Tuesday, October 19, 2010

Birth Cenetenary of the Veteran Poet across the boundaries

Faiz Ahmad Faiz

Born

13 February 1911, Kala Kader, Sialkot, Punjab (Undivided India)
Died
20 November 1984 (aged 73), Lahore, Punjab, Pakistan
Pen name
Faiz
Occupation
Urdu poet, Journalist
Nationality
Pakistan
Ethnicity
Punjabi
Citizenship
Pakistan
Education
M.A. in English Literature
Alma mater
Government College Lahore
Genres
Ghazal, Nazm
Literary movement
Progressive Writers' Movement (Secretary , Punjab, 1936)
Notable Work(s)
Naqsh-e-Faryadi (1943), Dast-e-Sabah (1952), Zindan-nama (1956),
Dast-e-Tah-e-Sang (1965)
Notable award(s)
MBE, 1946, Lenin Peace Prize (1963,1st Asian Poet) The Peace Prize (Pakistani Human Rights Society), The Avicenna Award (posth।),Nigar Awards, Nishan-e-Imtiaz (Pakistan's Highest Civilian Award), posthumous in 1990,
Pablo Neruda, Nelson Mandella,Bertolt Brecht,Fidel Castro, W.B.Du Bois, Linus Pauling,
Recorded for library of congress in 1977, Nominated for Noble Prize in 1984 before death
Spouse(s)
Alys Faiz, Married in 1930,A British Woman
Children
Salima (b. 1942, Eminent Artist, married with Shoaib Hasmi)
Moneeza (b. 1945, TV Producer, married with Humair Hasmi)
Influences
Dr.Allama Iqbal , Karl Marx, Syed Mir Hasan,Yousuf Saleem Chishti
Influenced
Urdu poetry, Ibn-e-Insha

आप हमारी यादों में जिंदा है कि शायर कभी नहीं मरते
केशव भट्टर

Sunday, October 10, 2010




दुर्गापूजा : दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक उत्सव
केशव भट्टड़

जब अशुभ शक्तियों का प्रकोप बढ़ गया, शुभ शक्तियों ने अपनी शक्ति दुर्गा में संगृहीत कर उन्हें असुर से लड़ने का आग्रह किया अपने दस हाथों में तलवार, शंख, चक्र, माला, घंटा, तीर, धनुष, भाला आदि हथियारों से दुर्गा ने असुरों का नाश किया और स्वर्ग का उद्धार लंका युद्ध से पहले राम ने शक्ति पूजा की और शक्ति दुर्गा से विजय का आशीर्वाद मिला रावण का संहार हुआ विजया दशमी को रावण की अंत्येष्टि हुई रामायण, महाभारत, वेद, पुराण आदि में ये सन्दर्भ बहुतायात में मिलते हैं अशुभ शक्तियों पर शुभ शक्तियों की विजय का पर्व है दुर्गापूजा
पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा को अकालबोधन, मायेर पूजो, दुर्गोत्सव, शरदोत्सव, शारदीय पूजा, महापूजा के नाम से भी जाना जाता है आजकल पूजा कहने मात्र से दुर्गापूजा का ही बोध होता है पश्चिम बंगाल के कोलकाता, बहरामपुर, सिलीगुड़ी और लतागुड़ी (जलपाईगुड़ी) में दुर्गापूजा भव्यतम रूप में मनाई जाती है
इस पर्व को झारखंड, उड़ीसा, आसाम, त्रिपुरा, बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली में दुर्गापूजा के नाम से ही मनाया जाता है राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब,जम्मू-कश्मीर, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, केरल में इसे नवरात्री उत्सव, आंध्र में बोम्माला कोलुवु, तमिल नाडू में बोम्मई गोलू, कर्णाटक में मैसूर दशहरा, हिमांचल प्रदेश में कुल्लू दशहरा के नाम से मनाया जाता है केरल में विजयादशमी को विद्यारम्भम (शिक्षा की शुरुआत) के रूप में भी मनाया जाता है और सरस्वती की पूजा की जाती है उड़ीसा में दुर्गा की मूर्ति को गोसानी और दशहरा को गोसानी यात्रा कहते हैं उड़ीसा में नेताजी बोस ने दुर्गापूजा को ब्रिटिश राज के विरुद्ध नौजवानों को संगठित करने के उद्धेश्य से सार्वजनीन रूप से प्रचलित किया भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से दुर्गापूजा अछूती नहीं रही
भारत के बाहर बंगलादेश, नेपाल, भूटान, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया आदि देशो में भी दुर्गापूजा मनाई जाती है पूर्वी बंगाल (बंगलादेश) में इसे भगवती पूजा कहा जाता है नेपाल में दशहरा को दशैं (या दशन) कहा जाता है यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया में दुर्गा की मूर्तियां बंगाल के मूर्तिकारों की बस्ती ‘कुम्हारटोली’ से बनाकर भेजी जाती हैं लंदन के ईलिंग टाउन हॉल में लंदन शरदोत्सव द्वारा दुर्गापूजा का आयोजन किया जाता है लंदन में आयोजित होने वाली पुजा की मूर्तियों का विसर्जन टेम्स नदी में करने की अनुमति कुछ वर्षों पहले ही मिली है
सन 1757 ई. में कलकत्ता के शोभाबाजार राजबाड़ी के राजा नवकृष्ण देव ने लोर्ड क्लाइव के सम्मान में पहली बार शारदीय दुर्गा पूजा का आयोजन किया प्लासी युद्ध की विजय के बाद क्लाइव सभी को धन्यवाद कहना चाहते थे कलकत्ता का इकलौता चर्च सिराजुदोल्लाह ने नष्ट कर दिया था इसलिए राजा ने शारदीय दुर्गोत्सव मनाया जहाँ क्लाइव ने अपनी बात रखी 11 वीं शताब्दी के ग्रंथ अवनिमाया और 14 शताब्दी के विद्यापति के दुर्गाभक्तितरंगिणी में दुर्गापूजा का उल्लेख है इससे पता लगता है कि मध्ययुगीन बंगाल में दुर्गापूजा की परंपरा थी 17 वीं शताब्दी में राजशाही दरबार में तथा 18 वीं शताब्दी में नदिया में दुर्गापूजा मनाये जाने के दस्तावेज़ मिलते हैं उड़ीसा के रामेश्वरपुर में पिछले 400 सालों से एक ही स्थान पर दुर्गापूजा मनाई जा रही है वर्तमान में यह सबसे पुरानी पूजा मानी जाती है हावड़ा के कोटारंग के घोष महाशय अकबर के लशकर के साथ टोडरमल के नेतृत्व में यहाँ आये थे और यहीं बस गये उन्होंने इस पूजा की शुरुआत की ज़मींदारों और रजवाडो से निकलकर कर दुर्गापूजा ने आज सार्वजनीन (सब जन का) रूप ले लिया है पहली सार्वजनीन दुर्गापूजा गुप्तिपाडा की बारोयारी पूजा है ज़मींदार ने बारह दोस्तों को अपनी पूजा में प्रवेश की अनुमति नहीं दी विरोध में बारहों यारों ने चंदा एकत्रित कर पूजा का आयोजन किया जिसमे पूरा गांव सम्मिलित हुआ इसलिए इस पूजा का नाम बारोयारी (बारह यारो की ) पूजा पड़ा
परंपरागत रूप से दुर्गापूजा 10 दिनों तक मनाई जाति है माना जाता है की इन दिनों दुर्गा अपने पुत्रों गणेश और कार्तिकेय तथा पुत्री ज्योति तथा सखियाँ जया और विजया के साथ अपने पिता हिमालय के घर आती हैं (सन्दर्भ- क्रितिबास रामायण) पित्रपक्ष की समाप्ति के बाद महालया से देवीपक्ष की शुरुआत होती है परंपरागत तरीके से गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती का दुर्गा के साथ पूजन होता है अक्षय त्रित्या को रथ यात्रा के दिन गंगा से मूर्ति बनाने के लिए माटी ली जाति है महालया को मूर्तिकार मूर्ति की आँखें बनाते हैं इसे चक्षु दान कहा जाता है चक्षु दान से पहले मूर्तिकार एक दिन का उपवास रखते हैं और इस दौरान शाकाहारी भोजन करते हैं सार्वजनीन मुख्य पूजा षष्टी से शुरू होती है सप्तमी को मूर्ति में प्राण स्थापित किये जाते हैं इस प्रक्रिया को बोधन कहते हैं नदी से केले के गाछ (कोला- बोउ) में प्राण लाकर मूर्ति में स्थापित किये जाते हैं कोला बोउ को नदी में स्नान करा कर पिली साड़ी पहनाई जाती है अष्टमी चार दिवसीय सार्वजनीन दुर्गापूजा का महत्वपूर्ण दिन है इसी दिन देवी ने असुर का नाश किया अष्टमी और नवमी के संधिक्षण पर संधि पूजा की जाती है नवमी की शाम को महाआरती का आकर्षण रहता है दशमी को मूर्तियों का विसर्जन (भषाण) नदी में कर दिया जाता है नम आँखों से लोग मां दुर्गा को विदा करते हैं और आशा करते हैं की अगले वर्ष वो फिर आएँगी इन मूर्तियों के निर्माण में पर्यावरण को दूषित करने वाले अवयवों को दूर रखा जाता है कोजोगरी लक्ष्मी पूजा के आयोजन के साथ देविपक्ष समाप्त होता है
सन 1990 ई. से पूजा आयोजित करने का अंदाज़ बदल गया परंपरागत तरीकों की जगह विषय (थीम) आधारित पूजाओं का आयोजन होने लगा पूजा मंडप (पंडाल) और मूर्तियों का निर्माण विषयानुसार किया जाने लगा प्राचीन सभ्यताओं से लेकर टायटनिक और हेरी पोटर के थीम पूजाओं में दृष्टिगोचर हो चुके हैं प्रतिस्पर्धा होने के कारण थीम आधारित पूजाओं की सजावट में स्थानीय स्थापत्यकला के छात्रों को अपनी कुशलता प्रदर्शित करने का मौका मिलता है थीम आधारित पूजाओं का बजट परंपरागत पूजाओं के बजट से अधिक होता है उत्पादों के विज्ञापनों से शहर भर जाता है लेकिन थीम आधारित पूजा मंडपो में दर्शकों की भारी भीड़ उमडती है हर धर्म, जाती, समाज , वर्ग के लोग भीड़ में मिलते हैं
बंगाली समाज का सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सव है दुर्गापूजा दुर्गापूजा का मिजाज़ महालया को आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले 2 घंटे के कार्यक्रम में स्वर्गीय बिरेन्द्र कृष्ण भद्र या स्वर्गीय पंकज कुमार मल्लिक के महिषासुरमर्दिनी पाठ से बनना शुरू हो जाता है यह कार्यक्रम सन 1950 ई. से जारी है पूजा के दौरान शहर थम सा जाता है ढाक बजने लगते हैं पूजा की लागत कितनी भी हो, कहीं भी प्रवेश शुल्क नहीं लिया जाता है अब पूजा धार्मिक भाव से आगे निकल गई है घूम कर देखने से लगता है कि दुर्गा पूजा पृथ्वी का सबसे बड़ा कला उत्सव है पंडालो के विषय और तदानुसार उनकी सजावट, उच्चतर कारीगरी से बनायीं गई मूर्तियां, पंडालों के आस-पास बिजली की सजावट, कुल मिलकर कला प्रदर्शन का एक अनूठा आयोजन और इसकी स्वीकृति देते तमाम उम्र-वर्ग-भाषा-वर्ण-धर्म के आम-ओ-खास स्त्री-पुरुष पंडाल और मूर्तियों बनाने वाले कलाकारों के नाम हर मंडप में लिखे रहतें हैं
प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजित राय की फिल्म ‘ जय बाबा फेलुनाथ’ में दुर्गापूजा केन्द्र में है उन्ही की फिल्म ‘नायक’ में दुर्गापूजा का सन्दर्भ है रितुपर्णो घोष की ‘उत्सव’ और ‘अंदर महल’ के केन्द्र में दुर्गापूजा है हिंदी फिल्म ‘देवदास’ में भी दुर्गापूजा विशेष सन्दर्भ में है इस अवसर पर गानों के कैसेट और सीडी , पुस्तकों, फिल्मों का लोकार्पण होता है आधुनिक बांग्ला गाने ‘‘पुजोर गान’’ इस अवसर पर विशेष रूप से प्रत्येक वर्ष निकाले जाते हैं नये कपड़ों और मिठाईयों के साथ हर तरह के सामानों की खरीद होती है खुदरा बाज़ार की रौनक अपने चरम पर होती है खरीद पर विशेष छूट भी मिलती है संगी-साथियों के ‘अड्डे’ जमते हैं पत्र-पत्रिकाओं के पूजा वार्षिकी या शारदीय संख्या (विशेषांक) निकाले जाते हैं ‘आनंदमेला’ और ‘शुकतारा’ के विशेषांकों को उदहारण में रखा जा सकता है
चार दिवसीय पूजा का समापन विजय दशमी को होता है स्थानीय परंपरा में सभी एक दूसरे को शुभ कामनाएं और उपहार देते हैं ‘शुभो विजया’ के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं जो काली पूजा (दीपावली) तक गूंजते हैं दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक उत्सव है शारदीय कला-उत्सव ‘दुर्गापूजा’ जो आपसी मानवीय संबंधो को मजबूती देता है
अपने राज्य पश्चिम बंगाल की सांस्कृतिक सामाजिक बुनावट को समझने के लिए व्यवस्था के साथ सहयोग करते हुए पूजा जरुर घुमे सभी पाठकों को शारदीय अभिनन्दन और शुभो विजया

कला और संस्कृति का प्रदेश
मरुधरा राजस्थान

केशव भट्टड़

प्रागेतिहासिक ग्रंथों के अनुसार राजस्थान के राजपूत वैदिक भारत के क्षत्रियों के वंशज हैं राजस्थान में राजपूत कुलों के उत्थान का इतिहास छठी - सातवीं सदी से मिलता है 5वीं सदी में गुप्तवंश के पराभव के बाद इस क्षेत्र में फैली अस्थिरता को गुर्जर-प्रतिहार वंश के शाषकों ने अपना शाषन स्थापित कर दूर किया राजस्थान के राजपूत वंशों को तीन भागों में रखा जा सकता है सूर्यवंशी, जो राम की वंशावली से हैं और चंद्रवंशी या इन्दुवंशी , जो कृष्ण की वंशावली से हैं इन परम्परागत वंशो के अलावा अग्निकुल के क्षत्रिय हैं मान्यता है कि अग्निकुल की उत्पति आबू के पहाड़ों पर पवित्र अग्नि से हुई इन प्रमुख कुलों के राजपूत 36 वंशो और 21 रियासतों में बंटे हुए थेइनमे मुख्य थे-मेवाड़( उदयपुर) के सिसोदिया, अम्बर(जयपुर) के कच्छावा , मारवाड़ (जोधपुर और बीकानेर) के राठोड़ , झालावाड़ और बूंदी के हाडा , जैसलमेर के भाटी , शेखावाटि के शेखावत और अजमेर के चौहान उत्तर पश्चिम भारत का सीमांत प्रदेश राजस्थान अंग्रेजों के साम्राज्यवादी शाषन से मुक्त रहा सम्राट अशोक द्वारा किया गया बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रयास यहाँ अधिक प्रभाव छोड़ने में असफल रहा, हालाँकि दक्षिणी राजस्थान के झालावाड़ में बौद्ध स्तूप और गुफायें हैं रामायण और महाभारत में यहाँ के पवित्र-पुष्कर का उल्लेख है, जिससे इसकी प्राचीनता का अंदाज़ लगाया जा सकता है

यहाँ संपर्क भाषा हिंदी है मगर मुख्य भाषा राजस्थानी ही है अलग अलग स्थानों पर राजस्थानी की उप-भाषाएँ बोली जाती हैं दक्षिण-पूर्व राजस्थान में मालवी, उत्तर पूर्व राजस्थान में मेवाती, पूर्वी भाग में जैपुरी आदि कुछ विशिष्ट उदाहरण हैं

राजस्थान अपनी समृद्ध संस्कृति और परम्पराओं के लिए प्रसिद्ध है यहाँ की विशिष्ट संस्कृति विश्व के सैलानियों का ध्यान आकृष्ट करती है यहाँ की कला और संस्कृति की समृद्ध विरासत प्राचीन भारतीय जीवन शैली को प्रतिबिंबित करती है परंपरागत तरीकों से गाँवों में विकसित यहाँ की विविधता से भरी समृद्ध संस्कृति निश्चित रूप से प्रसंसनीय है उत्कृष्ट हस्त कलाएं, चहल पहल से गूंजते मेले-मगरिये, चमकीले और रंग बिरंगे आकर्षक वस्त्र , वास्तु में चटकीले रंग और मीनाकारी यहाँ की समृद्ध संस्कृति के विशिष्ट अवयव हैं रागाधारित शाष्त्रीय लोक गीत-संगीत और नृत्य राजस्थानियों की संस्कृति के मुख्य अंश हैं जैसलमेर का कालबेलिया नृत्य और उदयपुर का घुमर पूरे विश्व में जाना जाता है इनके अलावा भवयीं और गैर यहाँ के प्रसिद्ध नृत्य है यहाँ का लोक संगीत और यहाँ के गीत रोज़मर्रा के काम-काज और आपस में गुंथे रिश्तों को दर्शाते हैं इन लोक गीतों में वीरता और श्रृंगार के रस प्रधान होतें है ढोला-मारू , रामू-चनणा आदि की प्रेम कहानियाँ और भजन भी गाये जाते हैं मीरा बाई के भजन यहाँ खास प्रचलन में हैं
मारू थारे देस में, निपजे तीन रतन
एक ढोलो दूजी मारवण तिजो कसूमल रंग
पधारों म्हारे देस जी
केसरिया बालम आओनी पधारो म्हारे देस
लोक गायिका पद्मश्री अल्लाह जिलाई बाई (1 फरवरी 1902 – 3 नवंबर 1992, बीकानेर) का राग मांड पर गाया गया यह गीत राजस्थान के प्रतिनिधि गीतों में स्वीकृत है जीवन को सरस और कठोर श्रम की थकान को मिटाने के लिए पूरे राजस्थान के लोक जीवन में वाद्य के साथ गायन और नृत्य की परंपरा मिलती है कला और संस्कृति का प्रदेश है मरू भूमि राजस्थान मांगणियार , लंगा , डूम , ढोली आदि स्थानीय जातियां परंपरा से गायन और नृत्य के पेशे में हैं जसनाथी जाति के लोग जलती आग पर नृत्य करने में पारंगत है चँग, भोपा, तेजाजी, कठपुतली आदि प्रसिद्ध लोक संगीत हैं रम्मत यहाँ की प्रसिद्ध नृत्य नाट्य लोक शैली है एकतारा, सारंगी और रावणहत्था यहाँ के विशिष्ट वाद्य यन्त्र हैं वस्त्र विन्यास की विश्व प्रसिद्ध बंधेज शैली राजस्थान की देन है

होली , दिवाली, ईद के अलावा थार उत्सव, ऊंट मेला, हाथी मेला,पुष्कर मेला, गणगौर मेला , तीज उत्सव आदि यहाँ के चर्चित मेलें और त्यौहार हैं

राजस्थान की भूमि किलों और हवेलियों के लिए विश्व भर में जानी जाती है रणकपुर और दिलवाड़ा के मंदिर स्थापत्य कला में बेजोड हैं चित्रकला और लकड़ी पर नक्कासी के काम की राजस्थानी शैली की एक समृद्ध परंपरा है

प्रकृति से कठोर परिश्रमी राजास्थानियों की जीवन शैली उनकी अपनी संस्कृति से संचालित हो क्योंकि आधुनिक जीवन की तेज गति से बदलती दुनिया में यह सांस्कृतिक विरासत ही राजास्थानियों की पहचान है विश्वास है की प्रवास में भी राजस्थानी अपनी इस विशिष्ट पहचान को बनाये रखेंगे और दूसरे प्रदेशों से इसके माध्यम से सांस्कृतिक आदान प्रदान भी करेंगे याद रखना है की सभ्यता का मूल श्रोत संस्कृति ही है


KESHAV BHATTAR
9330919201

रतन शाह और लाडेसर
राजस्थानी भाषा आन्दोलन की निर्भीक आवाज़

केशव भट्टड़

मारवाड़ी समाज का फैलाव अत्यंत विस्तृत है सुदूर गाँवों से लेकर बड़े महानगरों में मारवाड़ी समाज के लोग विश्वभर में बसे हैं आध्यात्मिकता, इतिहास, सामाजिकता, संस्कृति , साहित्य एवं देश भक्ति में यह समाज किसी भी अन्य समाज से होड़ लेने में सक्षम हैं इस समाज की अपनी समृद्ध भाषा ,इतिहास, साहित्य, लोक संस्कृति , लोक कलाएं, राग , संगीत, वाद्ययंत्र, मुंडिया लिपि, अपने कुशल व्यवसायी, उद्योगपति, डॉक्टर, इंजीनियर्स, प्रोफेसनल्स, लेखक, पत्रकार, कलाकार हैं, जो विश्व भर में अपनी अलग पहचान रखतें है इतना सरस-समृद्ध समाज और इतनी नकारात्मक छवि , आखिर कारण क्या है?
मारवाड़ी कौन है?
मारवाड़ी सम्मेलन का संविधान लिखता है-“ मारवाड़ी- वे व्यक्ति जो राजस्थान प्रदेश एवं उसके निकटवर्ती भू-भागों के,जहाँ का रहन सहन राजस्थान से मिलता जुलता हो, निवासी हों, या वे स्वयं अथवा उनके पूर्वज उन भू-भागों से आकर अन्य स्थानों में बस गये हों”
दूसरी परिभाषा भंवरमल सिंघी कि पुस्तक “मारवाड़ी समाज: चिंतन और चुनौती” के पृष्ठ 61 पर दी गई है-“ राजस्थानी शब्द में भौगोलिकता एक प्रदेश की है और उस दृष्टी से इतिहास की एक सीमा है पर जीवन के कर्मक्षेत्रों विभिन्नताएं सब विद्यमान हैं मारवाड़ी में जबकी भोगोलिक सीमा-विस्तार सब प्रदेशों का है, कर्म क्षेत्र की एकांगिकता है” रतन शाह का आदरणीय सिंघी जी से यहाँ विरोध है- “मारवाड़ी का अर्थ व्यापारी रख दिया न कर्म की एकांगिकता कहाँ है? डॉक्टर, इंजीनियर्स, लेखक, पत्रकार, व्यापारी सभी तो मारवाड़ी हैं यह एक छलावा है और ‘मारवाड़ी’ शब्द की गलत परिभाषा है” शाह कहते हैं कि ‘मारवाड़ी वह है जो मारवाड़ी बोलता है और भाषा विज्ञान जिसे राजस्थानी कि उप भाषा के नाम से, सदियों से जानता है’
राजस्थानी प्रचारणी सभा के संस्थापक सचिव रतन शाह बताते हैं-“ प्रसिद्ध चिन्तक समर सेन ने अपनी पत्रिका फ्रंटियर में लिखा था –‘मारवाड़ी असभ्य हैं’ मुझे यह बात अखर गई संपर्क करने पर श्री सेन ने समझाया कि सभ्यता का मानदंड होता है भाषा,साहित्य और संस्कृति मारवाड़ियों के पास व्यापार के अलावा कुछ है ?” शाह बताते हैं कि कलकता विश्वविद्यालय में नोपानी चेयर हुआ करती थी जिसमे ‘राजस्थानी कला और भाषा’ विषय पर बोलने के लिए अगरचंद नाहटा आमंत्रित थे कलकत्ता में इतना बड़ा मारवाड़ी समाज और श्रोता बमुश्किल 10 या 12 इस दर्पण में समाज का विद्रूप चेहरा झांकता दिखा किसी भी समाज के मूल्यांकन के लिए भाषा, साहित्य और संस्कृति ही निर्णायक तत्व हैं हम लोग इनकी ओर उदासीन रहें हैं समाज को जिंदा रखने के लिए हमें इस निद्रावस्था को त्यागना होगा राजस्थान के झुंझनू से कलकता आकर बसे शाह कहते हैं कि उस समय की एक फिल्म में देखा कि एक मारवाड़ी बनिये का चित्र इस तरह से रंग करके विकृत ढंग से दिखाया गया था ,जिससे पूरे समाज की छवि नष्ट हो रही थी मन में बात आई कि क्या इस शहर में एक भी व्यक्ति नहीं है जो इसका प्रतिवाद करे क्या यही और इतना ही परिचय है मारवाड़ी समाज का ? धीरे धीरे समान सोच के लोग शाह के साथ संगठित होते गये और परिचय का दायरा विराट होता गया राजस्थानी भाषा में पत्रिका निकालने की योजना बनी शाह बताते हैं कि इस पृष्ठभूमि पर राजस्थानी भाषा की अपनी पत्रिका का होना निहायत ही जरूरी था राजस्थानी भाषा के निष्ठावान हिमायती रावत सारस्वत ने सुझाव दिया कि ‘ राजस्थानी खातर जो भी काम करयो जावे बो महत्वपूर्ण है पण सबसु बेसी जरुरी है कै अठवाङियो नहीं तो कम-स्यूं-कम एक पखवाङियो छापों बेगै-स्यूं-बेगो चालू करयो जावै” पाक्षिक पत्रिका निकली और उसका नाम पड़ा-‘लाडेसर’ 22 अप्रेल 1967 को महाजाति सदन में गजानंद वर्मा की नृत्य नाटिका प्रदर्शन के साथ लाडेसर का पहला अंक आया
लाडेसर के माध्यम से राजस्थानी भाषा का विकास तथा मारवाड़ियों में फैली विसंगतियों और रूढियों पर हमला होता मारवाड़ी समाज की प्रमुख समस्याएं थी-1. मारवाड़ी समाज के प्रति घ्रिणात्मक वातावरण और 2. मारवाड़ी समाज पर होने वाले हिंसात्मक हमले
लाडेसर के संपादक रतन शाह के विचार थे कि हमारे समाज की भाषा, सभ्यता, संस्कृति से हम दूर हो गये जिस समाज के ये तत्व खतम हो जातें हैं , वह असभ्य और असंस्कृत कहला कर घृणा का पत्र बन जाता है मारवाड़ियों की जितनी भी उपलब्धियां हैं- नाट्य क्षेत्र में, कला-क्षेत्र में-विद्या क्षेत्र में- वे सब हिंदी भाषियों की उपलब्धियों में गुम हो जाती हैं और बुराई के काम मारवाड़ियों के मत्थे मंढ दिए जाते हैं अंतः इस घृणा के वातावरण को हमेशा हमेशा के लिए खत्म करने के लिए अपने गौरवशाली अतीत के बोध को पुनःसंस्थापित करें अपनी भाषा , सभ्यता, संस्कृति को अपने दैनिक जीवन में ढालें एक संपन्न भाषा वाले सुसभ्य एवं सुसंस्कृत समाज को किस प्रकार कोई घृणा की दृष्टी से देखेगा ? एक वणिक प्रवर्ती पूरे समाज पर हावी हो गई है और इससे समाज में भीरुता बढ़ी है खुद का एक अलग आस्तित्व, समाज का एक अलग व्यक्तित्व कायम करना होगा भाषा,साहित्य और संस्कृति के लिए मर-मिटने के होसलें रखने होगें समाज की भीरुता खतम करने के लिए चरित्र निर्माण करना होगा चरित्र निर्माण साहित्य से होता है भीरुता के कारण ही समाज पर हिंसात्मक हमले होतें हैं,पर हम अपने साहित्य को भूलें बैठें हैं- “ जणनी जणे तो दोय जण, के दाता के सूर”

इन होसलों के साथ कलकत्ता से राजस्थानी भाषा की संभवतः पहली पत्रिका लाडेसर सामने आई और मारवाड़ी साहित्य, भाषा और संस्कृति के साथ साथ राष्ट्र विवेचना के तत्वों की निर्भीक आवाज़ बनी युवा संपादक रतन शाह की दृष्टी साफ़ थी वह यह महसूस करते थे की व्यक्ति के निर्माण में समाज की महतवपूर्ण भूमिका होती है, अंतः व्यक्ति की भी भूमिका समाज के प्रति महत्वपूर्ण होनी चाहिये उसे भी समाज को कुछ देना चाहिये जिसका अहसास उसे हो धन ही नहीं, बल्कि उन्हें कुछ सिखाकर, उन्हे कुछ शिक्षित बनाकर, उन्हें कुछ अच्छी बातें देकर इस महत्ती उद्धेश्य से शाह ने दो खण्डों में ‘सांस्कृतिक राजस्थान’ पुस्तक का संपादन किया जो राजस्थान विश्वविद्यालय में सन्दर्भ ग्रंथ के रूप में रखा गया
संपादक शाह के इन क्रन्तिकारी विचारों की अभिव्यक्ति लाडेसर के माध्यम से मारवाड़ी समाज में गूंजी बीकानेर में राजस्थानी अकैडमी बनी केंद्रीय साहित्य अकैडमी द्वारा राजस्थानी भाषा को मान्यता देते हुए इस भाषा में प्रकाशित साहित्य पुस्तकों पर सम्मान दिया जाने लगा अढाई साल के प्रकाशन काल में लाडेसर ने राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता के लिए जो मशाल जलाई वो आज भी बुझी नहीं हैं सच तो यह है कि ‘लाडेसर’ का एक एक अंक ऐसा है जो अपने आप में दस्तावेज़ है रतन शाह का विश्वकोशों से खोजकर निकाला गया तथ्य की राजस्थानी बोली (dialects) नहीं , भाषा (language) है, से राजस्थानी भाषा के संवैधानिक मान्यता आंदोलन को गति मिली राजस्थानी अकैडमी के प्रथम प्रवासी साहित्यश्री सम्मान से सम्मानित , प्रथम अन्तराष्ट्रीय राजस्थानी सम्मेलन के संयोजक रतन शाह आज भी राजस्थानी भाषा और साहित्य के सर्वांगीण विकास के लिए कमरबद्ध हैं “संवैधानिक मान्यता राजनितिक कारणों से रुकी हुई है”, कहते हुए रतन शाह पूछते हैं- “यदि राजस्थानी भाषा नहीं हैं तो केंद्रीय साहित्य अकादमी पिछले लगभग 25 सालों से राजस्थानी भाषा के नाम पर किन पुस्तकों को सम्मानित कर रही है ?”

केशव भट्टड़
Keshava2007@yahoo.co.in

आधुनिक राजस्थानी साहित्य के जनक:शिवचंद्र भरतिया
-केशव भट्टड़

प्रवासी राजस्थानी साहित्यकार श्री शिवचंद्र भरतिया आधुनिक राजस्थानी साहित्य के जनक माने जाते हैं उन्होंने राजस्थानी गद्ध के क्षेत्र में न सिर्फ पहला नाटक और उपन्यास लिखा बल्कि आधुनीक राजस्थानी गद्ध साहित्य की विभिन्न विधाओं की शुरुआत की
बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में राजस्थानी साहित्य में आत्मकथा का अभाव था जिसे कलम के धनी भरतिया जी ने अपने दर्शन विधायक ग्रंथ ‘विचार दर्शन’ के परिशिष्ट में ‘काल-प्रभाव’ और ‘दु:खाश्रुपात’ कविता के माध्यम से अपना जीवनवृत्त प्रस्तुत कर दूर किया उन्होंने अपने उपन्यास ‘कनक सुन्दर’ और ‘ नाटक ‘फाटका जंजाल’ की भूमिका और उपसंहार में अपने जीवनवृत्त की झलक प्रस्तुत की है ‘विचार दर्शन’ के प्रस्तावना भाग में जहाँ उन्होंने ‘सरस्वती’ के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी से अपने संबंधों का जिक्र किया है वहीँ ‘वृतांत’ शीर्षक से अपना जीवनवृत्त प्रस्तुत किया है ‘विचार दर्शन’ में श्री द्वारिका प्रसाद सेवक के संपादकीय लेख से भी भरतिया जी के जीवन से सम्बंधित प्रामाणिक जानकारी मिलती है
शिवचंद्र भरतिया के जीवनवृत्त को सबसे पहले मोतीलाल मेनारिया ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थानी भाषा और साहित्य’ में प्रकाशित किया इसके बाद डॉ.किरणचंद नाहटा ने भरतिया जी की रचनाओं की खोजबीन करके उनके जीवन और विचारों को जीवनी रूप में प्रस्तुत किया
‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ नाम से साहित्य अकैडमी, दिल्ली द्वारा चुनिन्दा साहित्यकारों के जीवन और उनके रचना संसार पर प्रकाशित पुस्तकों में शिवचंद्र भरतिया के जीवन और रचना संसार से सम्बंधित समीक्षात्मक पुस्तक श्री लक्ष्मीकांत व्यास ने लिखी इसमें भरतिया जी की उपलब्ध रचनाओं पर समीक्षात्मक टिपण्णी और उनकी विचार धारा पर प्रकाश डाला गया है इस पुस्तक के माध्यम से श्री व्यास ने शिवचंद्र भरतिया पर शोध करने वालों की राह रोशन की है
प्रवासी राजस्थानी साहित्यकार शिवचंद्र भरतिया के पूर्वज राजस्थान के जोधपुर रियासत के डीडवाना गांव से हैदराबाद के कन्नड़ गांव में जा बसे वहीँ सन 1853 में भरतिया जी का जन्म हुआ उनके दादा का नाम श्री गंगाराम भरतिया और पिता का नाम श्री बलदेव भरतिया था वैश्य-अग्रवाल कुल में जन्मे भरतिया जी अपने चार भाईयों में सबसे बड़े थे पिता की मृत्यु के बाद भरतिया जी को छोड़कर तीनों भाईयों ने पैतृक सम्पति आपस में बाँट ली भरतिया जी ने व्यापार छोड़कर वकालत शुरू कर दी वकालत में भी मन नहीं लगा तो इंदौर आकर सरकारी नौकरी कर ली पिता की मृत्यु के बाद भरतिया जी के पुत्र, पत्नी और पुत्री की भी मृत्यु हो गई जीवन के उतर चढाव और विविधताओं ने उनके अध्ययन और अनुभवों को गहराई दी इन परिस्थितियों से भरतिया जी विचलित नहीं हुए परन्तु इनका असर उनकी रचनाओं पर जरूर पड़ा
भरतिया जी कईं भाषाओँ के जानकार थे राजस्थानी के साथ संस्कृत, हिंदी, मराठी और गुजराती भाषाओँ पर उनका समान अधिकार था इन भाषाओँ को उन्होंने अपनी रचनाओं का आधार बनाया उन्होंने हिंदी में 17, मराठी में 13, राजस्थानी में 9 और संस्कृत में 3 ग्रंथो की रचना की ‘सरस्वती’ पत्रिका के यशश्वी संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उनको ‘अनेक भाषा कोविद’ के रूप में संबोधित किया तो एक प्रसंग में लिखा कि भरतिया जी संस्कृत और मराठी के अच्छे ज्ञाता हैं, हिंदी और राजस्थानी की तरह वे मराठी में भी लेख और कवितायेँ लिख सकते हैं
उस वक्त राजस्थानी भाषा और मारवाड़ी समाज की स्थिति ठीक नहीं थी ‘केशर विलास’ नाटक की भूमिका में भरतिया जी लिखतें हैं-‘ आपणी मारवाड़ी बोली आज ईशा सुधारां की कळश ऊपर पूग्योङी दुनिया मांहे पण अँधेरी गुफा के अंदर गोती खाती रैव्है, इणको अभिमान आप सरदारां ने नहीं कांई ? अफ़सोस की बात छै आज तांई मारवाड़ी बोली मांहे छोटो-मोटो एक भी ग्रंथ नहीं, ग्रंथ तो दूर साधारण कोई पुस्तक नहीं?होवे कठे सूं ? बिचारी मारवाड़ी बोली की तरफ कोई को भी लक्ष्य नहीं’
एक ओर मारवाड़ी भाषा में पुस्तकों का गंभीर अभाव तो दूसरी ओर मारवाड़ी समाज में फैली कुरीतियाँ और अंधविश्वासों का मकडजाल दूसरे समाज के लोग मारवाड़ियों को घृणा की नज़र से देखते ‘कनक सुन्दर’ उपन्यास की भूमिका में भरतिया जी लिखतें हैं – “ममोई और बीं का आजु बाजु का प्रांत मांहे ‘मारवाड़ी’ ये चार अक्षर इतना सुगला और घृणित हो रया छै के ‘श्यालक’ यहूदी रे नांव रा अक्षर भी इणरे आगे कुछ नहीं उठी ने हल्का आदमी रि उपमा ‘हां पक्का मारवाड़ी आहे’ अर्थात ओ पक्को मारवाड़ी छै, इशी हो रही छै” मारवाड़ी भाषा और मारवाड़ी समाज की इस स्थिति ने चिंतन प्रधान भारतिया जी का ध्यान आकर्षित किया मारवाड़ी समाज के सुधार के लिए भरतिया जी ने मारवाड़ी भाषा में पुस्तकें लिखी, जो इस प्रकार है – केसर विलास (नाटक), 02. बुढ़ापा की सगाई (नाटक) 03. फटका जंजाल (नाटक), 04.कनकसुन्दर (उपन्यास), 05. मोत्यां की कंठी (दोहा-संग्रह), 06. वैश्य प्रबोध, 07. बोध दर्पण, 08. संगीत मानकुंवर (नाटक), 09. विश्रांत प्रवासी ये रचनाएँ आदर्शोन्मुखी है और यथार्थ के धरातल पर है इन नाटकों की प्रशंशा करते हुए महावीर प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं –“रचना इसकी बहुत ही स्वाभाविक है कहीं कहीं पढते समय , स्वाभाविकता का इतना आविर्भाव हो उठता है कि इस बात की विस्मृति हो जाती है कि यह कल्पित कथा पढ़ रहें हैं”
भारतेंदु हरीशचंद्र और शिवचंद्र भरतिया में कईं समानताएं दृष्टिगोचर होती हैं डॉ. गोविन्द शंकर शर्मा के अनुसार-‘ये समानताएं नाम,कुल,वंश जैसी उपरी परतों से प्रारम्भ होकर जीवन के प्रति दृष्टिकोण, विचारधारा एवं साहित्यिक कृतियों के गहरे धरातल तक दृष्टिगोचर होती हैं जिस प्रकार हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में भारतेंदु का अप्रतिम महत्व है और उन्हें हिंदी में नवयुग का प्रारम्भकर्ता माना जाता है उसी प्रकार भरतिया आधुनिक राजस्थानी के प्रवर्तक एवं शलाका पुरुष हैं’
भरतिया जी समाज में आदर्श की स्थापना करना चाहते थे वे अध्यात्म प्रेमी थे पर थोथे ब्राह्मणवाद और पाखण्ड के प्रबल विरोधी वे मारवाड़ी समाज में व्याप्त बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, दहेज और घूँघट की कुप्रथा के विरोधी थे उन्होंने विधवा विवाह, और नारी शिक्षा के प्रचार पर बल दिया मारवाड़ी समाज और मारवाड़ी भाषा की उन्नति के लिए तत्परता दिखाई उन्होंने भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को ससम्मान स्वीकारा उन्होंने सट्टे का विरोध किया और देश के ओद्योगिक विकास के लिए ‘स्वदेशी’ अपनाने पर जोर दिया वे सर्वधर्म समभाव के समर्थक थे कईं नयें रचनाकारों ने भरतियाजी के साहित्य को पढ़ कर लेखन प्रारम्भ किया उस काल को आधुनिक राजस्थानी साहित्य में भरतिया युग के नाम से जाना जाता है
सन 1900 में छपा नाटक ‘केसर विलास’ भरतियाजी की पहली रचना होने के साथ-साथ आधुनिक राजस्थानी का पहला नाटक है सन 1903 में छपा उपन्यास ‘कनक सुन्दर’ भी राजस्थानी की पहली औपन्यासिक कृति मानी जाती है राजस्थानी गद्य साहित्य के क्षेत्र में आधुनिक विधाओं में प्रथम रचनाकार होने के कारण शिवचंद्र भरतिया को आधुनिक राजस्थानी गद्य साहित्य का जनक माना जाता है
आधुनिक राजस्थानी गद्य–साहित्य के जनक, राजस्थानी साहित्य के भारतेंदु और युग प्रवर्तक प्रवासी राजस्थानी साहित्यकार शिवचंद्र भरतिया की मृत्यु पर महावीर प्रसाद दिवेदी ने ‘सरस्वती’ में ‘श्रीयुत शिवचंद्रजी भरतिया का परलोक गमन’ शीर्षक से लिखा-‘
हिंदी के प्रसिद्ध प्रेमी और लेखक श्रीयुत्त शिवचंद्रजी भरतिया ने 12 फरवरी ,1915 को इंदौर में अपनी मानव-लीला समाप्त कर दी”
इनकी स्मृति में राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा शिवचंद्र भरतिया गद्य पुरस्कार प्रदान किया जाता है
हिंदी और राजस्थानी भाषा में एक शताब्दी पहले लिखी गयीं भरतिया जी की रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि भरतियाजी ने जिस समाज की कल्पना अपने समय में की थी, समाज का वो रुप आज भी स्थापित नहीं हो पाया है ऐसे में भरतियाजी के साहित्य का समग्र रूप में मूल्यांकन होना और भी जरूरी हो जाता है

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नंदन के 25 वर्ष
केशव भट्टड़

‘नंदन’ देश की सांस्कृतिक राजधानी कोलकाता का ‘कला और संस्कृति’ का केन्द्र है रबिन्द्र सदन, शिशिर मंच, जीवनानंद सभागार, कोलकाता सूचना केन्द्र तथा पास ही अकैडमी ऑफ फाईन आर्ट्स आदि संस्कृति के ढेर सारे केन्द्र स्थित होने के कारण यह स्थान और यहाँ का परिवेश सही अर्थों में कला और संस्कृति के मानदंडो पर खरा उतरता है कुल मिलकर यह स्थान चतुर्दिक एक ऐसे परिवेश का निर्माण करता है जहाँ श्रेष्ठतम सृजन की आकांक्षा जन्म लेती है, पूरी भी होती है इस पूरे स्थान को बोलचाल की भाषा में नंदन केम्पस के नाम से जाना जाता है
1/1 एजेसी बोस रोड कोलकाता स्थित नंदन फिल्म केन्द्र सिनेमा के विभिन्न विभागों के बारे में जानकारी देने के उद्धेश्य से पश्चिम बंगाल सरकार के सूचना और संस्कृति विभाग द्वारा स्थापित किया गया यहाँ फिल्म निर्माण को छोड़कर फिल्मों से सम्बंधित सभी गतिविधियां आयोजित होती है तत्कालीन सुचना और संस्कृति विभाग के मंत्री और वर्तमान में पश्चिम बंगाल राज्य के मुख्यमंत्री श्री बुद्धदेव भट्टाचार्जी ने नंदन के 25 वर्ष पूरे होने पर नंदन-1 में आयोजित समारोह में कहा कि जब हम लोगों ने चलचित्र की उन्नत चर्चा की भावना को लेकर एक केन्द्र बनाने का स्वप्न देखा, जिससे आने वाली पीढ़ियों को सिनेमा की गहराई से परिचित करा सकें, मैंने मृणाल सेन, तरुण मजुमदार, सौमित्र चट्टर्जी तथा अन्य लोगों के साथ सत्यजित रॉय से संपर्क किया इस प्रकार श्री रॉय नंदन फिल्म केन्द्र के निर्माण से शुरू से जुड़े इस केन्द्र की परिकल्पना और इससे संचालित होने वाली संपूर्ण गतिविधियों की रूपरेखा लाइफ टाइम अचीवमेंट ऑस्कर अवार्ड से सम्मानित सर्वप्रिय चर्चित फिल्म निर्देशक सत्यजित रॉय ने ही बनायीं उन्होंने ही इस फिल्म संस्कृति केन्द्र का नाम नंदन रखा नंदन का प्रतीक चिन्ह भी श्री रॉय ने बनाया, जो आज विश्व के सिने प्रेमियों,निर्देशकों और तकनीशियनों में श्रधा और सम्मान से देखा जाता है 2 सितम्बर 1985 को इसका उदघाटन करते हुए सत्यजित रॉय ने कहा था कि इस केन्द्र में फिल्म निर्माण को छोड़कर सिनेमा के सभी पहलुओं का समायोजन होगा नंदन , जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- स्वर्ग, अपने तरह का इकलौता फिल्म केन्द्र है जो देश के साथ साथ विदेशों में भी चर्चित है यहाँ स्थित जलाशय को बचाते हुए जलाशय के ऊपर ही नंदन का निर्माण किया गया पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्य मंत्री ज्योति बसु ने अपने उदघाटन भाषण में कहा था कि फिल्म संस्कृति के विभिन्न अवयवों के उत्थान में कोलकाता फिल्म केन्द्र एक संस्था के रूप में योगदान देगा 1990 और 1994 में भारत सरकार द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों की शानदार मेजबानी करने के बाद 1995 से नंदन फिल्म केन्द्र पिछले 15 वर्षों से लगातार कोलकाता फिल्म महोत्सव का आयोजन कर रहा है कोलकाता फिल्म महोत्सव का आयोजन प्रति वर्ष 10 से 17 नवंबर को आयोजित किया जाता है यह फिल्म महोत्सव पेरिस स्थित फिल्म निर्माताओं की अंतर्राष्ट्रीय परिषद से मान्यता प्राप्त है
नंदन फिल्म केन्द्र के प्रमुख कार्य हैं – भारत और विदेशों में बनी महत्वपूर्ण फिल्मों का प्रदर्शन, नयी फ़िल्में प्रदर्शित कर सरकार के लिए राजस्व एकत्रित करना, फिल्म महोत्सव और फिल्म पुनःरावलोकन के कर्यक्रम आयोजित करना, फिल्मों से सम्बंधित प्रदर्शनियां और पुस्तक प्रकाशन, संगोष्ठियां , परिचर्चा, वार्तालाप और वार्षिक संभाषण का आयोजन, फिल्मों से सम्बंधित शिक्षा का प्रसार करना, शोध और संग्रहालय, विश्व की सिनेमा से सम्बंधित सर्वश्रेष्ठ किताबों और पत्रिकाओं का पुस्तकालय चलाना, ऋत्विक स्मृति ग्रंथागार और सत्यजित रॉय अर्काईव (जिन्हें नये भवन में स्थान्तरित किया गया है) का संचालन आदि
नंदन प्रेक्षालय में दर्शकों के लिए तीन हॉल हैं जिसमे नंदन-1 , जिसकी क्षमता 970 दर्शकों की है, देश भर में व्यावसायिक फिल्म प्रदर्शन के लिए बेहतरीन माना जाता है नंदन-2 में, जिसकी क्षमता 210 दर्शकों की है, 35 एमएम तथा 16 एमएम फिल्मों के प्रदर्शन की व्यवस्था है और नंदन-3 में, जिसकी क्षमता 110 दर्शकों की है, 35 एमएम, 16 एमएम , विडियो और डीवीडी के प्रदर्शन की व्यवस्था है जहाँ नंदन -1 का उपयोग राजस्व प्राप्ति के उद्धेश्य से किया जाता है, वहीँ नंदन-2 और नंदन-3 का उपयोग फिल्म संस्कृति के उत्थान और प्रोत्साहन के लिए किया जाता है इस उद्धेश्य के लिए नंदन-2 और नंदन-3 के भाड़े पर विशेष छूट भी दी जाति है इसके अलावा नंदन-4 है जिसका उपयोग संवाददाता सम्मेलन, प्रदर्शनियां , पुस्तक विमोचन आदि कार्यों के लिए किया जाता है
मल्टीफ्लेक्स के आज के दौर को देखते हुए कह सकते हैं की कोलकाता में इसकी शुरुआत 25 वर्ष पहले नंदन से हुई 2 सितम्बर 2010 को नंदन के 25 वर्ष पूरे होने पर पश्चिम बंगाल सरकार, सूचना और संस्कृति विभाग, नंदन के पदाधिकारी, कर्मचारी, संस्कृति कर्मियों और नंदन प्रेमियों को हार्दिक बधाई
नंदन फिल्म केन्द्र सिनेमा और इससे जुड़े सम्मानीय व्यक्तित्वों से सम्बंधित पुस्तकों का प्रकाशन भी करता है- बंगाली फिल्म डाईरेक्टरी, सिनेमा के 100 वर्ष, बांग्ला सिनेमा के 70 वर्ष, मृणाल सेन, सत्यजित रॉय पर आलोचना आदि पुस्तकों का प्रकाशन उल्लेखनीय है 1991 से नंदन बुलेटिन पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ जो बीच में कुछ वर्षों तक बन्द रहने के बाद 2007 से फिर शुरू किया गया नंदन, पश्चिम बंगाल फिल्म सेण्टर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी नीलांजन चट्टर्जी का कहना है कि इस त्रैमासिक पत्रिका को फिल्म प्रेमियों, फिल्म समीक्षकों-आलोचकों और साधारण पाठकों की ढेर सारी प्रशंसा मिली है सिनेमा से सम्बंधित पुस्तकालय और वृतचित्रों के निर्माण की कार्यशालाएं यहाँ आयोजित होती रहती है सिनेमा से सम्बंधित विषयों के प्रशिक्षण की यहाँ व्यवस्था है
श्री चट्टर्जी ने नंदन फिल्म केन्द्र की आय का ब्यौरा देते हुए बताया कि नंदन-1 और नंदन-2 से व्यावसायिक फिल्म प्रदर्शन और हॉल भाड़े से प्राप्त इस वर्ष मार्च तक की कुल आय 1,51,68,880.00 रुपये थी जिसमे से 16,98,300.00 रुपये कर के मद में सरकार को दिए गये
नंदन फिल्म केन्द्र से हिंदी में एक भी प्रकाशन नहीं होने की वजह से हिंदी भाषियों का जुडाव यहाँ अपेक्षा के अनुरूप नहीं है नंदन में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के चर्चित आयोजन हुए हैं भारतीय भाषाओँ की फिल्मों को लेकर फिल्म महोत्सव का आयोजन भी यहाँ होगा, ऐसी आशा है हिंदी अखबारों में नंदन के कार्यक्रमों के विज्ञापन नहीं आने की वजह से सिने-प्रेमियों का एक बड़ा भाग इसका लाभ उठाने से वंचित रह जाता है मेरा मानना है और यही सही है कि संस्कृति लोगों को जोड़ने का काम करती है फिल्म निर्देशक गौतम घोष कहते हैं – “ नंदन हमारी 3 पीढ़ियों से जुड़ा है यह आनंद की, गर्व की जगह है” नंदन फिल्म केन्द्र के सभापति तरुण मजुमदार ठीक ही कहते हैं कि इस राज्य में गर्व करने के जो भी स्थान है, नंदन उनमे सर्वोपरि है नंदन संस्कृतियों का नंदन-कानन बने और देश के अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा स्त्रोत्त भी, सभी को मिलकर यह प्रयास करना होगा

Keshava Bhattar
9330919201

धारा के विरुद्ध रमण माहेश्वरी
केशव भट्टड़

अपने जीवन के 84 वें वसंत की दहलीज पर खड़े रमण माहेश्वरी के बारे में कुछ भी कहना या लिखना सूरज को दीपक दिखाना है सिद्धांतों की प्रतिबद्धता के साथ सतत संस्कृति कर्मी का दायित्व निभाने वाले रमण माहेश्वरी अपने राजनीतिक दल के अनुशाषित सिपाही रहें है, और आज भी हैं वे एक सच्चे मित्र, अभिभावक, नेता होने के साथ साथ नाट्य संस्कृति को समर्पित एक गंभीर व्यक्तित्व है उनके द्वारा बांग्ला में प्रकाशित ग्रुप थियेटर नाट्य पत्रिका पश्चिम बंगाल के सांस्कृतिक परिवेश को समृद्ध करने वाला हस्तक्षेप है स्वर्गीय नीलकंठ सेनगुप्त के शब्दों में “आज ग्रुप थियेटर पत्रिका ने बांग्ला नाट्य चर्चा के क्षेत्र में प्रायः प्रतिनिधित्व करने का जो स्थान हासिल किया है, उसके पिछे रमण माहेश्वरी एक विशाल वटवृक्ष के रूप में खड़े हैं” (धारा के विरुद्ध, पृष्ठ 113) राजस्थानी मूल के रमण माहेश्वरी को बांग्ला भाषा और सांस्कृतिक संस्कार हावड़ा जिले के बंगाली संस्कृति में रचे-बसे राजगंज स्थित अपने ननिहाल से मिले गुरु (मारजा) पाठशाला में प्रारम्भिक शिक्षा के बाद माहेश्वरी विद्यालय में स्कूली शिक्षा नाम मात्र की ही हुई जनकवि हरीश भादानी के शब्दों में – “मेरे मित्र रमण माहेश्वरी ने औपचारिक शिक्षा की ब मुश्किल दो-तीन सीढियाँ ही चढ़कर कार्यक्षेत्र की सड़क अपना ली व्यापार की गद्दी में भी पढना, मित्रों में बैठकर सुनना समझनाइस क्रम में रमण माहेश्वरी को अपनी विचारधारा और राजनीतिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी ने शिक्षित अवश्य कर दिया (वही,पृष्ठ 67) ” 14 वर्ष की आयु में सन 1941 में विवाह बंधन में बांधे गये रमण माहेश्वरी कोलकाता के बड़ाबाजार में व्यवसाय (गद्दी) व घर की जिम्मेदारियों को निभाने के बाद बचे समय में साहित्यिक-राजनीतिक चर्चा के उद्धेश्य से पोस्ता के नजदीक फ्रेंड्स यूनियन क्लब से जुड़े वहाँ इनके प्रमुख साथी थे कवि शंकर माहेश्वरी, जमुना लाल दमानी और एस. नारायण दमानी इन सभी को हिंदी साहित्य की और ले जाने वाले व्यक्ति थे कलकत्ता के सुरेन्द्रनाथ कालेज के हिंदी विद्वान प्रो. जमुना शंकर चौबे हिंदी में राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, प्रेमचंद, रागेयराघव, धर्मवीर भारती, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी, उपेन्द्रनाथ अश्क को पढ़ने वाले रमण माहेश्वरी को बांग्ला में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय और रवींद्रनाथ टैगोर ने न सिर्फ प्रभावित किया बल्कि प्रशिक्षित भी किया जैसा की रमण माहेश्वरी के बेटे और आलोचक-लेखक अरुण माहेश्वरी कहतें हैं - “हम जिस परिवार से आते हैं, जिसके मुखिया बाबु (रमण माहेश्वरी) रहें है, उसकी अपनी एक अलग ही सरंचना है यह कम अनोखी बात नहीं है कि पूरे पश्चिम बंगाल में अकेला यही एक मारवाड़ी व्यावसायिक परिवार है,जिसने यहाँ की वामपंथी राजनीति और संस्कृति से अपने को नैसर्गिक रूप से जोड़ने का प्रयास किया है बाबु ने लगभग एक जिद की हद तक साहित्य और बौद्धिकता के संस्कारों को अपनाने की कोशिश की जो व्यवसाय और बनियागिरी के संस्कारों से एक संपूर्ण विद्रोह कि कोशिश कही जा सकती है व्यवसाय नहीं छोड़ेंगे लेकिन व्यवसाय के संस्कार छोड़ेंगे जीवन में व्यवसाय सिर्फ जीविका-यापन तक ही सिमित रहेगा, बाकि का समुचा खाली समय राजनीति, साहित्य और संस्कृति की प्रगतिशील परंपरा से जुड़े लोगों के साथ ही बीतेगा कोई भी ऐसे एक मुखिया के परिवार में मिलने वाले संस्कारों और विश्वासों का सहज ही अंदाज़ लगा सकता है यह प्रचलित मूल्यों और संस्कारों के संपूर्ण निषेध का संस्कार था (जैसा की पाब्लो नेरुदा कहते हैं- “मैं अपनी जड़ों से टूटकर अलग हुआ / मेरा देश अपने आकार में बड़ा हुआ”) वे आज भी जिस निष्ठा और लगन के साथ ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्रकाशन में लगे हुए हें , वह सचमुच गौर करने लायक है (वही, पृष्ठ 60)” 2005 में शिउडी के रवीन्द्र सदन में ‘थियेटर अभियान” के अंतर्गत रमण माहेश्वरी का अभिनन्दन करने वाले रंगकर्मी सुविनय दास लिखते हैं – “आज हम अपने को गर्वित महसूस कर रहें हैं उन्होंने हमारे निमंत्रण को स्वीकारा तथा शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद कोलकाता से शिउडी आये उस दिन के उनके व्यक्तव्य ने उपस्थित नाट्य प्रेमियों तथा नाट्य कर्मियों को पूरी तरह अनुप्रेरित किया वे एक स्पष्ट वक्ता तथा अनुशासन प्रिय व्यक्ति हैं बहुत दिनों से कई दृष्टिकोण से उनको देखते रहने पर मुझे लगा कि रमण माहेश्वरी एक ईमानदार,समझदार मेहनती व्यक्ति हैं वे सिर्फ एक व्यापारी ही नहीं है, बांग्ला नाटकों के प्रचार प्रसार तथा नाट्य आंदोलन के एक कुशल सैनिक भी हैं” (वही,पृष्ठ 115) बीकानेर शहर के ‘साले की होली’ मोहल्ला में पिता छगनलाल धनानी का पुस्तैनी मकान आज भी , खँडहर रूप में ही सही, यादों को संजोये हुए खड़ा है “मैंने अपने आप को बंगाल का वासी माना, प्रवासी नहीं आप कहीं भी रहो, स्थानीय भाषा से आपका जुड़ना जरूरी है बांग्ला भाषा से जुडाव होने पर यहाँ के साहित्य और संस्कृति से भी सही परिचय हुआ नाटक एक संपूर्ण कला है और संस्कृति का दर्पण भी नाटक देखने और पढ़ने की आदत का हिंदी में प्रचलन नहीं के बराबर था कलकत्ता में श्यामा नन्द जालान नाटक करते थे लेकिन उन दिनों कुल मिलाकर हिंदी नाटक किसी गिनती में नहीं आते थे इसलिए हमने बांग्ला में ग्रुप थियेटर पत्रिका निकलीहिंदी नाटकों में स्थिरता नहीं है जो कर लो वही सही हिंदी में नये लोगों में इधर उमा झुनझुनवाला-अजहर आलम गंभीर और अच्छा काम कर रहें हैं”रमण माहेश्वरी कहते हैं ऋत्विक घटक को श्रेष्ठतम फिल्म निर्देशक मानने वाले रमण माहेश्वरी ने ‘बोगुलार बंगदर्शन’ फिल्म के लिए उन्हें पूना से बुलाकर आर्थिक सहयोग दिया वे राजनीतिज्ञों में नेहरु को दूरदर्शी नेता मानते हैं वे कहते हैं कि नेहरु ने जो बनाया बाद वाले उसे बेचने में लगे हुए हैं ज्योति बसु के साथ अपनापन के रिश्ते पर वह कहते हैं - “हमारे बीच निष्पक्ष उचित-अनुचित की चर्चा होती रहती थी मेरा मानना रहा की आदर्शविहीन जीवन विवेक-शून्यता के अलावा कुछ नहीं होता है किसी भी प्रकार के अंधानुकरण से मैं आजीवन बचा रहा” श्री हर्ष लिखतें हैं कि “रमण जी के व्यक्तित्व का मानवीय पक्ष उनके राजनितिक हठ से टकराता हुआ चलता है वे सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं करते लेकिन अपने मानवीय व्यवहार को कमज़ोर भी नहीं होने देते अपने सिद्धांतों पर अटल हैं रमण जी (वही,पृष्ठ 72) ” जैसा की रमण माहेश्वरी की बेटी और उनके व्यक्तित्व पर आधारित धारा के विरुद्ध की संपादक दुर्गा डागा लिखती हैं – “ पिता के समय समय पर उठाये गये क्रन्तिकारी कदमों के साथ बाई (माँ) ने इस तरह तालमेल बैठा लिया था कि जीवन सहजता से चलता रहा बाबु पूरी तरह से कट्टर नास्तिक और घर या बाहर किसी भी तरह की पूजा आदि से दूर-दूर का कोई लेन-देन नहीं लेकिन जीवन के प्रति घोर आस्था के चलते कभी उनका रुख नकारात्मक नहीं रहा उनकी नास्तिकता जंगखाए अंधविश्वासों के प्रति एक जंग के रूप में सामने आई (वही,पृष्ठ 8) ” धार्मिक आडम्बरों से दूर रहने वाले, पर्दा प्रथा का विरोध करने वाले ,स्त्री शिक्षा और मानव मात्र के सर्वांगीण उत्थान के मुखर पक्षधर रमण माहेश्वरी ने व्यवसाय में धर्मादे की प्रथा को बन्द किया अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता, प्रगतिशील वस्तुवादी दृष्टिकोण तथा वामपंथी नैतिकता के चलते जीवन में कई साहसी कदम उठाने वाले और रुढियों के विरुद्ध क्रन्तिकारी फैसले लेने वाले रमण माहेश्वरी ने अंतिम संकल्प के रूप में अपनी देह दान करने का निश्चय किया है ”वैसे तो मेरी उम्र 80 को पार कर गई है बिमारियों से जर्जर शरीर अंग चिकित्सकों के शोध कार्य में कितना काम आ सकेगा, यह कहना मेरे लिए कठिन है पर धार्मिक कुसंस्कारों और कर्मकांडो के खिलाफ मेरा यह फैसला मेरी लड़ाई का अंतिम चरण होगा जिसे मैं जीतने को प्रतिबद्ध हूँ अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक संस्कारों के खिलाफ यह मेरी आखिरी मुहीम होगी” (वही,पृष्ठ 36) विचारों पर दृढ़ रहना और तदानुसार अपने जीवन और परिवार को ढालना और उन्ही में रमजाना रमण माहेश्वरी को निसंदेह औरों से अलग व्यक्तित्व प्रदान करता है आनेवाले युग को यह मशाल अपने विचारों से आलोकित करती रहे, यही कामना है

एक अनोखा संग्रहालय नाटकों का: ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका

नाटक एक संपूर्ण कला है इसमें कथा-काल के अनुसार अभिनय,गीत,संगीत,पौशाक, साज-सज्जा-सजावट, आभूषण, वार्तालाप इत्यादि कई घटकों का जीवंत सम्मिश्रण रहता है नाटक अपने आप में कला और संस्कृति का साक्षात्कार है यह सर्वविदित है कि पश्चिम बंगाल राज्य के सांस्कृतिक परिवेश में नाटकों का स्थान महत्वपूर्ण है इतनी संख्या में विभिन्न जगहों पर मंचित होने वाले नाटकों का संकलन और प्रकाशन करने के लिए तीन महीनों के अंतराल से प्रकाशित होने वाली ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका लेकर रमण माहेश्वरी सामने आये पश्चिम बंगाल के नाट्य-सांस्कृति के माहौल में प्रकाशन की यह एक नयी और बड़ी घटना थी, संभवतः पहली भी, जिसके नेपथ्य में एक राजस्थानी मूल का व्यक्ति खड़ा था आलोचक विमल वर्मा लिखतें हैं-“शोषक,-दमनात्मक-भेदभावपूर्ण मूल्यों, व्यवहारों, रीतिरिवाजों ,अंधविश्वासों के विरुद्ध और वैज्ञानिक ज्ञान के लिए संघर्ष की अनिवार्यताओं ने रमण जी को नाटक की पत्रिका ‘ग्रुप थियेटर’ के प्रकाशन के लिए उत्प्रेरित किया ”(धारा के विरुद्ध, पृष्ठ 80) 14 अगस्त 1978 को पहले अंक का अनौपचारिक विमोचन रमण माहेश्वरी और बांग्ला नाट्य अकादमी की पत्रिका के यशश्वी संपादक तथा नाट्य जगत के ख्यातिलब्ध आलोचक नृपेन साहा ने अत्यंत सादगी पूर्ण तरीके से विशिष्ट मेहमानों और विद्वानों की उपस्थिति में थियेटर कम्यून के ‘दानसागर’ नाटक के अवसर पर किया नयी पत्रिका के प्रचार-प्रसार के लिए इसके पोस्टर दीवारों पर स्वयं रमण माहेश्वरी और उनके साथियों नृपेन साहा और निखिल रंजन दास ने लगाये अरुण मुख़र्जी लिखते हैं-“ समय-समय पर ग्रुप थियेटर पत्रिका के संपादक भले ही बदले हैं, लेकिन पत्रिका के मुख्या कर्ता-धर्ता हमेशा रमण माहेश्वरी ही रहे” (वही,पृष्ठ 121) कालांतर में ग्रुप थियेटर पत्रिका से मची हलचल नें बंगाल के पूरे नाट्य क्षेत्र में एक आंदोलन का माहौल तैयार किया पत्रिका ने बड़े सुनियोजित तरीके से बंगाल के जिले-जिले में बिखरे नाट्य समूहों और उनके कार्यों को कलकत्ता के पाठकों तथा दर्शकों से जोड़ा छोटे-छोटे शहरों के नाट्य कर्मियों का परिचय महानगर के लोगों से हुआ और महानगर के नाट्य कर्मियों को दूर-दराज़ जिले-कस्बों में कर्मरत रंग कर्मियों और नाट्य प्रेमियों के करीब आने का मौका मिला पिछले 30 सालों में ग्रुप थियेटर में 538 एकांकी और 122 पूर्णांग नाटक छपे हैं पूरे बंगाल में फैले पाठक समाज के लिए लगातार 32 सालों से प्रकाशित हो रही ग्रुप थियेटर पत्रिका अपने आप में बंगाल के नाटकों का पुस्तकाकार ही सही ,एक विश्वनीय संग्रहालय है भविष्य में बंगाल के नाटकों पर शोध करने वालों के लिए ग्रुप थियेटर पत्रिका एक आवश्यक उपकरण साबित होगी निखिल रंजन दास लिखते हैं – “ कभी-कभी तो लगता है ग्रुप थियेटर भी रमण जी की एक और संतान है इस पत्रिका को प्रगतिशील संस्कृति की दुनिया में महत्वपूर्ण भूमिका का पालन करने में एक सशक्त माध्यम के रूप में बचाए रखना , इस काम को और अधिक प्रसारित करना ही रमण जी का मूल लक्ष्य है” (वही,पृष्ठ 136) इंद्रनाथ बंदोपाध्याय लिखतें हैं कि “ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्रसार के पीछे उनके (रमण जी) अदम्य साहस, चिंता,सक्रिय उद्योग के साथ ही उनका गंभीर जीवन बोध,वस्तुवादी जीवन दर्शन तथा नाटकों के प्रति उनका लगाव ही रहा है....विज्ञान का नियम है कि एक न एक दिन , आगे या पीछे इस धरती को छोड़ हमें जाना ही है किन्तु बंग्ला नाट्य आंदोलन तथा नाट्य पत्रिकाओं में ग्रुप थियेटर और रमण जी का नाम आज जैसे पहली पंक्ति में है भविष्य में उसी तरह रहेगा क्योंकि जिस तरह कटहल के रेशे के चेप से छूटा नहीं जा सकता उसी तरह बांग्ला नाटकों की दुनिया से रमण जी का नाम अलग नहीं किया जा सकता ”(वही, पृष्ठ 89,91) शिशिर चौधरी लिखतें है-“ ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्राण पुरुष ! आपको रक्तिम अभिनन्दन बांग्ला नाट्य पत्रिकाओं का इतिहास आपके निश्वार्थ अवदान तथा प्रेरणा को सदा याद रखेगा”(वही,पृष्ठ 122)


एक अनोखा नाट्य संग्रहालय : ग्रुप थियेटर पत्रिका

नाटक एक संपूर्ण कला है इसमें कथा-काल के अनुसार अभिनय,गीत,संगीत,पौशाक, साज-सज्जा-सजावट, आभूषण, वार्तालाप इत्यादि कई घटकों का जिवंत सम्मिश्रण रहता है नाटक अपने आप में कला और संस्कृति का साक्षात्कार है यह सर्वविदित है कि पश्चिम बंगाल के सांस्कृतिक परिवेश में नाटकों का स्थान महत्वपूर्ण है इतनी संख्या में विभिन्न जगहों पर मंचित होने वाले नाटकों का संकलन और प्रकाशन करने के लिए तीन महीनों के अंतराल से प्रकाशित होने वाली ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका लेकर रमण माहेश्वरी (देखें बॉक्स ) सामने आये पश्चिम बंगाल के नाट्य-सांस्कृति के माहौल में प्रकाशन की यह एक नयी और बड़ी घटना थी, संभवतः पहली भी, जिसके नेपथ्य में एक राजस्थानी मूल का व्यक्ति खड़ा था आलोचक-लेखक विमल वर्मा लिखतें हैं-“शोषक,-दमनात्मक-भेदभावपूर्ण मूल्यों, व्यवहारों, रीतिरिवाजों ,अंधविश्वासों के विरुद्ध और वैज्ञानिक ज्ञान के लिए संघर्ष की अनिवार्यताओं ने रमण जी को नाटक की पत्रिका ‘ग्रुप थियेटर’ के प्रकाशन के लिए उत्प्रेरित किया” 14 अगस्त 1978 को पहले अंक का अनौपचारिक विमोचन रमण माहेश्वरी और नृपेन साहा ने अत्यंत सादगी पूर्ण तरीके से विशिष्ट मेहमानों और विद्वानों की उपस्थिति में थियेटर कम्यून के ‘दानसागर’ नाटक के अवसर पर किया नयी पत्रिका के प्रचार-प्रसार के लिए इसके पोस्टर दीवारों पर स्वयं रमण माहेश्वरी और उनके साथियों नृपेन साहा और निखिल रंजन दास ने लगाये कालांतर में ग्रुप थियेटर पत्रिका से मची हलचल नें बंगाल के पूरे नाट्य क्षेत्र में एक आंदोलन का माहौल तैयार किया पत्रिका ने बड़े सुनियोजित तरीके से बंगाल के जिले-जिले में बिखरे नाट्य समूहों और उनके कार्यों को कलकत्ता के पाठकों तथा दर्शकों से जोड़ा छोटे-छोटे शहरों के नाट्य कर्मियों का परिचय महानगर के लोगों से हुआ और महानगर के नाट्य कर्मियों को दूर-दराज़ जिले-कस्बों में कर्मरत नाट्य कर्मियों के करीब आने का मौका मिला पिछले 30 सालों में ग्रुप थियेटर में 538 एकांकी और 122 पूर्णांग नाटक छपे हैं पूरे बंगाल में फैले पाठक समाज के लिए लगातार 32 सालों से प्रकाशित हो रही ग्रुप थियेटर पत्रिका अपने आप में बंगाल के नाटकों का पुस्तकाकार ही सही ,एक विश्वनीय संग्रहालय है भविष्य में बंगाल के नाटकों पर शोध करने वालों के लिए ग्रुप थियेटर पत्रिका एक आवश्यक उपकरण साबित होगी इंद्रनाथ बंदोपाध्याय लिखतें हैं कि ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्रसार के पीछे उनके (रमण जी) अदम्य साहस, चिंता,सक्रिय उद्योग के साथ ही उनका गंभीर जीवन बोध,वस्तुवादी जीवन दर्शन तथा नाटकों के प्रति उनका लगाव ही रहा है शिशिर चौधरी लिखतें है-“ ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्राण पुरुष ! आपको रक्तिम अभिनन्दन बांग्ला नाट्य पत्रिकाओं का इतिहास आपके निश्वार्थ अवदान तथा प्रेरणा को सदा याद रखेगा”

(धारा के विरुद्ध, संपादक-दुर्गा डागा, ग्रुपथियेटर प्रकाशन,कोलकाता और श्री रमण माहेश्वरी से बातचीत पर आधारित)

कोलकाता के संग्रहालय
केशव भट्टड़

संस्कृतियों का जन्म और विकास का क्रम समझने के लिए संग्रहालयों का परिभ्रमण एक कारगार जरिया है भूत की कोख से जन्म लेकर वर्तमान अपनी परिस्थितियों से भविष्य का निर्माण करता है और समय गति के साथ भविष्य पुनः भूतकाल में बदल जाता है इस समय-यात्रा के मानचित्र तथ्य और नमूनों के रूप में संग्रहालयों में सुरक्षित रखें जाते हैं कालांतर में यही मान-चित्र सूचि बद्ध होकर, व्यवस्थित होकर क्रमशः इतिहास बनाते हैं संस्कृति हमेशा समय साक्षेप होती है संग्रहालयों और उनके पुस्तकालयों के जरिये अन्यान्य तथ्यों के साथ स्थानीय, प्रादेशिक, देशिक तथा वैश्विक ‘कला और संस्कृति’ के आधारभूत अवयवों की जानकारी भी मिलती है


सेंट्रल म्यूजियम
विशेष रूप से यह एक मानव जाति सम्बन्धी संग्रहालय है जिसमें भारतीय आदिवासियों और अन्य जाति समूहों के व्यवहार में आने वाली वस्तुओं के नमूने संगृहीत हैं विभिन्न विषयों और विभिन्न समानों के कारण प्रदर्शित वस्तुओं का संग्रह महत्वपूर्ण है
पता है- सेंट्रल म्यूजियम, अन्थ्रोपोलोजीकल सर्वे ऑफ इंडिया, 2 रिपन स्ट्रीट, कोलकाता

आशुतोष म्यूजियम ऑफ इंडियन आर्ट्स
यहाँ पाल और सेन युग कालीन हिंदू और बौद्ध पद्धति के असिताश्म मूर्तिकला का विराट संग्रह है सख्त चिकनी मिट्टी से बने विष्णुपुर क्षेत्र के मंदिरों के फलक और चौखटें यहाँ प्रदर्शित है बंगाल की शैली में चित्रित परदे, ताश, भोजपत्र पर अंकित पांडुलिपियाँ , रीति रिवाज से सम्बंधित सामान, गुडियां एवं अन्य खिलौनों का भी यहाँ दिलचस्प संग्रह हैं कपड़ों से सम्बंधित संग्रह में तत्कालीन कसीदाकारी के कपडे, साधारण कपडे, रजाइयां, और बलूचर की अनोखी सुन्दर साडियां प्रदर्शित है पता है- आशुतोष म्यूजियम ऑफ इंडियन आर्ट्स, शतवार्षिकी भवन, कलकत्ता -विश्वविद्यालय,कोलकाता

एग्री-होर्टीकल्चरल सोसाइटी ऑफ इंडिया
1820 में स्थापित एग्री-होर्टीकल्चरल सोसाइटी ऑफ इंडिया में छोटे पेड़ों को हरा रखने का घर, फूलों का बगीचा, अनुसंधानशाला और पुस्तकालय है यहाँ बागवानी (उद्यान विज्ञान) की शिक्षा की व्यवस्था है यहाँ हर वर्ष एक पुष्प प्रदर्शनी का आयोजन होता है पता है- 1 अलीपुर रोड, कोलकाता भ्रमण का समय सुबह 7 से 11 और दोपहर बाद 3 से 5 बजे तक है

बंगीय साहित्य परिषद चित्रशाला
1910 में स्थापित बंगीय साहित्य परिषद चित्रशाला में मध्यकालीन प्रस्तर और धातु की मूर्तियां, पांडुलिपियाँ, प्रसिद्ध बंगाली साहित्यकारों के पत्र, कला और पुरातत्व कारीगरी के नमूने प्रदर्शित है जो बंगाल के इतिहास और संस्कृति पर प्रकाश डालते हैं पता है- 243/1 आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रोड, कोलकाता भ्रमण का समय, गुरुवार और मान्य छुट्टियों को छोडकर, दिन के 1 से सायं 7 बजे तक है

विक्टोरिया मेमोरियल म्यूजियम
चित्ताकर्षक विक्टोरिया मेमोरियल में मुख्यतया ब्रिटिश औपनिवेशिक कालीन चित्रों का संग्रह है 1921 में खुले इस म्युजियम में आंगुतकों का स्वागत सर थामस ब्रोक्क द्वारा बनायी गई विक्टोरिया की आदम-कद प्रतिमा से होता है महारानी विक्टोरिया के घटना प्रधान लंबे जीवन और शाषन से संबंधित महत्वपूर्ण तैलीय चित्रों की प्रदर्शनी रायल गैलेरी में है 1876 में किंग एडवर्ड (सातवें) के जयपुर प्रवेश पर आधारित एक विशाल पेंटिंग भी यहाँ है क्लाईव और अन्य गवर्नरों के चित्र, सम्बंधित पुस्तकें और ढेरों हस्त-चित्र यहाँ प्रदर्शित हैं पता है- विक्टोरिया मेमोरियल म्यूजियम, क्वीन्स वे, कोलकाता

गवर्नमेंट इंडस्ट्रियल एंड कोमर्सियल म्यूजियम
गवर्नमेंट इंडस्ट्रियल एंड कोमर्सियल म्यूजियम की स्थापना 1939 में हुई आठ खंडों में फैले इस संग्रहालय में हथकरघे, लघु और कुटीर उद्योग से निर्मित सामान, टेक्सटाइल्स, गुडिया और खिलौने, व्यावसायिक उत्पाद, सांख्यकी-रेखांकन, सांचे आदि प्रदर्शित हैं यहाँ एक पुस्ताकालय और वाचनालय स्थित है यहाँ की प्रमुख गतिविधियों में प्रदर्शनियों और निर्देशन-व्याखानमालाओं के आयोजन तथा विशेष परिचर्चाओं का आयोजन शामिल है पता है- 45 गणेश चंद्र एवेन्यू, कोलकाता भ्रमण का समय शनिवार को दिन के 10 से 1 बजे तक तथा मान्य छुट्टियों को छोड़कर सप्ताह के सभी दिन 10:30 से शाम के 5:30 बजे तक है

क्राफ्ट्स म्युजियम
शिल्प कला संग्रहालय की स्थापना 1950 में हुई इसे पहले इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट इन इंडस्ट्री कहा जाता था यहाँ भारत के विभिन्न प्रदेशों पश्चिम बंगाल, राजस्थान, आसाम, त्रिपुरा,महाराष्ट्र, यु.पी. , हरियाणा , गुजरात और तमिलनाडु के ग्रामीण अंचलों के हाथीदांत, धातु और कपड़े के बाने सामानों के नमूनें प्रदर्शित हैं यहाँ एक उन्नत पुस्तकालय भी है छायाचित्रों का विशाल संग्रह यहाँ सुरक्षित है पता है- 9-12 , ओल्ड कोर्ट हाउस स्ट्रीट , कोलकाता मान्य छुट्टियों को छोड़कर सप्ताह के सभी दिन सुबह 10 बजे से लेकर सायं 5 बजे तक यह खुला रहता है

एथनोग्राफीक म्यूजियम
समुदाय-विज्ञान पर आधारित सामुदायिक संग्रहालय की स्थापना 1955 में कल्चरल रिसर्च इंस्टीट्युट, पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा की गई शिकार और मछली पकड़ने के औज़ार, कपड़े, आभूषण, बर्तन, लकड़ी के सजावटी सामान, बुनाई-कढ़ाई के औज़ारों के साथ धर्म और संप्रदाय पर सामग्री प्रदर्शित है जादूगरी दिखाने के काम आने वाले सामानों का अच्छा संग्रह है राज्य के आदिवासियों के जीवन से साम्बान्धित छायाचित्र और उनके लोक-संगीत के टेप रिकॉर्ड यहाँ सुरक्षित हैं पता है- कल्चरल रिसर्च इंस्टीट्युट, ट्राईबल वेलफेयर डेवलपमेंट,पश्चिम बंगाल सरकार , न्यू सेक्रेट्रीयट बिल्डिंग , 1 किरण शंकर रॉय रोड, कोलकाता समय दिन के 10:30 से 5 बजे तक सभी कार्य दिवस

बिरला इंडस्ट्रीयल एंड टेक्नोलोजिकल म्युजियम
विज्ञानिक और उद्योगिक शोध परिषद ( काउन्सिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च) द्वरा निर्मित, बुनियादी विज्ञान और तकनीक के संग्रहालय बिरला इंडस्ट्रीयल एंड टेक्नोलोजिकल म्युजियम की स्थापना 1956 में हुई यहाँ म्यूजियम में स्वयं अभिकल्पित, रूपांकित और स्वनिर्मित लोहा एवं लोह-अयस्क के सामान, विद्युतीय विज्ञान, नाभिकीय विज्ञान ,प्रकाश विज्ञान ,प्रेरक बल विज्ञान , संचार विज्ञान और खनन विज्ञान के ढेर सारे सामान विभिन्न दीर्घाओं में प्रदर्शित हैं प्रकाश विज्ञान दीर्घा सबसे ज्यादा दर्शकों को आकर्षित करती है यहाँ की मुख्य गतिविधियों में विषयगत फिल्मों का प्रदर्शन, विशेषज्ञों के भाषण-संबोधन, शौकिया वैज्ञानिक गतिविधियां, टेलीस्कोप से नभ-दर्शन के सम-सामयिक कार्यक्रम हैं ग्रामीण क्षेत्रों में विज्ञानी चेतना के लिए गाड़ियां भेजी जाती हैं मालदा और पुरुलिया के क्षेत्रीय विज्ञान म्यूजियम इसके अंतर्गत कार्यरत हैं पता है-19 ए, गुरुसदय रोड, कोलकाता यह मंगलवार और रविवार को दर्शकों के लिए खुला रहता है भ्रमण का समय दिन के 10 बजे से लेकर शाम के 5:30 बजे तक है

रबिन्द्र भारती म्यूजियम
रबिन्द्र भारती विश्वविद्यालय से सम्बंधित रबिन्द्र भारती म्यूजियम की स्थापना गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर के पैतृक निवास में सन 1961 ई. में हुई 19 वीं सदी के बंगाल के पुनर्जागरण काल में टैगोर परिवार के योगदान , रबिन्द्रनाथ और उनका रचना संसार , पेंटिंग्स की मूलप्रतियाँ, किताबों का भण्डार, पांडुलिपियाँ , छायाचित्र और 19 सदी के अन्यान्य महापुरुषों जैसे इस्वरचंद्र विद्यासागर, द्वारकानाथ टैगोर आदि से सम्बंधित सामग्री प्रचुर मात्र में प्रदर्शित है विशेष अवसरों पर सायं 7 से 8 बजे तक खुलने वाला यह म्यूजियम रविवार और छुट्टियों के दिन 11 से 2 बजे तक तथा साधारण कार्य दिवसों को दिन के 10 से सायं 7 बजे तक खुला रहता है पता है – 6/4 द्वारकानाथ टैगोर लेन, जोड़ासाकों, कोलकाता

नेताजी म्यूजियम
नेताजी बोस से सम्बंधित पुस्तकें, चित्र और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े पत्र और अन्य दस्तावेज़ नेताजी बोस के पैतृक निवास 38/2 लाला लाजपत रॉय सरणी,कोलकाता में स्थित नेताजी म्यूजियम (1961) में प्रदर्शित हैं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कई दुर्लभ चित्र यहाँ प्रदर्शित हैकार्य दिवसों को दोपहर बाद 4 बजे से सायं 8 बजे तक तथा रविवार को सुबह 9 से 12 बजे तक यह खुला रहता है इसे नेताजी रिसर्च ब्यूरो भी कहते हैं नेताजी पर पुस्तकों का प्रकाशन और उनसे जुड़े तथ्यों का संकलन करना इसका प्रमुख कार्य है

बिरला अकादमी ऑफ आर्ट एंड कल्चर म्यूजियम
1966 में स्थापित बिरला अकादमी ऑफ आर्ट एंड कल्चर म्यूजियम में मध्ययुगीन और आधुनिक पेंटिंग्स के साथ साथ कुछ पुरातात्विक महत्व के नमूनों का संग्रह है यहाँ आधुनिक भारतीय मूर्तिकला और चित्रकला की प्रदर्शनियां आयोजित होती रहती है पता है- 108-109 सदर्न एवेन्यू, कोलकाता भ्रमण का समय, मंगलवार और मान्य छुट्टियों को छोडकर, दिन के 4 से सायं 8 बजे तक और रविवार को दिन के 1 से सायं 8 बजे तक है

इंडस्ट्रियल सेफ्टी , हेल्थ एंड वेलफेयर म्यूजियम
भारत सरकार के श्रम और रोज़गार विभाग के अंतर्गत संचालित इस संग्रहालय में ओद्योगिक सुरक्षा के यन्त्र, स्वस्थ्य संबंधी खतरें और उनके उपचार, ओद्योगिक दुर्घटना निवारण के उपाय आदि संकलित हैं श्रमिकों के लिए सुरखा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन यह संग्रहालय करता है पता है- पातिपुकुर,लेक टाउन, कोलकाता संग्राहलय रविवार और प्रत्येक दूसरे शनिवार को छोड़कर दिन के 10 बजे से शाम के 5 बजे तक खुला रहता है

इंस्टीट्युट ऑफ पोर्ट मैनेजमेंट म्यूजियम
कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट और हुगली नदी से सम्बंधित विशिष्ट जानकारी का यहाँ संग्रह है खींचने वाले यन्त्र , बाँध ,घाट, गोदी, लंगर के साथ आधुनिक जहाज गेरेज सुविधाओं से समबन्धित जानकारी और नमूनों का प्रदर्शन यहाँ किया गया है पता है- इंस्टीट्युट ऑफ पोर्ट मैनेजमेंट, 40 सर्कुलर रीच रोड, कोलकाता

नेहरु चिल्ड्रेन’स म्यूजियम
1972 में स्थापित इस म्युजियम में खिलौने और पुतलियों के माध्यम से रामायण और महाभारत के कथानक का दृश्यात्मक वर्णन है देश-विदेश की पौशाकें पहने वहीँ के निवासियों की आकृति के खिलौनों का विशाल संग्रह है प्रारंभिक विज्ञान के सिद्धांतों पर एक गेलरी भी यहाँ है रेल क्रोसिंग और यातायात के अन्य साधनों के छोटे प्रतिरूप भी यहाँ प्रदर्शित है

जूट पाट और इससे सम्बंधित तकनीक के लिए जूट म्यूजियम (1936), जनहित और स्वस्थ्य सम्बन्धी जानकारी के लिए म्यूनिसिपल म्यूजियम (1932) भी कोलकाता में हैं

भारत का सबसे बड़ा संग्रहालय

केशव भट्टड़

भारतीय राष्ट्रीय संग्रहालय

भारतीय संग्रहालय (इंडियन म्युजिअम) की स्थापना 1914 में हुई| यह अपनी तरह का इकलौता और पूरे देश में आज तक का सबसे बड़ा संग्रहांलय है| इसके छः विभाग हैं-

१.कला विभाग,
२.पुरातत्व विभाग,
३.मानव विज्ञान विभाग,
४.भूगर्भ शाष्त्र विभाग,
५.प्राणी विज्ञान विभाग और
६.वनस्पति विज्ञान विभाग

१. कला विभाग में तिब्बत के मंदिरों के पट-परदे, धातु की मूर्तियां, युद्धों के मीनाकारी औज़ार, गहने, चांदी, मिट्टी,हाथी दांत, हड्डी और कांच के सामान, लकड़ी की मूर्तियां, रोगन किये हुए खिलोने आदि प्रदर्शित हैं|

२. पुरातत्व विभाग में पाषाण युगीन भारतीय और विदेशी शिल्पकृतियाँ, प्रागेतिहासिक हडप्पा-मोहनजोदड़ो कालीन वस्तुएँ आदि प्रदर्शित हैं|

३.मानव विज्ञान विभाग में भारतीय आदिवासी और जनजातियों से सम्बंधित बहुतेरी वस्तुएँ प्रदर्शित हैं|

४. भूगर्भ शाष्त्र विभाग का फैलाव चार दीर्घाओं में है, जिसमे 80000 से ज्यादा उल्कापिंडों, कीमती पत्थरों, भवन निर्माण के सजावटी पत्थरों,चट्टानों,खनिजों और जीवाश्मों के नमूने प्रदर्शित हैं|

५. प्राणी विज्ञान विभाग में असंख्य कीटों, मछलियों, सरीसृप , स्तनपाई और पक्षियों की प्रजातियों के नमूने प्रदर्शित हैं|

६. वनस्पति विज्ञान विभाग में हजारों कि संख्या में जड़ी बूटियाँ, वन उद्योग, कृषि और ग्रामीण उद्योगों में व्यवहार होने वाली वनस्पतियों के नमूने प्रदर्शित हैं|
संग्रहालय में पुस्तकालय और प्रकाशनालय भी स्थित हैं|

संग्रहालय का पता है- 27 जवाहरलाल नेहरु रोड, कोलकाता और भ्रमण करने का समय सुबह 10 बजे से लेकर शाम 5 बजे तक ( मार्च से नवम्बर तक) तथा सुबह 10 बजे से लेकर शाम 4:30 बजे तक ( दिसम्बर से फरवरी तक) सभी कार्य दिवसों को (सोमवार और सरकारी छुट्टियों के दिन को छोड़कर)

केशव भट्टड़
सांस्कृतिक राजधानी कोलकाता
केशव भट्टड़

कोलकाता को लंबे समय से अपने साहित्यिक, सांस्कृतिक और कलात्मक धरोहरों के लिए जाना जाता है। भारत की पूर्व राजधानी रहने से यह स्थान आधुनिक भारत की सांस्कृतिक सोच का जन्मस्थान बना। कोलकातावासियों के मानस पटल पर सदा से ही कला और साहित्य के लिए विशेष स्थान रहा है। यहां नयी प्रतिभाको सदा प्रोत्साहन देने की क्षमता ने इस शहर को अत्यधिक सृजनात्मक ऊर्जा का शहर (सिटी ऑफ फ़्यूरियस क्रियेटिव एनर्जी) बना दिया है। इन कारणों से ही कोलकाता को भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है।
कोलकाता का एक खास अंग है पाड़ा, यानि पास-पड़ोस (मोहल्ला) के क्षेत्र। इनमें समुदाय की सशाक्त भावना होती है। प्रत्येक पाड़ा में एक सामुदायिक केन्द्र, क्रीड़ा स्थल आदि होते हैं। प्रत्येक पाड़ा में कम से कम एक कल्ब जरुर होता है, जहाँ लोगों में फुर्सत के समय अड्डा (यानि आराम से बातें करना) में बैठक करने, चर्चाएं आदि में सामयिक मुद्दों पर बात करने की आदत हैं। ये आदत एक मुक्त-शैली बुद्धिगत वार्तालाप को उत्साहित करती है और एक लोकतान्त्रिक परिवेश का निर्माण भी।
कोलकाता में बहुत सी इमारतें गोथिक, बरोक, रोमन, आर्मेनियम और इंडो-इस्लामिक स्थापत्य शैली की हैं। ब्रिटिश काल की कई इमारतें अच्छी तरह से संरक्षित हैं व अब धरोहर घोषित हैं, जबकि बहुत सी इमारतें ध्वंस के कगार पर भी हैं। 1814 में बना भारतीय संग्रहालय एशिया का प्राचीनतम संग्रहालय है। यहां भारतीय इतिहास, प्राकृतिक इतिहास और भारतीय कला का विशाल और अद्भुत संग्रह है। विक्टोरिया मेमोरियल कोलकाता का प्रमुख दर्शनीय स्थल है। यहां के संग्रहालय में शहर का इतिहास अभिलेखित है। यहां का भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय भारत का एक मुख्य और बड़ा पुस्तकालय है। अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स में नियमित कला-प्रदर्शनियों का आयोजन और नाटकों के नियमित प्रदर्शन होते रहतें हैं।
शहर में नाटकों आदि की परंपरा थियेटर और सामूहिक थियेटर के रूप में जीवित है। 18 वीं सदी से इस परंपरा का इतिहास मिलता है । यह नाटक बंगाल की शानदार और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के दर्पण हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में कोलकाता के नाटकों की भूमिका प्रखर रही और इसका उपयोग एक हथियार के रूप में किया गया। प्रादेशिक लोक नाटक बंगाल के विभिन्न क्षेत्रों में खेले जातें हैं और राष्ट्रीय स्तर पर भी लगातार इन्हें सराहा गया है। नाटक क्षेत्र के कुछ प्रसिद्ध नाम हैं- गिरीश चंद्र घोष, रबी राय, सिसिर भादुरी, बादल सरकार, उत्पल दत्त,अरुण मुख़र्जी, नीलकंठ सेनगुप्ता, शोभा सेन, सौमित्र चट्टर्जी, मनोज मित्र, श्यामानंद जालान, प्रतिभा अगरवाल, उषा गांगुली, प्रताप जायसवाल, अजहर आलम, उमा झुनझुनवाला आदि। राजस्थानी नाटकों की बंगाल में भी एक परंपरा रही है। नाटक क्षेत्र में राजास्थानियों में प्रमुख गोपाल कृष्ण तिवाड़ी, त्रिलोचन झा, प्रेमशंकर नरसी, गोपाल कलवाणी, केशव भट्टड़ ,राधेश्याम सोनी, बब्बू शर्मा आदि कुछ नाम हैं। भारतीय रंगमंच के इतिहास में पहली बार एक कलाकार का नाट्य पुनरावलोकन (रेट्रोस्पेक्टिव) कोलकाता में हुआ, जिसका आयोजन पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज ने किया रविन्द्र सदन,सिसिर मंच और ज्ञान मंच प्रेक्षागृहों में 8 मार्च से 14 मार्च 2007 तक कोलकाता के नाट्य प्रेमियों ने सिल्की जैन की अभिनय प्रतिभा देखी नाट्य समिक्षक प्रेमकपूर ने लिखा –“ अभिनय प्रतिभा के विस्फोट का नाम है सिल्की जैन”
कलकाता हिंदी पत्रकारिता, साहित्य और सिनेमा की जन्मभूमि रही है। यहां हिन्दी चलचित्र भी उतना ही लोकप्रिय है, जितना कि बांग्ला चलचित्र, जिसे टॉलीवुड नाम दिया गया है (यहां का फिल्म उद्योग टॉलीगंज में स्थित है)। यहां के लंबे फिल्म-निर्माण की देन है प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक बिमल राय, ऋत्विक घटक, सत्यजीत राय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा, गौतम घोष, अपर्णा सेन, रितुपर्णो घोष, अनिंदिता सर्वाधिकारी आदि। हिंदी रजत पट को यहाँ के तक्निसिअनों, कलाकारों, संगीत निर्देशकों, गायकों और निर्देशकों ने समृद्ध किया है।
दुर्गा पूजा कोलकाता का सबसे महत्त्वपूर्ण और चकाचौंध वाला उत्सव है। यह त्यौहार प्रायः अक्तूबर के माह में आता है, पर चौथे वर्ष सितंबर में भी आ सकता है। अन्य उल्लेखनीय त्यौहारों में पोइला बैसाख, विश्वकर्मा पूजा, जगद्धात्री पूजा, सरस्वती पूजा, रथ यात्रा, पौष पॉर्बो, दीवाली, होली, क्रिस्मस, ईद आदि आते हैं। सांस्कृतिक उत्सवों में कोलकाता पुस्तक मेला, कोलकाता फिल्मोत्सव, डोवर लेन संगीत उत्सव और नेशनल थियेटर फेस्टिवल आते हैं।
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी से ही बंगाली साहित्य का आधुनिकिकरण हो चुका है। यह आधुनिक साहित्यकारों की रचनाओं में झलकता है, जैसे बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, माइकल मधुसूदन दत्त, रविंद्रनाथ ठाकुर, काजी नज़रुल इस्लाम और शरतचंद्र चट्टोपाध्याय आदि। इन साहित्यकारों द्वारा तय की गयी उच्च श्रेणी की साहित्य परंपरा को जीबनानंददास, बिभूतिभूषण बंधोपाध्याय, ताराशंकर बंधोपाध्याय, माणिक बंदोपाध्याय, आशापूर्णा देवी, शिशिरेन्दु मुखोपाध्याय, बुद्धदेव गुहा, सुकांत भट्टाचार्य, महाश्वेता देवी, समरेश मजूमदार, संजीव चट्टोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय, विष्णुकान्त शाष्त्री, कन्हैयालाल सेठिया, ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषण’, छविनाथ मिश्र, कल्याणमल लोढा, अलका सरावगी, कृष्ण बिहारी मिश्र, शंकर महेश्वरी, मानिक बच्छावत आदि लेखकों-कवियों ने आगे बढ़ाया है।
नगर में भारतीय शास्त्रीय संगीत और बंगाली लोक संगीत को भी सराहा जाता रहा है। बंगाली लोक संगीत में रबिन्द्र संगीत ,नजरुल गीति और बाउल गायन प्रसिद्ध हैं