्ज हुआ है यूं ही ‘बीकानेर’ को आस पास के पूरे अंचल के लोग सिर्फ ‘शहर’ कहकर संबोधित नहीं करते
परंपरागत पेशे में श्रम जीवी की अपने श्रम में, अपने कार्य में एक निष्ठा होती है, एक दीवानापन होता है,एक जिम्मेदारी होती है “...एक दिन जब मैं वहाँ लस्सी पिने गया/ किसना जी ने/कहा आज आप लस्सी/ सामने की दुकान पर पी लें/ उसका दही खट्टा / हो गया है / वह आज लस्सी नहीं पिला सकता/..(किसना जी माली की लस्सी)” बाजारवाद का ऊद्धेश्य मुनाफा वहाँ प्रमुख नहीं होता “...इस शहर में अब भी / शराफत बची हुई है/ यहाँ अभी बाजारवाद नहीं आ पाया है/..”(वही) बाजारवाद नहीं देखता की ‘ हर पैर की अपनी एक खास बनावट होती है’ बाजार और उपभोक्ता के रिश्तें में अपनापन नहीं होता...”उस अपनापन की जगह/ अब लोग काम कराते/ आते और जाते..(छोगा जी नाई)” दूध,पानी रजाईयां, बर्तन , बोझ ढोने की मेहनत का कोई मज़हब नहीं होता मेहनतकशों का हुनर, शराफत, इंसान तो इंसान- जानवरों से प्रेम, शांतिप्रियता और धर्मनिरपेक्षता इस शहर की विशिष्टताएं हैं गायन, नृत्य, रम्मत हो या विवाह,जन्म,मृत्यु के लोकाचार – शहर के लोग एक दूसरे में पिरोये हुवे हैं खेल, कुश्ती, कबूतरबाजी हो या पतंगबाजी हो , रेशमा का दमादम मस्त कलंदर हो या हो अल्लाह जीलाई बाई का ‘ केसरिया बालम’ , इस शहर के लोग हरफनमौला हैं किसी भी शहर की पहचान चुनिन्दा लोगों से नहीं, वहाँ के आम लोगों से होती है जिनका प्रमुख चरित्र होता है अपनापन और संतुष्टि ‘इस शहर के लोग’ में आम आदमी खास स्थान रखता है यह सौधेश्य है ‘इस शहर के लोग’ में शहर के निवासी – सारे के सारे ‘आम’ मिलकर कुछ ‘खास’ देतें हैं यह खास एक ‘नस्टल्जिया’ है जो ‘जस्टिफाईड’ है किसी एक शहर के ‘नस्टल्जिया’ को सामने रखने वाली विरल काव्य रचना है ‘इस शहर के लोग’ जीवन में ये आम लोग कितने खास होतें है – और जरूरी भी, यह काव्य रचना पूरी इमानदारी और पारदर्शिता के साथ इस तथ्य को प्रस्तुत करती है जैसा परिवेश- वैसे लोग पीढ़ियों की साझा संस्कृति से उपजा एक ऐसा सामाजिक तानाबाना , जहाँ सभी का हक तसलीम होता है- ऐसा शहर है मेरा जन्म शहर बीकानेर और ऐसे हैं ‘इस शहर के लोग’ यहाँ का हर ‘आम’ कुछ खास है , लेकिन इस खासियत का असर कहीं भी नकारात्मक नहीं है सकारात्मक सोचवाले, पंथ निरपेक्ष , मेहनती और कारीगरी में अव्वल , मिठास से भरे हैं ‘इस शहर के लोग’ – बीकानेर के लोग यह काव्य रचना इंगित करती है कि जीवन में गति और ठहराव में सामजस्य होना चाहिये आधुनिक (?) जीवन शैली में जीवन में स्पेस का अभाव है ‘अब सब कुछ बहुत फास्ट है, फ़िल्मी है और सामयिक है गलें की मिठास और भीतर का दर्द अब कहीं नहीं है/..(अल्लाह जिलाई बाई)’ ‘बाई’ माने ‘माँ’ पुस्तक के परिचय में ठीक ही लिखा गया है-‘ इस शहर के लोग’ की कवितायेँ कवि मानिक बच्छावत की उन स्मृतियों से जुडी हैं जो इतिहास में दर्ज नहीं है, पर इंसानियत की कहानी कहती हैं ‘इस शहर के लोग’ काव्य संग्रह की 45 कविताओं में स्थानीय संस्कृति और शब्द अपनी ठसक के साथ मौजूद हैं हर चरित्र का अपना एक अनुभव है कहीं कहीं कवि की पृष्ठभूमि से सामायिक सामंती चित्रण आभासित होता है लेकिन वो पूरी मानवीयता के साथ है चरित्रों पर उसका प्रभाव नहीं है इन चरित्रों पर विशुद्ध भारतीय संस्कृति की स्पष्ट छाप है जो आंचलिक होते हुए भी सार्वभौमिक है सामाजिक मूल्य केन्द्र में हैं, बाजार के मूल्य हाशिए पर ‘इस शहर के लोग’ जीवन का राग सुनाते है रेतीली जमीन के यह चट्टानी चरित्र पाठक के मन में एक साथ बहुत कुछ उभारतें हैं जो सिर्फ और सिर्फ सकारात्मक हैं मानिक बच्छावत ने ता उम्र ‘दिसावरी’ की, कहावत में नहीं - हकीकत में दुनिया देखी , लेकिन बीकानेर और वहाँ के लोग उनकी स्मृतियों में बसे रहे मानक बच्छावत की स्मृतियों का यह दस्तावेज़ स्वयं संप्रेषित जीवित लोक इतिहास है आम आदमी का इतिहास जो यह निश्चित करता है कि ग्लोबलिजेसन के इस युग में इंसान को उसकी स्थानीय जड़ों की जरुरत है, क्योंकि वहाँ रिश्तों की पवित्रता है, “......कालू माली था/ जीजी कुम्हारिन थी/ दोनों दिन भर झगड़ते/ पर रात को दोनों / अपना माचा ढालकर/साथ सोते/दोनों पति-पत्नी नहीं थे/ उससे कुछ ज्यादा थे/..(कालू बाबा और जीजी)” विश्वास है, “...उसने नोटों के कई बण्डल/ पिता के हाथ में रख दिए/ बोला ये बीस हज़ार है मेरे/ दादा ने आपके पिताजी से पाँच हज़ार रुपये / वर्षों पहले लिए थे/ मेरे पिता मृत्यु सैया पर हैं/वे चाहते हैं यह रकम लेकर आप/ अपने श्रीमुख से कह दें/ आपने उनको क़र्ज़ मुक्त किया/मैं गांव चला जाऊंगा तब मेरे पिता/चैन से मर सकेंगे/पिता अचम्भे में पड़ गये उनको नहीं/मालूम की कब का क़र्ज़ है/...(क़र्ज़ की अदायगी) ” मूल्य बोध है, “... आदमी और पशुओं का / यह रिश्ता अनोखा था / मियां खेलार/ आदमी की आदिम दोस्ती का प्रतीक था/..(मियां खेलार)” पेशे में समर्पण है, ....”मारजा नियमों के कड़े थे/कोई छात्र यदि पोशाळ (पाठशाला) में /अनुपस्थित होता वे/ उसके घर पहुँच जाते/ उसे पकड़कर साथ ले आते./...(भाईया मारजा)” और “..... कहतें हैं गुजर कभी दूध में पानी नहीं मिलाते/ उन्हें खण (प्रतिज्ञा) है के यदि वे ऐसा करेंगे/ उनके बच्चे मर जायेंगे/...(हसीना गुजर) ” बाजार के लिए जीवन नहीं, जीवन के लिए बाजार है, ....”वे चाहते तो अपनी प्रसिद्धि का लाभ/ उठा सकते थे असेंस डालकर / सैकड़ों बोतलें बेच सकते थे/ मुनाफा कमा सकते थे/ ऐसा करने को तैयार नहीं थे वे/..(बेला का शरबत)” पंथ जीवन में गायब है ,... “गुजर कौम मुसलमान है पर उनका/ दूध हिंदू भी पीतें हैं/ ऐसा करते वक्त उनकी चोटी/ खड़ी नहीं होती/ उनका धर्म भ्रष्ट नहीं होता/ यह ठीक वैसे ही है जैसे / आदमी का खून मज़हब नहीं जानता / ठीक वैसे ही दूध भी कभी/ मज़हब में भेदभाव नहीं करता/दूध गाय देती है/ वह मज़हब नहीं जानती..(हसीना गुजर) और “...बाबा की जांत-पांत का / किसी को पता नहीं/पूछने पर कहतें हैं/पानी पीकर किसी से जाति मत पूछो..(गंगा बाबे की पो) ” मानिक बच्छावत के इस कविता संग्रह ‘इस शहर के लोग’ में स्मृतियों के सहारे उकेरे गये व्यक्ति चित्रों के माध्यम से पूरी संस्कृति सामने आती है “.... कजलू हिंदू था फकरू मुसलमान था/ दोनों ही गांधी कहलाते थे/ गांधी कोई जात नहीं थी/ वे खुशबुओं का व्यापार करते / गंधी थे गांधी हो गये थे/...(कजलू गांधी) ” मानिक बच्छावत की ये कवितायेँ संवेदना की अभिव्यक्तियाँ हैं “.....कमज़ोर को कोई /सताता उनको/ गुस्सा तब था आता/...(नत्थू पहलवान)” इन कविताओं में आंचलिक परंपराओं से उपजे इल्मी रोजगारों की कथा है ....”उदाराम को यह ज्ञान अपने/ पूर्वजों से मिला था/ वह ज़मीं सूंघकर बता सकता था कि/निचे पानी है या नहीं/...(उदाराम सुंघा)” , वहीँ बाजार द्वारा उन्हें हड़पे जाने की व्यथा भी है- “....अब आ चुकें हैं कई विदेशी ब्रांड/ कोई नहीं देखता कि / हर पैर की अपनी अपनी खास बनावट होती है/.. (रामचंद्र मोची)” बाज़ार मुनाफे में मुक्ति खोजता है, उसकी संवेदनाएं बाजारू होती है “...अब लोग/ बने बनाये कपड़े खरीदकर पहनने लगे/हाथ के कमाल का जलवा अब नहीं है/...(सूरजो जी दर्जी)”
हिंदी, अरबी, फारसी और अंग्रेजी के साथ स्थानीय राजस्थानी शब्दावली का अभिनव प्रयोग है जो हिंदी भाषा को समृद्ध करता है और ‘राजस्थानी’ को भाषा नहीं मानने वालों के अतार्किक रवैये को गंभीर चुनौती देता है इन भाषाई शब्दों में राजस्थान की संस्कृति झलकती है ‘इस शहर के लोग’ की कविताओं में एक आत्मीय आवेग है अतीत और वर्तमान का द्वंद्व है, विकास के नाम पर ‘क्या खोया-क्या पाया’ की जांच-पड़ताल का मूक अनुरोध है और यक्ष प्रश्न है - क्या परिवर्तन के नाम पर कुछ भी स्वीकार किया जाना उचित है ?
‘इस शहर के लोग’
(बीकानेर के लोगों को समर्पित मानिक बच्छावत की कविता पुस्तक)
केशव भट्टड़
कोई भी शहर मकानों, सड़कों , वास्तु, बगीचों आदि से नहीं , वहाँ के लोगों के मिजाज़, सोचने और काम करने के ढंग,उनके संस्कार और आपसी सोहार्द से जाना जाता है लोगों का चरित्र ही शहर का चरित्र होता है रोज़गार के भेद, जाती के भेद, धर्म और भाषा के भेद बीकानेर के लोगों में आपस में मतभेद के कारण नहीं बने;आज के युग में बीकानेर जैसे शहर का होना - सुकून का, विश्वास का, भाईचारे का – कूल मिलाकर आदमी के आदमियत से रिश्तें का जिंदा रहना है ‘इस शहर के लोग’ काव्य संग्रह के माध्यम से बीकानेरी संस्कृति का इन्द्रधनुषी रूप साहित्य में दर्ज हुआ है यूं ही ‘बीकानेर’ को आस पास के पूरे अंचल के लोग सिर्फ ‘शहर’ कहकर संबोधित नहीं करते
परंपरागत पेशे में श्रम जीवी की अपने श्रम में, अपने कार्य में एक निष्ठा होती है, एक दीवानापन होता है,एक जिम्मेदारी होती है “...एक दिन जब मैं वहाँ लस्सी पिने गया/ किसना जी ने/कहा आज आप लस्सी/ सामने की दुकान पर पी लें/ उसका दही खट्टा / हो गया है / वह आज लस्सी नहीं पिला सकता/..(किसना जी माली की लस्सी)” बाजारवाद का ऊद्धेश्य मुनाफा वहाँ प्रमुख नहीं होता “...इस शहर में अब भी / शराफत बची हुई है/ यहाँ अभी बाजारवाद नहीं आ पाया है/..”(वही) बाजारवाद नहीं देखता की ‘ हर पैर की अपनी एक खास बनावट होती है’ बाजार और उपभोक्ता के रिश्तें में अपनापन नहीं होता...”उस अपनापन की जगह/ अब लोग काम कराते/ आते और जाते..(छोगा जी नाई)” दूध,पानी रजाईयां, बर्तन , बोझ ढोने की मेहनत का कोई मज़हब नहीं होता मेहनतकशों का हुनर, शराफत, इंसान तो इंसान- जानवरों से प्रेम, शांतिप्रियता और धर्मनिरपेक्षता इस शहर की विशिष्टताएं हैं गायन, नृत्य, रम्मत हो या विवाह,जन्म,मृत्यु के लोकाचार – शहर के लोग एक दूसरे में पिरोये हुवे हैं खेल, कुश्ती, कबूतरबाजी हो या पतंगबाजी हो , रेशमा का दमादम मस्त कलंदर हो या हो अल्लाह जीलाई बाई का ‘ केसरिया बालम’ , इस शहर के लोग हरफनमौला हैं किसी भी शहर की पहचान चुनिन्दा लोगों से नहीं, वहाँ के आम लोगों से होती है जिनका प्रमुख चरित्र होता है अपनापन और संतुष्टि ‘इस शहर के लोग’ में आम आदमी खास स्थान रखता है यह सौधेश्य है ‘इस शहर के लोग’ में शहर के निवासी – सारे के सारे ‘आम’ मिलकर कुछ ‘खास’ देतें हैं यह खास एक ‘नस्टल्जिया’ है जो ‘जस्टिफाईड’ है किसी एक शहर के ‘नस्टल्जिया’ को सामने रखने वाली विरल काव्य रचना है ‘इस शहर के लोग’ जीवन में ये आम लोग कितने खास होतें है – और जरूरी भी, यह काव्य रचना पूरी इमानदारी और पारदर्शिता के साथ इस तथ्य को प्रस्तुत करती है जैसा परिवेश- वैसे लोग पीढ़ियों की साझा संस्कृति से उपजा एक ऐसा सामाजिक तानाबाना , जहाँ सभी का हक तसलीम होता है- ऐसा शहर है मेरा जन्म शहर बीकानेर और ऐसे हैं ‘इस शहर के लोग’ यहाँ का हर ‘आम’ कुछ खास है , लेकिन इस खासियत का असर कहीं भी नकारात्मक नहीं है सकारात्मक सोचवाले, पंथ निरपेक्ष , मेहनती और कारीगरी में अव्वल , मिठास से भरे हैं ‘इस शहर के लोग’ – बीकानेर के लोग यह काव्य रचना इंगित करती है कि जीवन में गति और ठहराव में सामजस्य होना चाहिये आधुनिक (?) जीवन शैली में जीवन में स्पेस का अभाव है ‘अब सब कुछ बहुत फास्ट है, फ़िल्मी है और सामयिक है गलें की मिठास और भीतर का दर्द अब कहीं नहीं है/..(अल्लाह जिलाई बाई)’ ‘बाई’ माने ‘माँ’ पुस्तक के परिचय में ठीक ही लिखा गया है-‘ इस शहर के लोग’ की कवितायेँ कवि मानिक बच्छावत की उन स्मृतियों से जुडी हैं जो इतिहास में दर्ज नहीं है, पर इंसानियत की कहानी कहती हैं ‘इस शहर के लोग’ काव्य संग्रह की 45 कविताओं में स्थानीय संस्कृति और शब्द अपनी ठसक के साथ मौजूद हैं हर चरित्र का अपना एक अनुभव है कहीं कहीं कवि की पृष्ठभूमि से सामायिक सामंती चित्रण आभासित होता है लेकिन वो पूरी मानवीयता के साथ है चरित्रों पर उसका प्रभाव नहीं है इन चरित्रों पर विशुद्ध भारतीय संस्कृति की स्पष्ट छाप है जो आंचलिक होते हुए भी सार्वभौमिक है सामाजिक मूल्य केन्द्र में हैं, बाजार के मूल्य हाशिए पर ‘इस शहर के लोग’ जीवन का राग सुनाते है रेतीली जमीन के यह चट्टानी चरित्र पाठक के मन में एक साथ बहुत कुछ उभारतें हैं जो सिर्फ और सिर्फ सकारात्मक हैं मानिक बच्छावत ने ता उम्र ‘दिसावरी’ की, कहावत में नहीं - हकीकत में दुनिया देखी , लेकिन बीकानेर और वहाँ के लोग उनकी स्मृतियों में बसे रहे मानक बच्छावत की स्मृतियों का यह दस्तावेज़ स्वयं संप्रेषित जीवित लोक इतिहास है आम आदमी का इतिहास जो यह निश्चित करता है कि ग्लोबलिजेसन के इस युग में इंसान को उसकी स्थानीय जड़ों की जरुरत है, क्योंकि वहाँ रिश्तों की पवित्रता है, “......कालू माली था/ जीजी कुम्हारिन थी/ दोनों दिन भर झगड़ते/ पर रात को दोनों / अपना माचा ढालकर/साथ सोते/दोनों पति-पत्नी नहीं थे/ उससे कुछ ज्यादा थे/..(कालू बाबा और जीजी)” विश्वास है, “...उसने नोटों के कई बण्डल/ पिता के हाथ में रख दिए/ बोला ये बीस हज़ार है मेरे/ दादा ने आपके पिताजी से पाँच हज़ार रुपये / वर्षों पहले लिए थे/ मेरे पिता मृत्यु सैया पर हैं/वे चाहते हैं यह रकम लेकर आप/ अपने श्रीमुख से कह दें/ आपने उनको क़र्ज़ मुक्त किया/मैं गांव चला जाऊंगा तब मेरे पिता/चैन से मर सकेंगे/पिता अचम्भे में पड़ गये उनको नहीं/मालूम की कब का क़र्ज़ है/...(क़र्ज़ की अदायगी) ” मूल्य बोध है, “... आदमी और पशुओं का / यह रिश्ता अनोखा था / मियां खेलार/ आदमी की आदिम दोस्ती का प्रतीक था/..(मियां खेलार)” पेशे में समर्पण है, ....”मारजा नियमों के कड़े थे/कोई छात्र यदि पोशाळ (पाठशाला) में /अनुपस्थित होता वे/ उसके घर पहुँच जाते/ उसे पकड़कर साथ ले आते./...(भाईया मारजा)” और “..... कहतें हैं गुजर कभी दूध में पानी नहीं मिलाते/ उन्हें खण (प्रतिज्ञा) है के यदि वे ऐसा करेंगे/ उनके बच्चे मर जायेंगे/...(हसीना गुजर) ” बाजार के लिए जीवन नहीं, जीवन के लिए बाजार है, ....”वे चाहते तो अपनी प्रसिद्धि का लाभ/ उठा सकते थे असेंस डालकर / सैकड़ों बोतलें बेच सकते थे/ मुनाफा कमा सकते थे/ ऐसा करने को तैयार नहीं थे वे/..(बेला का शरबत)” पंथ जीवन में गायब है ,... “गुजर कौम मुसलमान है पर उनका/ दूध हिंदू भी पीतें हैं/ ऐसा करते वक्त उनकी चोटी/ खड़ी नहीं होती/ उनका धर्म भ्रष्ट नहीं होता/ यह ठीक वैसे ही है जैसे / आदमी का खून मज़हब नहीं जानता / ठीक वैसे ही दूध भी कभी/ मज़हब में भेदभाव नहीं करता/दूध गाय देती है/ वह मज़हब नहीं जानती..(हसीना गुजर) और “...बाबा की जांत-पांत का / किसी को पता नहीं/पूछने पर कहतें हैं/पानी पीकर किसी से जाति मत पूछो..(गंगा बाबे की पो) ” मानिक बच्छावत के इस कविता संग्रह ‘इस शहर के लोग’ में स्मृतियों के सहारे उकेरे गये व्यक्ति चित्रों के माध्यम से पूरी संस्कृति सामने आती है “.... कजलू हिंदू था फकरू मुसलमान था/ दोनों ही गांधी कहलाते थे/ गांधी कोई जात नहीं थी/ वे खुशबुओं का व्यापार करते / गंधी थे गांधी हो गये थे/...(कजलू गांधी) ” मानिक बच्छावत की ये कवितायेँ संवेदना की अभिव्यक्तियाँ हैं “.....कमज़ोर को कोई /सताता उनको/ गुस्सा तब था आता/...(नत्थू पहलवान)” इन कविताओं में आंचलिक परंपराओं से उपजे इल्मी रोजगारों की कथा है ....”उदाराम को यह ज्ञान अपने/ पूर्वजों से मिला था/ वह ज़मीं सूंघकर बता सकता था कि/निचे पानी है या नहीं/...(उदाराम सुंघा)” , वहीँ बाजार द्वारा उन्हें हड़पे जाने की व्यथा भी है- “....अब आ चुकें हैं कई विदेशी ब्रांड/ कोई नहीं देखता कि / हर पैर की अपनी अपनी खास बनावट होती है/.. (रामचंद्र मोची)” बाज़ार मुनाफे में मुक्ति खोजता है, उसकी संवेदनाएं बाजारू होती है “...अब लोग/ बने बनाये कपड़े खरीदकर पहनने लगे/हाथ के कमाल का जलवा अब नहीं है/...(सूरजो जी दर्जी)”
हिंदी, अरबी, फारसी और अंग्रेजी के साथ स्थानीय राजस्थानी शब्दावली का अभिनव प्रयोग है जो हिंदी भाषा को समृद्ध करता है और ‘राजस्थानी’ को भाषा नहीं मानने वालों के अतार्किक रवैये को गंभीर चुनौती देता है इन भाषाई शब्दों में राजस्थान की संस्कृति झलकती है ‘इस शहर के लोग’ की कविताओं में एक आत्मीय आवेग है अतीत और वर्तमान का द्वंद्व है, विकास के नाम पर ‘क्या खोया-क्या पाया’ की जांच-पड़ताल का मूक अनुरोध है और यक्ष प्रश्न है - क्या परिवर्तन के नाम पर कुछ भी स्वीकार किया जाना उचित है ?
कवि परिचय
लगातार दक्षिण-पूर्व एशिया, अमेरिका, यूरोप एवं अन्य देशों में यात्राएं करते रहने वालें रचनाकार मानिक बच्छावत का जन्म 11 नवंबर 1938 (कलकत्ता) में, शिक्षा- एम.ए. (कलकत्ता विश्वविद्यालय) काव्य संग्रह- नीम कि छांह (1960), एक टुकड़ा आदमी (1967), भीड़ का जन्म (11972), रेत की नदी (1987), एक टुकरो मानुष (बांग्ला में अनूदित), पीड़ित चेहरों का मर्म (1994), तुम आओ मेरी कविता में (2000), फूल मेरे साथ हैं (2001), पत्तियां करती स्नान (2003), पेड़ों का समय (2009), इस शहर के लोग (2010) गद्य- जुलूसों का शहर (1973). आदम सवार (1976) अनुवाद- प्रतिद्वंद्वी (सेरेडन के ‘राइवल्स’ का हिंदी अनुवाद), विदेशी कविताओं का अनुवाद, संपादन- मारीशस की हिंदी कवितायेँ (1970), ‘अक्षर’ कविता पत्रिका का संपादन (1965-70) , कविता इस समय (2007)
लगातार दक्षिण-पूर्व एशिया, अमेरिका, यूरोप एवं अन्य देशों में यात्राएं करते रहने वालें रचनाकार मानिक बच्छावत का जन्म 11 नवंबर 1938 (कलकत्ता) में, शिक्षा- एम.ए. (कलकत्ता विश्वविद्यालय) काव्य संग्रह- नीम कि छांह (1960), एक टुकड़ा आदमी (1967), भीड़ का जन्म (11972), रेत की नदी (1987), एक टुकरो मानुष (बांग्ला में अनूदित), पीड़ित चेहरों का मर्म (1994), तुम आओ मेरी कविता में (2000), फूल मेरे साथ हैं (2001), पत्तियां करती स्नान (2003), पेड़ों का समय (2009), इस शहर के लोग (2010) गद्य- जुलूसों का शहर (1973). आदम सवार (1976) अनुवाद- प्रतिद्वंद्वी (सेरेडन के ‘राइवल्स’ का हिंदी अनुवाद), विदेशी कविताओं का अनुवाद, संपादन- मारीशस की हिंदी कवितायेँ (1970), ‘अक्षर’ कविता पत्रिका का संपादन (1965-70) , कविता इस समय (2007)
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