Sunday, November 28, 2010





शुभ दीपावली
केशव भट्टड़

दीपावली आ गई दीपावली माने भरपूर खुशियाँ साफ-सफाई, रंगोली-रोशनी, नये कपड़े-मिठाइयां, खील-बताशे ,पटाखे-फूलझडियाँ, दोस्तों-रिश्तेदारों से मेल-मुलाक़ात, खाना-खिलाना और सभी के लिए शुभकामनायें प्रकाश ही प्रकाश तन और मन का भरपूर सामाजिक आनंद सब मिलाकर आनंदोत्सव का दूसरा नाम दीपावली असुर शक्तियों के पराभव की घोषणा का पर्व , बुराई पर अच्छाई के जयघोष का पर्व – दीपावली दीपावली माने दीपों की लड़ियाँ सीधा सादा धरती का प्रतीक - मिट्टी का दीया, और दमकते ज्ञान का प्रतीक - उसमे जलती बाती से फैलती रोशनी कृष्णपक्ष के अँधेरे से जूझती अंतरिक्ष में फैली नक्षत्र लड़ियाँ और धरती पर फैली दीपों की लड़ियाँ चाँद के प्रकाश पुंज की अनुपस्थिति में उजाले के लिए मानव मात्र के संघर्ष का प्रतीक – दीपावली, आ गई धरती पर पसरे अज्ञान के अँधेरे पर फैलते ज्ञान के उजाले की जय का मंगलमय पर्व – दीपावली, आ गई
दीपावली- पाँच (कहीं-कहीं छः) दिनों तक मनाये जाने वाला प्रकाश पर्व – हिंदू, जैन और सिख्ख दर्शन में समान रूप से मनाया जाता है पूरे भारत के साथ विश्व के अधिकांश देशो में मनाये जाने वाले इस प्रकाश पर्व पर भारत सहित सूरीनाम, गुयाना-ट्रिनिदाद और टोबैगो, फिजी, मोरिसस, मलयेशिया, नेपाल, सिंगापूर, श्रीलंका, म्यांमार में अधिकारिक छुट्टी रहती है भारत और नेपाल में यह राष्ट्रीय उत्सव से कम नहीं है अद्यात्म, दर्शन और इतिहास के आधार पर दीपावली मनाने के, पूजन के तरीके अलग हो सकते हैं लेकिन इसका दर्शन सभी मतावलंबियों में आत्म प्रकाश ही है, जिसके प्रकाशित होते ही हर तरह के अन्धकार का नाश निश्चित है
हिंदू मतानुसार असुर सम्राट रावण पर विजय के पश्चात जननायक राम आज ही के दिन अयोध्या लौटे जैन मतानुसार आज ही के दिन तीर्थंकर महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ तीर्थंकर महावीर के पट शिष्य गणधर गौतम स्वामी को आज ही के दिन केवलज्ञान की प्राप्ति हुई आचार्य भद्रबाहु रचित कल्पतरु के अनुसार अमावस्या के उदय काल से पहले तीर्थंकर महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया अगली रात काली और अँधेरी थी तब काशी और कौशल के 16 गण नरेशों, 9 मल्ल और 9 लिच्छवीयों ने अपने द्वारों पर प्रकाश सज्जा की- “दिव्य ज्ञान का प्रकाश चला गया , अब हम साधारण प्रकाश में उसको अक्षुण रखेंगे” सिख्ख मतानुसार मुग़ल सम्राट जहाँगीर की कैद से ग्वालियर के किले से 52 हिंदू नरेशों को आज़ाद करा कर गुरु हरगोबिन्द आज ही के दिन वापस अमृतसर लौटे इसदिन स्वर्ण मंदिर को दीयों से सजाया गया, वो प्रथा आज भी जारी है सिख्खों में इसलिए दीपावली को ‘बंदी-छोड़ दिवस’ भी कहते हैं गुरु ग्रंथ साहिब के लेखकार भाई मणिसिंह को लाहोर में आज ही के दिन मुग़ल प्रशाशक द्वारा फांसी दी गई, परिणाम स्वरुप खालसा स्वतंत्रता संघर्ष तेजी से फैला

दीपावली पर्व के प्रमुख दिवस

01. वसु बारस को गाय और बछड़े की पूजा की जाती है यह कहीं-कहीं प्रचलन में है
02. धन तेरस को कपड़े-गहने खरीदने की परिपाटी है सागर-मंथन से इस दिन धनवंतरी सागर से प्राप्त हुए इसे धनवंतरी त्रयोदशी भी कहते हैं
03. दीपावली से एक दिन पहले नरक चतुर्दशी को कृष्ण की सहायता से सत्यभामा ने नरकासुर का वध किया राजस्थानी में इसे रूप चौदस और गुजराती में इसे काली चौदस कहते हैं स्नान-उबटन की विशिष्ट परंपरा का पालन इस दिन किया जाता है
04. सागर मंथन से इस दिन लक्ष्मी सागर से प्राप्त हुई पर्व के मुख्य दिन ,चौदह वर्षों के पश्चात राम वनवास से अयोध्या लौटे पूरी अयोध्या को दीपों की लड़ियों से सजाया गया हिंदू इस दिन लक्ष्मी और गणेश का पूजन करते हैं घर द्वार दीपों से सजाये जातें हैं अध्यात्मिक मान्यता है कि इस दिन लक्ष्मी पंचायतन ब्रह्माण्ड में प्रवेश करते हैं लक्ष्मी, विष्णु, इन्द्र, कुबेर और गजेन्द्र इस सुख-समृधि-संतुष्टि प्रदान करने वाले पंचायतन के सदस्य हैं प.बं. के स्थानीय लोगों में इस दिन काली आराधना का प्रचलन है
05. दीपावली के अगले दिन गोवेर्धन पूजा की जाती है इस दिन इन्द्र को कृष्ण ने परास्त किया और कर्मकांड के विरुद्ध कर्म सिद्धांत का प्रतिपादन किया इस दिन को बलि प्रतिपदा भी कहते हैं वामन रूप में विष्णु ने बलि विजय की और उसे पाताळ में भेज दिया मान्यता है की पाताल से बली इस दिन पृथ्वी पर आते हैं
06. इसके अगले दिन भाई दूज –भाई फोटा, भैया दूज ,भाऊबीज – भाई और बहन के स्नेह मिलन - का त्यौहार मनाया जाता है इसे यम द्वितीया भी कहते हैं मान्यता है की यम अपनी बहन यमी से इस दिन मिलते हैं मारवाड़ियों और बंगालियों में इस दिन का विशेष महत्व और मान्यता सामान रूप से है

पर्व का एक प्रमुख आकर्षण इन दिनों की जाने वाली आतिशबाजी है सावधानी रखते हुए नियम-कायदों की सीमा में आतिशबाजी करें अंधेरों के विरुद्ध दीपकों का संघर्ष हमारा संबल और प्रेरणा स्त्रोत बने इस विश्वास के साथ आनंद, उमंग और उल्लास के मंगलमय पर्व पर सभी को हार्दिक शुभकामनायें





भगत सिंह के विचार शाषन के शोषण के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा और शक्ति -बिमान बोस
कोलकाता 9 अक्टूबर शहीद यादगार समिति द्वारा 28 सितम्बर को स्थानीय शहीद भगत सिंह उद्यान (मिंटो पार्क) में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह कि 103 वीं जन्म जयंती पर कार्यक्रम का आयोजन उपन्यासकार विजय शर्मा की अध्यक्षता में किया गया भगत सिंह की मूर्ति प.बं.वाममोर्चा के अध्यक्ष बिमान बोस, शहीद यादगार समिति के संरक्षक भू.पू. सांसद मोहम्मद सलीम, लेखक और भू.पू. सांसद सरला माहेश्वरी, कार्यक्रम के अध्यक्ष उपन्यासकार विजय शर्मा, रविद्र भारती वि.वि. के इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो. सुस्नात दास, प.बं सरकार के मंत्री क्षिति गोस्वामी और मंत्री प्रतिम चट्टर्जी, समिति के संयुक्त संयोजक डॉ. अशोक सिंह और महिंदर सिंह गिल, अल्पसंख्यक उन्नयन और वित्त निगम के निदेशक मंडल के सदस्य सोहन सिंह अटानिया,अरुण माहेश्वरी, पश्चिम बंग राज्य विश्व विद्यालय (बारासात) की प्रेमचंद परिषद की संयुक्त संयोजक श्रेया जायसवाल, भगत सिंह विचार मंच के संयुक्त संयोजक दिनेश शर्मा, आशुतोष केसर, खालसा समूह की स्कूलों के शिक्षक-शिक्षिकाएं, छात्र-छात्राओं आदि सभी उपस्थित जनो ने माल्यार्पण किया पश्चिम बंगाल वाममोर्चा के अध्यक्ष बिमान बोस ने कार्यक्रम का उदघाटन करते हुए कहा कि शहीद यादगार समिति प्रति वर्ष भगतसिंह को याद करती है यह उचित है भगत सिंह को याद करने का मतलब है उनसे प्रेरणा लेना लाला लाजपत राय पर हुए अत्याचार का बदला लेने के लिए भगतसिंह ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रतीक पुलिस अधिकारी सेंडर्स को मारा, परन्तु खेद जताते हुए कहा की निरीह हत्याएं करना हमारा मकसद नहीं है भगत सिंह के विचार शाशन के शोषण के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा और शक्ति देते हैं इन्कलाब जिंदाबाद का नारा देने वाले भगतसिंह के जीवन से प्रेरणा लेकर ही हम नया समाज बना सकते हैं शहीद यादगार समिति को राज्य में भगत सिंह के विचारों का प्रसार करना चाहिये मैं शहीद ए आज़म भगतसिंह का अभिनन्दन करता हूँ प्रधान वक्ता शहीद यादगार समिति के संरक्षक मोहम्मद सलीम ने कहा कि तमाम जन संगठन मिलकर भगत सिंह को याद करते हैं मैं उन्हें अपना श्रधा सुमन अर्पित करता हूँ नयी फिल्मे, नये गाने , नये फैशन कुछ दिनों के बाद लोग भूल जातें हैं लेकिन भगतसिंह को नहीं भूल सकते उनके विचार बेशकीमती हैं उन्होंने कहा था की मारा हुआ भगत सिंह जिंदा भगतसिंह से ज्यादा खतरनाक होगा वो अपने विचारों के कारण आज भी जिन्दा हैं उन्होंने अध्यन किया,विश्व क्रांतिकारियों का इतिहास पढ़ा बाबरी मस्जिद को तोडने वाले अदालतों में मुकर गये लेकिन भगतसिंह बहरे कानो को सुनाने के लिए धमाका करने के बाद भागे नहीं भगत सिंह की बातें मीडिया में नहीं आती यह उनके उद्धेश्य और लक्ष्य से नहीं मिलती आतंकवादी होना और क्रांतिकारी होना , दौनो में बहुत अंतर है माओवादी क्रन्तिकारी नहीं है भगत सिंह ने देश के नौजवानों को जोड़ा राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद, गोरखालैंड, केएलओ, हिंदू साम्प्रदायिकता, मुस्लिम साम्प्रदायिकता के नाम पर आज देश को तोडा जा रहा है भगतसिंह ने नौजवान सभा बनाकर देश के नौजवानों को जोड़ा देश के सरे क्रांतिकारियों को एक संगठन से जोड़कर आंदोलन को एक अखिल भरतिया स्वरुप दिया हम आज भी कामन वेल्थ गेम्स के नाम पर गुलामी के प्रतीकों को सहेज रहें हैं यह सब कुछ लोगों को आर्थिक सुविधा प्रदान करता है इस गेम्स की पोल खुल चुकी है सरकार के ग्रीन रूम की घटनाये स्टेज पर आ चुकी हैं समिति के संयुक्त संयोजक डॉ अशोक सिंह ने कहा कि भगत सिंह से प्रेरणा लेने के लिए कार्यक्रम हो तो ठीक है, लेकिन फोटो खिंचवाने के लिए हो तो ठीक नहीं है उन्होंने सरकार से मांग कि की बी टी रोड का नाम भगतसिंह मार्ग किया जाये लेखक और भू.पू. सांसद सरला महेश्वरी ने कहा कि मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद भाव और विषमताओं की दीवारें खड़ी की जा रहीं हैं पुन्जिह्हुदा है और मुनाफा मुक्ति मुल्यों से सरोकार नहीं रखा जा रहा है ऐसे समय मेंभागात्सिंह हमें रास्ता दिखातें हैं उपभोक्तावादी नीति के खिलाफ भगत सिंघ्की ओज भरी वाणी हमें याद आती है 20 मार्च को उन्होंने पंजाब के गवर्नर को पत्र लिखा- ‘हाँ ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हम भारत की जनता केयुद्ध का नेतृत्व कर रहें हैं भगत सिंह की लड़ाई आज भी जारी है क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है शाषक शोषक वर्ग भगत सिंह के क्रांति के विचारों से डरता था, डरता है भगतसिंह का बलिदान नौजवानों को प्रेरणा देता है गोरे प्रभुओं की जगह काले प्रभु शाशन के सूत्रधार बने , इसलिए उन्होंने अपना बलिदान नहीं दिया उनके विचार संपूर्ण व्यवस्था बदलने के विचार थे भगत सिंह के आदर्श के जज्बों को समझने की जरुरत है आज हमें एक समता मूलक समाज के निर्माण की प्रतिज्ञा करनी चाहिये रवीन्द्र भारती विश्व-विद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रो. सुस्नात दास ने कहा कि इस पवित्र दिन पर मैं आपके साथ हूँ ,यह मेरे लिए गर्व की बात है मैं हिंदी अच्छी नहीं बोल सकता यह लज्जा की बात है परन्तु पूरे विश्व में क्रांतिकारियों की एक ही भाषा है भगत सिंह हमारे देश के बौद्धिक क्रांतिकारी थे उन्होंने विचार कर पूरे देश के क्रांति करी संगठनो को जोड़ा और हिन्दुस्तान रिपब्लिक सोसलिस्ट आर्मी का गठन किया मेरठ षडयंत्र केस के बाद क्रांतिकारी आंदोलन ने गति पकड़ी भगत सिंह ने इस आंदोलन को वैचारिक आधार दिया प. बं सरकार के अग्नि शमन और आपातकालीन सेवा विभाग के मंत्री श्री प्रतिम चट्टर्जी ने कहा कि हम स्वाधीन नहीं हैं कामन वेल्थ गेम्स का उदघाटन राष्ट्रपति करेंगी या युवराज चार्ल्स , इस पर बहस हो रही है तो कैसे कहें की हम स्वाधीन हैं भगत सिंह के विचारों का देश बनाने के लिए संघर्ष करना होगा जनकार्य विभाग के मंत्री श्री क्षिति गोस्वामी ने कार्य क्रम को संबोधित करते हुए कहा कि बंगाल के श्री अरविन्द की अनुशीलन समिति से लेकर यु.पी. के चन्द्रसेखर आजाद तक उन्होंने सब को जोड़ा क्रांति का लक्ष्य क्या हो,यह भगत सिंह ने बताया ब्रिटिश शाषन से मुक्त होना ही भगतसिंह का सपना नहीं था किसानों और मजदूरों को शोषण और गरीबी से मुक्ति मिले तभी क्रांतिकारियों का सपना पूरा होगा भगत सिंह का सपना आज भी अधूरा है इन्कलाब जिंदाबाद कहकर उन्होंने भगत सिंह को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये सेन्ट्रल मोडल हाई स्कूल , गुरु नानक मोडल स्कूल, खालसा इंग्लिश हाई स्कूल, खालसा हिंदी हाई स्कूल, खालसा हाई स्कूल फॉर बोयज , खालसा मोडल सीनियर सेकंडरी स्कूल आदि खालसा समूह के विद्यालयों के छात्र-छात्राओं द्वारा इस अवसर पर देश भक्ति के गीत प्रस्तुत किये गये संयुक्त संयोजक महिंदर सिंह गिल ने संचालन और किया

केशव भट्टड़
मीडिया प्रभारी
09330919201
सूचना और संस्कृति राज्य मंत्री के वक्तव्य का प्रतिवाद

कोलकाता 28 नवंबर आज कोलकाता से प्रकाशित दैनिक ‘सन्मार्ग’ में पश्चिम बंगाल के सूचना और संस्कृति मंत्री का साक्षात्कार ‘किसी को संतुष्ट करने के लिए हिंदी अकादमी का गठन नहीं किया: अंजन बेरा’ प्रकाशित हुआ है पहली बात समाचार पत्र ने गलत तथ्य देकर पाठकों को गुमराह किया है पश्चिम बंगाल सरकार में अंजन बेरा नाम का कोई मंत्री नहीं है दूसरा सूचना और संस्कृति विभाग के मंत्री राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य हैं जो फोटो छपा है वह पश्चिम बंगाल सरकार के सूचना और संस्कृति राज्य मंत्री सौमेंद्रनाथ बेरा का है
पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज राज्य मंत्री के वक्तव्य का तीव्र प्रतिवाद करता है उन्होंने अपने वक्तव्य से पश्चिम बंगाल के हिंदी भाषियों के स्वाभिमान को अपमानित किया है मंत्री महोदय को पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज याद दिलाना चाहता है कि वाममोर्चा सरकार के पूर्व स्कूल शिक्षा मंत्री कांति विश्वास ने हिंदी में प्रश्न पत्र न देने की बड़े ही अहंकार के साथ घोषणा की थी पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज ने इसका कड़ा प्रतिवाद किया था परिणामस्वरूप विधान सभा चुनाव में वाममोर्चा ने उनको उम्मीदवार नहीं बनाया पुनर्गठित पश्चिम बंग हिंदी अकादमी को पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज की पहल पर सूचना और संस्कृति विभाग में जिस समय शामिल किया गया था तब तक राइटर्स बिल्डिंग में सौमेन्द्रनाथ बेरा मंत्री बनकर नहीं आये थे राज्य मंत्री में साहस होता तो 2 नवंबर के Notification के साथ पश्चिम बंग हिंदी अकादमी के गठन की घोषणा करते किन अज्ञात कारणों से सरकार ने पश्चिम बंगाल के हिंदी भाषियों को इसकी जानकारी नहीं दी ? पश्चिम बंग हिंदी अकादमी के बारे में कुछ कहना है तो अकादमी के अध्यक्ष मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य स्वयं बोलें


अशोक सिंह
महासचिव
9830867059
बी.ए. हिंदी आनर्स के पाठ्यक्रम से यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ और मुक्तिबोध की कविताओं को हटाने का प्रतिवाद

पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज ने 28 अक्टूबर को कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रो.वी.सी. (अकादमिक) प्रो. ध्रुव्ज्योती चट्टोपाध्याय को कलकत्ता विश्वविद्यालय के बी.ए. हिंदी आनर्स के पाठ्यक्रम से यशपाल के उपन्यास ‘झुठा-सच’ और ‘मुक्तिबोध’ की कविताओं को हटाने का प्रतिवाद करते हुए एक पत्र दिया है पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज के महासचिव डॉ. अशोक सिंह ने पत्र में लिखा है-
“University of Calcutta के वेबसाइट पर बी.ए. हिंदी आनर्स का पाठ्यक्रम देखा पाठ्यक्रम पर आयोजित वर्कशाप में मैं सुरेन्द्रनाथ सांध्य कॉलेज के प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित था आरम्भ से ही महसूस हुआ कि हिंदी का पाठ्यक्रम बनाने की जिम्मेदारी जिस Board of Studies को दी गयी थी उसके अध्यक्ष सामंती मानसिकता का परिचय दे रहे थे विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम बनाने के लिए लोकतान्त्रिक तरीके से वर्कशाप आयोजित नहीं हुआ मैंने स्वयं राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गांव’ और शेखर जोशी की कहानी ‘दाज्यू’ को शामिल करने का प्रस्ताव दिया था लेकिन University of Calcutta के वेब साइट पर नया पाठ्यक्रम देखा तो आश्चर्य हुआ ‘सातवें प्रश्न पत्र’ खण्ड-1 के ‘उपन्यास’ के अंतर्गत तीन उपन्यासों – ‘कर्मभूमि’ (प्रेमचंद), ‘झूठा सच’ (यशपाल), और ‘मैला आँचल’ (रेणु) में यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ को हटा दिया गया जबकि वर्कशाप में ‘झूठा सच’ को हटाने का किसी ने प्रस्ताव नहीं दिया था राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गांव’ को शामिल करने का प्रस्ताव दिया गया था यशपाल हिंदी के ऐसे अकेले लेखक हैं जो शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के साथ देश की आज़ादी की लड़ाई में क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल थे ‘झूठा सच’ देश के विभाजन की त्रासदी पर लिखा गया हिंदी का सबसे
महत्वपूर्ण उपन्यास है ‘झूठा सच’ को पाठ्यक्रम से हटाने का मतलब है नयी पीढ़ी को देश के असली इतिहास से दूर रखने की साजिश हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने ‘उपन्यास और लोकतंत्र’ में लिखा है- “आज भी जिसे विभाजन की त्रासदी की भयावहता को समझना होगा वह यशपाल के ‘झूठा सच’, राही मासूम रज़ा के ‘आधा गांव’ और भीष्म साहनी के ‘तमस’ को पढ़ेगा (मैनेजर पाण्डेय – संकलित निबंध- पृष्ठ 93, नेशनल बुक ट्रस्ट)” आश्चर्य की बात यह है कि विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ को इसके बदले लगाया गया यह कलावादी उपन्यास है साथ ही कृष्णा सोबती की कहानी ‘ ऐ लड़की’ को ‘लघु उपन्यास’ बताते हुए शामिल किया गया जबकि तथ्य यह है कि रवीन्द्र कालिया के संपादन में ‘वर्तमान साहित्य’ के ‘कहानी महाविशेषांक’ में ‘ऐ लड़की’ प्रकाशित हुयी थी यशपाल के ‘झूठा सच’ को हटाना और राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गांव’ को पाठ्यक्रम में शामिल न करना एक गंभीर खतरे का संकेत है तीसरा प्रश्न पत्र – आधुनिक कविता के अंतर्गत मुक्तिबोध की कविताओं को हटाया गया है मुक्तिबोध हिंदी के सबसे प्रखर मार्क्सवादी कवि हैंदेश के सबसे पुराने हिंदी विभाग कलकत्ता विश्वविद्यालय में इस तरह की घटना के बाद भी शिक्षा जगत की चुप्पी इस बात का संकेत है – हिंदी शिक्षा क्षेत्र में शिक्षा माफिया का कब्ज़ा है कथा साहित्य में यशपाल के ‘झूठा सच’ और कविता में मुक्तिबोध की कविताओं को हटाना मार्क्सवादी विचारधारा पर सीधा आक्रमण है जबकी Board of Studies के सभी सदस्य तथाकथित मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े हुए हैं एक दिलचस्प तथ्य है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार एम.ए.. में आधुनिक पाठ्यक्रम बनानेवाले कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रो. जगदीश्वर प्रसाद चतुर्वेदी Board of Studies के सदस्य नहीं है
पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज ने राही मासूम रज़ा की 75वीं जयंती पर उनके उपन्यास ‘आधा गांव’ पर कलकत्ता विश्वविद्यालय के दरभंगा हॉल में संगोष्ठी आयोजित की थी कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन प्रो. वी.सी. (अकादमिक) प्रो. सुरंजन दास इस आयोजन में शामिल थे आश्चर्य की बात है कि Board of Studies के सम्मानित सदस्य प्रो. चन्द्रकला पाण्डेय प्रो. अमरनाथ शर्मा , रेखा सिंह, प्रो. शम्भुनाथ, डॉ. गीता दूबे, डॉ. राजश्री शुक्ला ‘राही मासूम रज़ा सप्ताह’ के अंतर्गत आयोजित इस कार्यक्रम में शामिल थे पहली बार ‘आधा गांव’ को जोधपुर विश्वविद्यालय में नामवर सिंह ने पाठ्यक्रम में शामिल करने की कोशिश की थी लेकिन प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने इसे पाठ्यक्रम में शामिल नहीं होने दिया लेकिन कलकत्ता विश्वविद्यालय के Board of Studies में शामिल सभी लोग प्रगतिशील-जनवादी संगठनों से जुड़े हैं तब ‘आधा गांव’ को किस आधार पर शामिल नहीं किया गया ?
पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज यह मानता है कि देश के विश्वविद्यालयों में जो लोग वेतन ले रहें
हैं उसमें अर्जुन सेनगुप्ता कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार देश के 77% लोगों का कर भी शामिल है
जिनकी दैनिक आमदनी 20 रुपये से ज्यादा नहीं हैविश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम का निर्माण देश के
वर्तमान और भविष्य से जुड़ा हुआ है हम अपने युवा नागरिकों को किस तरह का इतिहास पढ़ाना चाहतें है ?
उपरोक्त सन्दर्भ में पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज कलकत्ता विश्वविद्यालय से निम्नलिखित मांग करता है-
01. वर्तमान Board of Studies ने किस तरह पाठ्यक्रम बनाया है, इसकी जांच करनी होगी
02. वर्तमान गैर जिम्मेदार Board of studies को भंग करना होगा
03. यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ और मुक्तिबोध की कविताओं को पाठ्यक्रम में फिर से शामिल करना होगा
04. लोकतान्त्रिक तरीके से दो दिन का वर्कशाप आयोजित कर नया पाठ्यक्रम बनाना होगा बिना किसी लिखित सूचना के प्रतिनिधियों से रजिस्ट्रेशन फी नहीं लेना होगा
05. कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रो. जगदीश्वर प्रसाद चतुर्वेदी को छोड़कर पाठ्यक्रम बनाने की दूरदर्शिता किसी में नहीं है उन्हें Board of Studies का अध्यक्ष बनाना होगा
06. Board of Studies में 75% सदस्य आनर्स पढ़ाने वाले फुल टाइम शिक्षकों को लेना होगा
हमें उम्मीद है कि विषय की गंभीरता को देखते हुए आप यथाशीघ्र आवश्यक निर्णय लेंगे”

इस प्रतिवाद पत्र की प्रतिलिपि कलकत्ता विश्वविद्यालय के वी..सी. प्रो. सुरंजन दास को भी दी गई है पत्र की पावती प्रतिलिपि पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज के पास सुरक्षित है

केशव भट्टड़
मीडिया प्रभारी
09330919201
हम शोक-संतप्त हैं

कोलकाता 17 नवंबर| पूर्वी दिल्ली के ललिता पार्क में रिहायशी भवन के ढह जाने से तक़रीबन 66 लोगों की अकाल मृत्यु हो गई और 100 से अधिक लोंग घायल हो गये| मृतकों में पश्चिम बंगाल राज्य के 24 नागरिक शामिल हैं| पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज के इस दुर्घटना में मारे गये लोगो के प्रति हार्दिक संवेदना प्रकट करता है और घायलों के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करता है| पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज के प्रधान संरक्षक मोहम्मद सलीम ने दुर्घटना पर दुःख प्रकट करते हुए कहा कि हम शोक-संतप्त हैं| प्रशाशनिक अधिकारी, राजनीतिज्ञों और प्रमोटरों के घिनौने गठजोड़ के कारण इस तरह की दुर्घटनाएं होती है और गरीब मारें जातें हैं| घोटालों में फंसे देश का गरीब सबसे अंतिम पायदान पर रहता है और माइग्रेट करने पर अवैध निर्माणों में रहकर नाना प्रकार से परेशान होता है और इस तरह की दुर्घटनाओं में जान-माल का नुकसान उठाता है| देश के किसी भी हिस्से में ऐसा नहीं होना चाहिये| पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज दिल्ली सरकार से मांग करता है कि पीडितों की सहायता और पुनर्वास का कार्य बगैर किसी भेद-भाव के युद्धस्तर पर किया जाये और भविष्य में इस तरह की घटनाओं की पुनर्रावती ना हो इसके समुचित उपाय किये जायं|

केशव भट्टड़
मीडिया प्रभारी
09330919201
ट्रेलर दुर्घटना पर शोक

1 नवंबर 2010| पश्चिम बंग हिंदी भाषी समाज खेजुरी क्षेत्र के हिज़ली शरीफ से काकद्वीप लौटते समय दक्षिण चौबीस परगना जिले के घोड़ामारा सागरद्वीप के पास शनिवार को मुङीगंगा नदी में ट्रालर के उलट जाने से हुई दुर्घटना में मारे गये नागरिकों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करता है और आहतों के शीघ्र स्वस्थ्य लाभ की कामना करता है| दुर्घटना में लापता हुए नागरिकों को खोजने के हर संभव प्रयास किये जायं और इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने के समुचित उपाय किये जाएँ | इस गंभीर मौके पर स्थानीय लोगों द्वारा की गई सहायता सराहनीय है|


केशव भट्टड़
मीडिया प्रभारी
9330919201
जड़ों की ओर झाँकने का झरोखा
‘इस शहर के लोग’
(बीकानेर के लोगों को समर्पित मानिक बच्छावत की कविता पुस्तक)
केशव भट्टड़

कोई भी शहर मकानों, सड़कों , वास्तु, बगीचों आदि से नहीं , वहाँ के लोगों के मिजाज़, सोचने और काम करने के ढंग,उनके संस्कार और आपसी सोहार्द से जाना जाता है लोगों का चरित्र ही शहर का चरित्र होता है रोज़गार के भेद, जाती के भेद, धर्म और भाषा के भेद बीकानेर के लोगों में आपस में मतभेद के कारण नहीं बने;आज के युग में बीकानेर जैसे शहर का होना - सुकून का, विश्वास का, भाईचारे का – कूल मिलाकर आदमी के आदमियत से रिश्तें का जिंदा रहना है ‘इस शहर के लोग’ काव्य संग्रह के माध्यम से बीकानेरी संस्कृति का इन्द्रधनुषी रूप साहित्य में दर्ज हुआ है यूं ही ‘बीकानेर’ को आस पास के पूरे अंचल के लोग सिर्फ ‘शहर’ कहकर संबोधित नहीं करते
परंपरागत पेशे में श्रम जीवी की अपने श्रम में, अपने कार्य में एक निष्ठा होती है, एक दीवानापन होता है,एक जिम्मेदारी होती है “...एक दिन जब मैं वहाँ लस्सी पिने गया/ किसना जी ने/कहा आज आप लस्सी/ सामने की दुकान पर पी लें/ उसका दही खट्टा / हो गया है / वह आज लस्सी नहीं पिला सकता/..(किसना जी माली की लस्सी)” बाजारवाद का ऊद्धेश्य मुनाफा वहाँ प्रमुख नहीं होता “...इस शहर में अब भी / शराफत बची हुई है/ यहाँ अभी बाजारवाद नहीं आ पाया है/..”(वही) बाजारवाद नहीं देखता की ‘ हर पैर की अपनी एक खास बनावट होती है’ बाजार और उपभोक्ता के रिश्तें में अपनापन नहीं होता...”उस अपनापन की जगह/ अब लोग काम कराते/ आते और जाते..(छोगा जी नाई)” दूध,पानी रजाईयां, बर्तन , बोझ ढोने की मेहनत का कोई मज़हब नहीं होता मेहनतकशों का हुनर, शराफत, इंसान तो इंसान- जानवरों से प्रेम, शांतिप्रियता और धर्मनिरपेक्षता इस शहर की विशिष्टताएं हैं गायन, नृत्य, रम्मत हो या विवाह,जन्म,मृत्यु के लोकाचार – शहर के लोग एक दूसरे में पिरोये हुवे हैं खेल, कुश्ती, कबूतरबाजी हो या पतंगबाजी हो , रेशमा का दमादम मस्त कलंदर हो या हो अल्लाह जीलाई बाई का ‘ केसरिया बालम’ , इस शहर के लोग हरफनमौला हैं किसी भी शहर की पहचान चुनिन्दा लोगों से नहीं, वहाँ के आम लोगों से होती है जिनका प्रमुख चरित्र होता है अपनापन और संतुष्टि ‘इस शहर के लोग’ में आम आदमी खास स्थान रखता है यह सौधेश्य है ‘इस शहर के लोग’ में शहर के निवासी – सारे के सारे ‘आम’ मिलकर कुछ ‘खास’ देतें हैं यह खास एक ‘नस्टल्जिया’ है जो ‘जस्टिफाईड’ है किसी एक शहर के ‘नस्टल्जिया’ को सामने रखने वाली विरल काव्य रचना है ‘इस शहर के लोग’ जीवन में ये आम लोग कितने खास होतें है – और जरूरी भी, यह काव्य रचना पूरी इमानदारी और पारदर्शिता के साथ इस तथ्य को प्रस्तुत करती है जैसा परिवेश- वैसे लोग पीढ़ियों की साझा संस्कृति से उपजा एक ऐसा सामाजिक तानाबाना , जहाँ सभी का हक तसलीम होता है- ऐसा शहर है मेरा जन्म शहर बीकानेर और ऐसे हैं ‘इस शहर के लोग’ यहाँ का हर ‘आम’ कुछ खास है , लेकिन इस खासियत का असर कहीं भी नकारात्मक नहीं है सकारात्मक सोचवाले, पंथ निरपेक्ष , मेहनती और कारीगरी में अव्वल , मिठास से भरे हैं ‘इस शहर के लोग’ – बीकानेर के लोग यह काव्य रचना इंगित करती है कि जीवन में गति और ठहराव में सामजस्य होना चाहिये आधुनिक (?) जीवन शैली में जीवन में स्पेस का अभाव है ‘अब सब कुछ बहुत फास्ट है, फ़िल्मी है और सामयिक है गलें की मिठास और भीतर का दर्द अब कहीं नहीं है/..(अल्लाह जिलाई बाई)’ ‘बाई’ माने ‘माँ’ पुस्तक के परिचय में ठीक ही लिखा गया है-‘ इस शहर के लोग’ की कवितायेँ कवि मानिक बच्छावत की उन स्मृतियों से जुडी हैं जो इतिहास में दर्ज नहीं है, पर इंसानियत की कहानी कहती हैं ‘इस शहर के लोग’ काव्य संग्रह की 45 कविताओं में स्थानीय संस्कृति और शब्द अपनी ठसक के साथ मौजूद हैं हर चरित्र का अपना एक अनुभव है कहीं कहीं कवि की पृष्ठभूमि से सामायिक सामंती चित्रण आभासित होता है लेकिन वो पूरी मानवीयता के साथ है चरित्रों पर उसका प्रभाव नहीं है इन चरित्रों पर विशुद्ध भारतीय संस्कृति की स्पष्ट छाप है जो आंचलिक होते हुए भी सार्वभौमिक है सामाजिक मूल्य केन्द्र में हैं, बाजार के मूल्य हाशिए पर ‘इस शहर के लोग’ जीवन का राग सुनाते है रेतीली जमीन के यह चट्टानी चरित्र पाठक के मन में एक साथ बहुत कुछ उभारतें हैं जो सिर्फ और सिर्फ सकारात्मक हैं मानिक बच्छावत ने ता उम्र ‘दिसावरी’ की, कहावत में नहीं - हकीकत में दुनिया देखी , लेकिन बीकानेर और वहाँ के लोग उनकी स्मृतियों में बसे रहे मानक बच्छावत की स्मृतियों का यह दस्तावेज़ स्वयं संप्रेषित जीवित लोक इतिहास है आम आदमी का इतिहास जो यह निश्चित करता है कि ग्लोबलिजेसन के इस युग में इंसान को उसकी स्थानीय जड़ों की जरुरत है, क्योंकि वहाँ रिश्तों की पवित्रता है, “......कालू माली था/ जीजी कुम्हारिन थी/ दोनों दिन भर झगड़ते/ पर रात को दोनों / अपना माचा ढालकर/साथ सोते/दोनों पति-पत्नी नहीं थे/ उससे कुछ ज्यादा थे/..(कालू बाबा और जीजी)” विश्वास है, “...उसने नोटों के कई बण्डल/ पिता के हाथ में रख दिए/ बोला ये बीस हज़ार है मेरे/ दादा ने आपके पिताजी से पाँच हज़ार रुपये / वर्षों पहले लिए थे/ मेरे पिता मृत्यु सैया पर हैं/वे चाहते हैं यह रकम लेकर आप/ अपने श्रीमुख से कह दें/ आपने उनको क़र्ज़ मुक्त किया/मैं गांव चला जाऊंगा तब मेरे पिता/चैन से मर सकेंगे/पिता अचम्भे में पड़ गये उनको नहीं/मालूम की कब का क़र्ज़ है/...(क़र्ज़ की अदायगी) ” मूल्य बोध है, “... आदमी और पशुओं का / यह रिश्ता अनोखा था / मियां खेलार/ आदमी की आदिम दोस्ती का प्रतीक था/..(मियां खेलार)” पेशे में समर्पण है, ....”मारजा नियमों के कड़े थे/कोई छात्र यदि पोशाळ (पाठशाला) में /अनुपस्थित होता वे/ उसके घर पहुँच जाते/ उसे पकड़कर साथ ले आते./...(भाईया मारजा)” और “..... कहतें हैं गुजर कभी दूध में पानी नहीं मिलाते/ उन्हें खण (प्रतिज्ञा) है के यदि वे ऐसा करेंगे/ उनके बच्चे मर जायेंगे/...(हसीना गुजर) ” बाजार के लिए जीवन नहीं, जीवन के लिए बाजार है, ....”वे चाहते तो अपनी प्रसिद्धि का लाभ/ उठा सकते थे असेंस डालकर / सैकड़ों बोतलें बेच सकते थे/ मुनाफा कमा सकते थे/ ऐसा करने को तैयार नहीं थे वे/..(बेला का शरबत)” पंथ जीवन में गायब है ,... “गुजर कौम मुसलमान है पर उनका/ दूध हिंदू भी पीतें हैं/ ऐसा करते वक्त उनकी चोटी/ खड़ी नहीं होती/ उनका धर्म भ्रष्ट नहीं होता/ यह ठीक वैसे ही है जैसे / आदमी का खून मज़हब नहीं जानता / ठीक वैसे ही दूध भी कभी/ मज़हब में भेदभाव नहीं करता/दूध गाय देती है/ वह मज़हब नहीं जानती..(हसीना गुजर) और “...बाबा की जांत-पांत का / किसी को पता नहीं/पूछने पर कहतें हैं/पानी पीकर किसी से जाति मत पूछो..(गंगा बाबे की पो) ” मानिक बच्छावत के इस कविता संग्रह ‘इस शहर के लोग’ में स्मृतियों के सहारे उकेरे गये व्यक्ति चित्रों के माध्यम से पूरी संस्कृति सामने आती है “.... कजलू हिंदू था फकरू मुसलमान था/ दोनों ही गांधी कहलाते थे/ गांधी कोई जात नहीं थी/ वे खुशबुओं का व्यापार करते / गंधी थे गांधी हो गये थे/...(कजलू गांधी) ” मानिक बच्छावत की ये कवितायेँ संवेदना की अभिव्यक्तियाँ हैं “.....कमज़ोर को कोई /सताता उनको/ गुस्सा तब था आता/...(नत्थू पहलवान)” इन कविताओं में आंचलिक परंपराओं से उपजे इल्मी रोजगारों की कथा है ....”उदाराम को यह ज्ञान अपने/ पूर्वजों से मिला था/ वह ज़मीं सूंघकर बता सकता था कि/निचे पानी है या नहीं/...(उदाराम सुंघा)” , वहीँ बाजार द्वारा उन्हें हड़पे जाने की व्यथा भी है- “....अब आ चुकें हैं कई विदेशी ब्रांड/ कोई नहीं देखता कि / हर पैर की अपनी अपनी खास बनावट होती है/.. (रामचंद्र मोची)” बाज़ार मुनाफे में मुक्ति खोजता है, उसकी संवेदनाएं बाजारू होती है “...अब लोग/ बने बनाये कपड़े खरीदकर पहनने लगे/हाथ के कमाल का जलवा अब नहीं है/...(सूरजो जी दर्जी)”
हिंदी, अरबी, फारसी और अंग्रेजी के साथ स्थानीय राजस्थानी शब्दावली का अभिनव प्रयोग है जो हिंदी भाषा को समृद्ध करता है और ‘राजस्थानी’ को भाषा नहीं मानने वालों के अतार्किक रवैये को गंभीर चुनौती देता है इन भाषाई शब्दों में राजस्थान की संस्कृति झलकती है ‘इस शहर के लोग’ की कविताओं में एक आत्मीय आवेग है अतीत और वर्तमान का द्वंद्व है, विकास के नाम पर ‘क्या खोया-क्या पाया’ की जांच-पड़ताल का मूक अनुरोध है और यक्ष प्रश्न है - क्या परिवर्तन के नाम पर कुछ भी स्वीकार किया जाना उचित है ?
कवि परिचय
लगातार दक्षिण-पूर्व एशिया, अमेरिका, यूरोप एवं अन्य देशों में यात्राएं करते रहने वालें रचनाकार मानिक बच्छावत का जन्म 11 नवंबर 1938 (कलकत्ता) में, शिक्षा- एम.ए. (कलकत्ता विश्वविद्यालय) काव्य संग्रह- नीम कि छांह (1960), एक टुकड़ा आदमी (1967), भीड़ का जन्म (11972), रेत की नदी (1987), एक टुकरो मानुष (बांग्ला में अनूदित), पीड़ित चेहरों का मर्म (1994), तुम आओ मेरी कविता में (2000), फूल मेरे साथ हैं (2001), पत्तियां करती स्नान (2003), पेड़ों का समय (2009), इस शहर के लोग (2010) गद्य- जुलूसों का शहर (1973). आदम सवार (1976) अनुवाद- प्रतिद्वंद्वी (सेरेडन के ‘राइवल्स’ का हिंदी अनुवाद), विदेशी कविताओं का अनुवाद, संपादन- मारीशस की हिंदी कवितायेँ (1970), ‘अक्षर’ कविता पत्रिका का संपादन (1965-70) , कविता इस समय (2007)
स्वतंत्रता आंदोलन और मारवाड़ी व्यापारी
- केशव भट्टड़
स्वतंत्रता की भावना संस्कृति से ही प्रसारित होती है ‘पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं’- इस भावना के मूल में देश प्रेम की भावना कार्य करती है जिसका आधार मज़बूत सांस्कृतिक धरोहर होती है मारवाड़ी व्यापारी भी देशप्रेम की इस पवित्र भावना से अछूते नहीं थे और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में इनकी प्रत्यक्ष और परोक्ष मगर महत्वपूर्ण भूमिका रही भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में मारवाड़ी व्यापारियों की भूमिका पर हिंदी और संविधान सम्मत अन्य भाषाओँ में कार्य नहीं के बराबर हुआ है संविधानिक सहमति के आभाव में राजस्थानी भाषा का अन्य भाषाओँ से परिचय विकास अत्यंत धीमी गति से हो रहा है परिणामस्वरूप मारवाड़ियों या राजास्थानियों के महत्वपूर्ण कार्यों का लेखा जोखा स्थानीय और प्रादेशिक स्तर तक सिमित रह जाता है मारवाड़ियों के बारे में प्रदेश में प्रचलित धारणा कि ये सिर्फ व्यापारी हैं, एक भ्रान्ति के अलावा कुछ नहीं संस्कृति, साहित्य और राष्ट्रीयता के उत्थान में मारवाड़ी व्यापारियों का तन-मन-धन का भरपूर सहयोग रहा कोलकाता के राजस्थानी कवि और शायर चम्पालाल मोहता ’अनोखा’ के अभिनन्दन पर वरिष्ठ कवि श्री ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’ ने मारवाड़ी समाज का साहित्य और संस्कृति के विकास में अहम योगदान स्वीकार करते हुए अध्यक्षीय व्यक्तव्य में कहा कि राजस्थानी समाज देश का कवच और अस्त्र है वर्तमान में यह याद करना समीचीन होगा कि भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में मारवाड़ी व्यापारी वर्ग की क्या भूमिका रही ?

उन्नीसवीं शताब्दी में राजस्थान के मारवाड़ी व्यापारी पूरे अंग्रेजी भारत, दक्षिण और मध्य भारत में अपना कारोबार फैला चुके थे इस समय तक सामान्य रूप से इस वर्ग का अंग्रेज सरकार या अंग्रेज व्यापारियों की नीति से कोई मतभेद नहीं था, परन्तु जो व्यापारी अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ‘जफ़र’ और मध्य भारत की देशी रियासतों के शाषकों के संपर्क में थे उनका अंग्रेज सरकार से मोह भंग होने लगा था सन 1857 तक यह रोष बढ़ गया देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में इन व्यापारियों ने अपनी जान माल की परवाह किये बगैर स्वतंत्रता सेनानियों की मदद की यह मदद मुख्य रूप से आंदोलन के लिए धन देकर की गई थी इस आर्थिक मदद से अंग्रेज सरकार इतनी घबरा गई कि इन व्यापारियों को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया सन 1857 में ग्वालियर राज्य का खजाना वहाँ के नामचीन व्यापारी सेठ अमरचंद बांठिया की देख रेख में था सेठ बांठिया मूल रूप से बीकानेर रियासत का मारवाड़ी व्यापारी था जब ग्वालियर पर रानी लक्ष्मी बाई , नाना साहेब और तांत्या टोपे का हमला हुआ तब सेठ बांठिया ने ग्वालियर का खज़ाना इनकी सेना के खर्च पूर्ति हेतु इन्हें ही सौंप दिया अंग्रेज सरकार ने इस घटना को राजद्रोह मानकर सेठ अमरचंद बांठिया’ बीकानेर वाला’ को फांसी पर चढा दिया दिल्ली में मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ‘जफ़र’ की खुल्लमखुल्ला आर्थिक मदद करने वाले मारवाड़ी व्यापारी रामजीदास गुड़वाला का खजाना जब्त कर अंग्रेजो ने उन्हें भी फांसी पर लटका दिया इसी तरह जब तांत्या टोपे भागकर जयपुर से लालसोट होते हुए सीकर पहुंचे, सेठ रामप्रकाश अग्रवाल ने गहने और धन देकर उनकी मदद की शोलापुर के कृष्णदास सारडा और सतारा के सेठ सेवाराम मोर भी अपनी उग्र कारवाइयों के चलते फांसी पर झूला दिए गये 1857 के क्रांतिकारियों के बीच समनव्यय का कार्य मारवाड़ी व्यापारियों ने किया सन्देश-समाचार पहुंचाना, सन्देश वाहकों को अपने घर में आश्रय देना, क्रांतिकारियों और उनके रिश्तेदारों को अपने यहाँ छुपाकर रखना आदि अनेक कार्य मारवाड़ी व्यापारियों द्वारा किये जाते रहे 1857 की क्रांति की असफलता के बाद नाना साहब पेशवा का भतीजा मार्च 1862 में दक्षिण भारत के हैदराबाद में सेठ मोहन लाल पित्ती और सेठ शरण मल के यहाँ गुप्त रूप से रह रहा था पता चलने पर अंग्रेज सरकार ने दोनों पर भारी जुर्माना ठोक कर उन्हें सजा दी
सन 1857 की क्रांति के बाद से सन 1900 तक मारवाड़ी व्यापारियों और अंग्रेजों में सीधा टकराव नहीं हुआ विद्रोह के बाद दोनों पक्ष अपनी अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में लगे हुए थे इस समय तक प्रशाष्निक सुधारों के नाम पर देश की लगभग सभी रियासतों में परंपरागत कानून की जगह अंग्रेजी कानून लागू हो चूका था इसका असर दूसरे वर्गों के साथ साथ व्यापारी वर्ग के परंपरागत विशेषाधिकारों पर भी पड़ा इस कारण रियासतों के व्यापारी और उनके प्रवासी भाई-बंधू , दोनों में अंग्रेजों के प्रति कटुता बढती गई उदयपुर राज्य के लगभग 2000 व्यापारी 30 मार्च 1864 को नगरसेठ चम्पालाल के नेतृत्व में कर्नल ईडन के घर विरोध प्रदर्शन के लिए पहुंचे और सात दिनों की हड़ताल के बाद समझौता हुआ कालांतर में मारवाड़ी व्यापारी अंग्रेज व्यापारियों के एकाधिकार को हर जगह चुनौती देने लगे शीघ्र ही मारवाड़ी व्यापारिओं की समझ में आ गया की राजनितिक दबाव और समर्थन के बगैर केंद्रीय सत्ता से जुड़े अंग्रेज व्यापारियों से व्यावसायिक टक्कर लेना मुश्किल है अंतः 1898 में बंगाल के मारवाड़ी व्यापारियों ने ‘मारवाड़ी एसोसियेशन’ नाम की संस्था बनायीं इस संस्था की स्थापना के साथ उनकी घोषणा थी-‘ राजनीति का सम्बन्ध व्यापार से रहता है और यह प्रत्यक्ष रूप से व्यापार को प्रभावित करती है, इसलिए ‘मारवाड़ी एसोसियेशन’ भारत की राजनीति से परहेज़ नहीं रखेगी’ इसके साथ ही मारवाड़ियों से सम्बंधित पत्र-पत्रिकाओं में , जिसमे ‘मारवाड़ी’ और ‘अग्रवाल’ पत्रिकाएं उल्लेखनीय है, मारवाड़ी व्यापारियों से राजनीति में सक्रिय योगदान का आह्वान किया गया देखते ही देखते ‘मारवाड़ी एसोसियेशन’, ‘वैश्य सभा’ और ‘बुद्धिवर्धिनी सभा’ के माध्यम से सैकड़ों प्रगतिशील मारवाड़ी युवक तत्कालीन भारतीय राजनीति में रूचि लेने लगे

‘मारवाड़ी एसोसियेशन’, ‘वैश्य सभा’ और ‘बुद्धिवर्धिनी सभा’ के माध्यम से सैकड़ों प्रगतिशील मारवाड़ी युवक तत्कालीन भारतीय राजनीति में रूचि लेने लगे थे सन 1905 के आते-आते ये मारवाड़ी युवा राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ने शुरू हो गये बंग भंग के विरोध में बंगाल के जन आंदोलन में, विरोध सभाओं में और बाद में बंगाल के क्रन्तिकारी आंदोलन में ये युवक सक्रिय भूमिकाओं में नज़र आने लगे बंगाल के मारवाड़ी व्यापारियों ने इंग्लैण्ड स्थित मैंनचेस्टर के ‘चेंबर ऑफ कामर्स’ से अनुरोध किया की वे ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालें और बंग भंग को रुकवाने में मदद करें विदेशी माल के बहिष्कार आंदोलन को मारवाड़ी व्यापारियों के सहयोग से बल मिला सितम्बर 1904 में बंगाल में जहाँ 77000 रुपये का विदेशी कपडा बिका वहीँ सितम्बर 1905 में मात्र 10000 रुपये का 21 अक्टूबर 1905 को ‘भारतमित्र’ में ‘बंगविच्छेद’ शीर्षक लेख में लार्ड कर्जन को उग्र मुद्रा में बाल मुकुन्द गुप्त ने संबोधित किया, ‘आपके शाषन काल में बंगाविच्छेद इस देश के लिए अंतिम विषाद और आपके लिए अंतिम हर्ष है......दुर्बल की अंग्रेज नहीं सुनते” मारवाड़ियों में आक्रोश की लहर उठी ‘जणनी जने तो दोय जण, के दाता के सूर’ की परंपरा के मारवाड़ी युवा हनुमान प्रसाद पोद्दार ‘स्वदेश बांधव’ और ‘अनुशीलन समिति’ जैसी क्रन्तिकारी संस्थाओं के सक्रिय सदस्य बने रामगोपाल नेवटिया ने ‘देशपरक’ मासिक पत्रिका निकाली और उसके माध्यम से क्रांतिकारियों-साहित्यकारों को प्रोत्साहित किया, समर्थन दिया बसंतलाल मुरारका ने शरत चंद्र बोस को एक लाख ग्यारह हज़ार रुपयों की मदद दी ओंकारलाल सर्राफ का क्रन्तिकारी आशुतोष लाहिड़ी और प्रभुदयाल हिम्मतसिंहका का क्रन्तिकारी अतुलनाथ से गहरा संपर्क था विजयसिंह नाहर ने बंगाल में अपनी उग्र राजनीति से बहुत नाम कमाया था सन 1913 में अंग्रेज सरकार ने मारवाड़ी युवकों को प्रेरणा देने वाली साहित्यिक संस्था ‘साहित्य संवर्द्धनी’ को प्रतिबंधित कर दिया सन 1914 में प्रसिद्ध ‘रोड़ा कांड’ में अनुशीलन समिति से जुड़े हुए फूलचंद चौधरी, ज्वालाप्रसाद कानोडिया, प्रभु दयाल हिम्मतसिंहका, घनश्यामदास बिडला, कन्हैयालाल चित्तलान्गिया, ओंकारमल सर्राफ, और हनुमानप्रसाद पोद्दार की गिरफ्तारी के वारंट जारी किये गये घनश्यामदास बिडला को छोड़ सभी को लंबी अवधी तक जेल में रखा गया ब्यावर के सेठ दामोदरदास राठी का बंगाल के क्रन्तिकारी अरविन्द घोष, रासबिहारी बोस और सचेतन गांगुली के साथ ही श्यामजीकृष्ण वर्मा, राजा महेंद्रप्रताप और राजस्थान के दूसरे क्रांतिकारियों से भी गहरा संपर्क रहा कलकत्ता और काशी के क्रांतिकारियों के सहयोग से राजस्थान में भी अर्जुनलाल सेठी के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने अपनी गतिविधियां बढ़ा ली थी उनको जयपुर के सेठ छोटेलाल और मोतीलाल ने काफी आर्थिक मदद की तब तक महात्मा गांधी का प्रवेश भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में नहीं हुआ था

सन 1915 में महात्मा गांधी के भारतीय राजनीति में पदार्पण के साथ ही मारवाड़ी व्यापारियों का झुकाव उनकी तरफ हुआ महात्मा गांधी की भावुक राजनीति ने मारवाड़ियों को आकर्षित किया सेठ जमनालाल बजाज इनमे अग्रणी थे एनी बेसेंट के होम रुल आंदोलन में सेठ फूलचंद चौधरी और सेठ कन्हैलाल चित्तलान्गीया गिरफ्तार हुए जलियांवाला बाग की घटना में मारवाड़ी युवक भी मारे गये थे उस समय तक कांग्रेस मारवाड़ियों का महत्व समझ चुकी थी इसलिए सन 1920 में जमना लाल बजाज को कांग्रेस पार्टी का कोषाध्यक्ष बना दिया गया कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में ‘तिलक स्वराज फंड’ में ज्यादा से ज्यादा कोष जमा करवाने का आव्हान महात्मा गांधी ने किया इसके जबाब में जमनालाल बजाज, आनंदीलाल पोद्दार, रामकृष्ण मोहता, घनश्यामदास बिडला, केशोराम पोद्दार, रामकृष्ण डालमिया और सुखलाल करनानी ने लाखों रुपये स्वराज फंड में जमा करवाए अकेले कलकत्ता के बडाबाजार से उस समय दस लाख रुपये एकत्रित हुए महात्मा गांधी के विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आंदोलन का नेतृत्व जमनालाल बजाज और कृष्णदास जाजू ने किया शेखावटी के हर बड़े कसबे में घनश्याम दास बिडला ने खादी भण्डार खुलवा दिये थे जमनालाल बजाज, घनश्यामदास बिडला, कृष्णदास जाजू, सिद्धराज ढढा, ब्रजलाल बियानी दूसरे मारवाड़ी व्यापारियों के साथ खादी प्रचार-प्रसार, हरिजन उद्धार के कार्यक्रमों में महात्मा गांधी के सक्रिय सहयोगी रहे घनश्याम दास बिडला हरिजन-सेवक संघ के अध्यक्ष थे जमना लाल बजाज और सिद्धराज ढढा ने राजस्थान की रियासतों में घूम घूम कर खादी और हरिजन-उद्धार का बहुत प्रचार किया नमक सत्याग्रह में मारवाड़ियों ने खुलकर भाग लिया असहयोग आंदोलन की रीढ़ ही मारवाड़ी व्यापारी थे तत्कालीन बंगाल सरकार के अधिकारी ए. एच. गज़नवी ने वायसराय के प्रतिनिधि कनिंघम को 27 अगस्त 1930 को पत्र लिखा –“ महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से मारवाड़ियों को अलग कर दिया जाये तो 90 फीसदी आंदोलन यूं ही खत्म हो जायेगा ” अंग्रेज सरकार ने बंगाल के मारवाडी व्यापारियों को आन्दोलन से अलग करने के लिए राजस्थान की रियासतों के शाषकों पर दबाव दिया लेकिन लगभग सभी रियासतों ने इसमें अपनी असमर्थता जता दी उस समय मारवाड़ियों की संस्थाओं ने मारवाड़ियों से भारतीय राजनीति में और ज्यादा सक्रिय होने का आह्वान किया अखिल भारतीय माहेश्वरी सभा के सन 1931 में हुए 10 वें सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सेठ बृजलाल बियानी ने आव्हान किया –‘ माहेश्वरी समाज ने आन्दोलनों में धन दिया,जेल भुगती लेकिन अब समय आ गया है की समाज का बच्चा-बच्चा देश पर बलिदान होने के लिए तैयार रहे” इसी तरह अखिल भारतीय मारवाड़ी सम्मेलन के भागलपुर में आयोजित चौथे सम्मेलन में स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले मारवाड़ियों की प्रसंशा में प्रस्ताव पास किया गया सुभाष चंद्र बोस की ‘आजाद हिंद फौज’ को सहयोग करने के लिए सेठ भगवान दास बागला ने वर्मा में रंगून स्थित अपनी ‘नेशनल बेंक ऑफ इण्डिया’ ही सुभाष बाबु को सौंप दी सन 1942 के ‘करो या मरो’ आंदोलन में डॉ.राम मनोहर लोहिया और मगनलाल बागड़ी का योगदान अविष्मर्णीय है मालचंद हिसारिया और नेमीचंद आंचलिया गिरफ्तार हुए भारत छोड़ो आंदोलन में 483 मारवाड़ियों को सजा सुनाई गई राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान वैचारिक क्रांति में जो अखबार अपना योगदान दे रहे थे वे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मारवाड़ी व्यापारियों के आर्थिक सहयोग से ही निकाल रहे थे हिंद केसरी, हरिजन, कर्मवीर, प्रताप, लीडर,त्याग-भूमि, भारतमित्र आदि अखबार इसकी मिशाल हैं इस क्षेत्र में भागीरथ कानोडिया का योगदान महत्वपूर्ण है चिडावा के ताराचंद डालमिया और मंडावे के देव किशन सर्राफ का नाम इस क्षेत्र के किसानो कि समस्या समाधान हेतु संघर्ष में अग्रणी है सीकर के किसानो की समस्याओं का समाधान करने के लिए सीताराम सेक्सरिया ने जमना लाल बजाज के साथ मिलकर सफल परिश्रम किया अन्य राज्यों के किसान आंदोलनों को आर्थिक सहयोग देने में भी मारवाड़ी व्यापारी पीछे नहीं रहे
मारवाड़ियों के गृह राज्य-रियासतों की राजनीति सामंतो और शाषकों के अधीन थी मारवाड़ी व्यापारियों ने रियासतों के प्रमुखों के साथ मिलकर जनता को राजनितिक अधिकार दिलाने के लिए सन 1927 में ‘अखिल भारतीय राज्य प्रजा-परिषद’ की स्थापना की बाद में इसी संस्था के प्रयासों से रियासतों में प्रजा-मंडल और प्रजा-परिषदों का गठन हुआ इनके आंदोलनों में अन्य लोगों के साथ हीरालाल कोठारी, शोभालाल गेलडा, परसराम भी सक्रिय रहे बीकानेर में सन 1907 से मारवाड़ी व्यापारी गोपाल दास स्वामी के प्रयासों से जन-जागृति का फैलाव होना शुरू हुआ जो लगभग 1930 तक चलता रहा सन 1930 में बीकानेर षडयंत्र केस में लाला खूबराम सर्राफ और सत्यनारायण सर्राफ को लंबी सजाये हुयी जोधपुर में सन 1920 में भंवर लाल सर्राफ ने ‘मारवाड सेवा संघ’ और सन 1922 में चांदमल सुराना ने ‘मारवाड़ हितकारिणी सभा’ स्थापित कर जन जाग्रति का कार्य किया सन 1928 में मारवाड़ स्टेट पीपुल्स कांफ्रेंस का अधिवेशन मारवाड में करवाने के प्रयास के लिए आनंदराज सुराणा और भंवर लाल सर्राफ को राज्य सरकार ने गिरफ्तार कर लिया इसके विरोध में नृसिंह दास लुन्कड़ , जयनारायण गज्जा और कन्हैयालाल महेश्वरी ने अपनी गिरफ्तारी दी सन 1939 में जयपुर प्रजा-मंडल को गैर-क़ानूनी घोषित कर इसके अध्यक्ष जमनालाल बजाज के जयपुर प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया इसके विरोध में सत्याग्रह हुआ और जमना लाल बजाज के साथ केवलचंद मेहता, स्वरुप चंद सोमानी, सरदारमल गोलछा आदि ने गिरफ्तारी दी इस आंदोलन में श्रीमती सुमति देवी खेतान ने सक्रिय रूप से भाग लिया सिद्धराज ढढढा और सीताराम सेक्सरिया ने बाहर से आंदोलन का संचालन किया सन 1942 में मारवाड़ लोक परिषद के नेताओं कि गिरफ्तारी के विरोध में कलकत्ते में मालचंद अग्रवाल की अध्यक्षता में हुई विरोध सभा में सीताराम सेकसरिया, बसंतलाल मुरारका, मंगतुराम जयपुरिया, इश्वरप्रसाद जालान, रामेश्वरलाल नोपानी, रामकुमार भुवालका, भंवरलाल सिंघी, गंगाप्रसाद भौतिका, मातादीन खेतान आदि ने भाग लिया सन 1945 में व्यापारियों ने आयकर विरोधी आंदोलन चलाया और राज्य में उत्तरदायी शाषन स्थापित करने की मांग की कन्हैयालाल सेठिया ने ‘आगीवाण’ पत्रिका निकालकर राज्य प्रशाशन को झझकोर दिया आज़ादी प्राप्त होने के बाद बनी संविधान सभा में जबलपुर के मारवाड़ी व्यापारी और साहित्यकार गोविन्ददास मालपानी सदस्य थे इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास का गौरव शाली अध्याय लिखने वाले मारवाड़ी व्यापारियों ने पूरे देश के लोगों के साथ मिलकर तन,मन और धन से स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी महत्ती भूमिका दर्ज की (समाप्त)

[‘डॉ. गिरिजा शंकर शर्मा’ के शोध प्रबंध (1970) और राजस्थानी में प्रकाशित पत्रिका ‘जागती जोग’ में प्रकाशित सामग्री के आधार पर ]- केशव भट्टड़
भाषा , साहित्य, और लोकतंत्र

'तराश कर कदीम पत्थरों को घर बनाया है', कभी कहीं पढ़ा था ऐसा क्यों होता है कि राजनीति जो चाहती है -जैसा चाहती है,वैसा ही सोचा जाता है अमूमन बगैर सोचे-समझे मान लिया जाता है 'साहित्य समाज का दर्पण है'-क्या सचमुच ? आज का साहित्यकार केवल अपने खेमे का दर्पण है बेईमानी और इमानदारी के बीच की 'स्मार्ट टॉक' एक हद तक साहित्य में स्थापित हो चुकी है हिंदी हो या प्रांतीय अहिन्दी , कहने को नेतृत्व इसका है, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि नेतृत्व की नाव इसके तट से कितनी दूर है 'यथा राजा,तथा प्रजा' वाली सोच के लोग लोकतंत्र को कितना समझते हैं ? व्यक्ति से विचार तक की यात्रा एक सरल रेखा नहीं है, लेकिन चलना तो शुरू हो सरकार की अपनी कुंठाए, अपनी मजबूरियां पूरे कार्य काल में दिखाई दे जाती है फिर भी चुनाव में कहने को नये वादे,नयी बातें हमारे राजनीतिबाज इस फन में माहिर हो चुके हैं और हम कान के कच्चे साहित्यकारों का बेडा पार लगाने वाली 'स्मार्ट टॉक' इनका भी बेडा पार लगाती है हम सब ने देखा है कि अपने लाभ के लिए कहीं वैचारिक मतभेद इनमे नहीं है (अपनी सेलेरी और पर्क्स बढ़ाने के लिए लेफ्ट को छोड़कर सब एक हो गये थे) दरअसल चुनावी मौसम में ही विचारधाराएँ उफनती नदियों का अवतार लेती है नहीं तो बदबू मारते नाले से ज्यादा इनकी औकात नहीं है ऐसे सड़े-गले माहौल में हमारी संस्कृति ही हमें बचा सकती है लेकिन इसका हाजमा भी दुरुस्त नहीं चश्मे कई हैं , लेकिन सही चीज फिर भी ओझल है हर जगह इतने परदे हैं की उनके पार कैसे झांके - सुराखों पर पाबंदियाँ है दरअसल स्वतंत्र साहित्यकारों का , विचारकों का ,पत्रकारों का,मध्यम वर्गीय प्रोफेसनल्स का , पढ़े-लिखे बेरोजगारों का, विश्वविद्यालयों के सक्रिय पढ़ाकुओं का ,कलाकारों का, विश्वसनीय नेताओं का एक निष्पक्ष वैचारिक साझा मंच तक पूरे देश में कहीं नहीं है बल कहाँ से आये शरीर खुजली से भरा है लेकिन ऊपर तो सूट पहना हुआ है और मुंह खोलने का साहस नहीं इलाज़ कैसे हो ? धीरे-धीरे खुजली में मज़ा आने लगता है कुल मिलाकर विश्वसनीयता कहीं नहीं है हमारा लोकतंत्र सर के बल खड़ा है-बाजीगरों का तमाशा; और हम तमाशो के शैदाई आज के राजनितिक मूल्य सामाजिक मूल्यों से भिन्न हैं प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति से आगे चलने वाली मशाल है -उनका कहा उनके साथ गया अब सारी चीजों की मशाल और मिसाल राजनीति से इतर कुछ भी नहीं जोड़-तोड़ से एक लाला जब किसी संस्था का सभापति बन जाता है तो दूकान की तरह वह संस्था को चलाता है, और चाहता है कि सभी उसके सामने नतमस्तक हों, आखिर वो सर्वोच्च है जागरूक जनता की चेतना राजतंत्र को रास नहीं आती वहाँ 'खरा' और 'खारा' दोनों ही हाशिये पर हैं राजतंत्र की भावनाओं और भंगिमाओं को उधार लेकर हमारा लोकतंत्र चल रहा है इसके अपने भाव-भंगिमाओं का, विचार का, संवाद का विकास होना बाकि है तब वो 'पोजिटिव पाथ' साकार होगा जिसके सपने हम देखते हैं
भाषा का रोल संवाद और तर्क से लेकर विचार बनाने तक, सब जगह मौजूद है अब देखिये हिंदी मनोरंजन (तनोरंजन पढ़ें) की भाषा बनकर रह गई है हिंदी वालों की सामूहिक समझ के औसत के हिसाब से सिनेमा, रेडियो, टी.वी. में हिंदी परोसी जाती है, क्योंकि बाज़ार का मामला है गंभीरता उसमे कम है प्लानिंग,प्रोसेस और अंतिम परिणिति को छोड़कर यहाँ सिर्फ हासिल नतीजें दिखाए जाते हैयह मान लिया गया है कि हिंदी वालें मानसिक पिछडेपन के वाहक हैअंतः ज्ञान-विज्ञान की चर्चा , बौद्धिक बहस के दायरे से बाहर हैं कुछ हटी लोग हैं जो फिर भी बाज़ नहीं आते और अपना मोहल्ला खड़ा कर लेतें हैं, वैचारिक चर्चा करते है और मोहल्ले की हलचल बढ़ाते हैं नीति निर्धारण करने वाला अमला अभी भी हिंदी को थर्ड क्लास से ज्यादा महत्व नहीं देता शाषन की भाषा बनकर फारसी पूरे देश में फैली आज वही सम्मान अंग्रेजी का है तो कुल मिलाकर हिंदी शोषितों -वंचितों की भाषा है शोषित हैं-दमित हैं-वंचित हैं क्योकि अनपढ़ हैं,गंवार हैं, बेजुबान है लेकिन मजबूरी है- बाजार में यही लोग अधिक है हिंदी की जो भी चमक दिखाई पड़ रही है वो बाजार की मजबूरी हे या हिन्दीवालों का दमखम - जानना बाकी है 'क्या करें,एक की कमाई से पूरा नहीं पड़ता'-अमर वाक्य के कारण महिलाएं काम-क़ाज़ी हो रहीं है या नारी मुक्ति आंदोलन के कारण- बताइए विरोधाभास से जनित विडंबनाएं हिंदी वालों की नियति मालूम होती है या इमानदारी का आभाव है राजनीति हमारे देश में नहीं होती, यहाँ जो होता है वो मत प्राप्त करने की नीति (मतनिती) से ज्यादा नहीं गाय को चारा मिलता रहें तो वो शांत रहती है खटालवाला चारा देता है या थपकी दूध तो उसने निकालना ही है अपन तो भोंथरी कलम चला सकते हैं या ताली बजा सकते हैं नख-दन्त हीन हिंदी वाले और किस लायक है ? लेखक मित्र प्रश्न उठाते हैं कि हिंदी की चर्चा में आलोचक, साहित्यकार या पत्रकार किस्म के लोग ही क्यों सुनाई देते है ? मध्यमवर्ग का इतना बड़ा दायरा है तो अन्य विद्याओं के लोग क्यों नहीं आते ? विदेशी साहित्यकार तो भूल से भी नहीं ऐसा क्यों ? भाई साहब , इस भाषा का विशाल मध्यम वर्ग चर्चा में आयेगा , हिंदी के केन्द्र में आयेगा तो उसके साथ उसका चिंतन उसकी समस्याएं भी आएँगी,जो नये साहित्यिक विषयों को जन्म देंगी और यह वैविध्यता से भरा विशाल वर्ग उनका समाधान भी मांगेगा तो एक - इससे 'सुराज !' 'डिस्टर्ब' होगा 'डिस्टर्बेंस प्रोग्रेस को एफ्फेक्ट करेगा' बताइए ,प्रोग्रेस के साथ कहीं समझौता होता है ? इसलिए हिंदी वालों को पूर्ण सम्मान का दिखावा करते हुए सिमित दायरे में रखना जरूरी है दो- हिंदी के तथाकथित महाविद्वान मध्यमवर्गीय विचारों के कितने नजदीक-कितने दूर हैं, पता चल जायेगा गांव की दिवार पर उपले सूखते देखकर कोई विद्वान सोच सकता है - 'दिवार पर गाय कैसे चढ़ी ? इसलिए उन लानतो को शाषन की प्रोत्साहन नीति के स्तर पर 'मैनेज' करना जरूरी है जिसकी मलामत बुद्धिजीवी करते रहें हैं विडम्बना देखिये कि राजनीति मनुष्य के लिए होनी चाहिये पर भारतीय राजनीति के केन्द्र से मनुष्य गायब है और बाजार इसका मुकुट है बाजार के लिए हिंदी भाषी (बड़ा बाजार) है ही कनस्तर-बोतल नहीं तो हिंदी के सहारे शेशे ही बेच लेंगे पढ़े लिखे मध्यम वर्ग का हिंदी-दर्प किसी कोने में पड़ा है, ढूँढिये घटनाओ की श्रृंखला से जुडकर कुछ शब्द मनोवैज्ञानिक रूप से खास 'पिक्टोरिअल प्रजेंटेसन' देने लगते हैंसाहित्यकारों की लेखनी उस शब्द चित्र में गहरे रंग भरे या उसका खरापन उभारे, ये उनकी भक्ति-शक्ति पर निर्भर हैअगंभीर से कुछ गंभीर उम्मीद रखेंगे तो तड़प बढ़ेगी संचार क्रांति ने वार्तालाप सुगम कर दिया हैउम्मीद साध रखिये कि वो सुबह कभी तो आएगी जब सदाशयता को भी पंख मिलेंगेकहानी सुनी है कि सागर-मंथन में शुरुआत में विष और आखिर में अमृत निकला बीते जमाने का पोपुलर फ़िल्मी गाना है-होनी को अनहोनी कर दे, अनहोनी को होनी/ एक जगह जब जमा हो तीनों; अमर-अकबर-अन्थोनी नहीं तो 'संस्कृत' की सदगति ही 'हिंदी और प्रांतीय भाषाओँ' की प्राप्ति होगी शर्म और झेंप 'खाने और सोने' वालों का विषय ही नहीं है लेकिन यदि आप जाग रहें हैं तो कबीर को याद कीजिये सहमतियाँ/असहमतियां अपनी जगह, बात-चीत अपनी जगह मकसद तो राह ढूढना है विदा
- केशव भट्टड़
सामाजिक और राजनितिक विषयों पर भगतसिंह का चिंतन - 1
धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम
कोलकाता 02 नवंबर विद्यार्थियों के बीच शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के विचारों को फैलाने के लिए भगतसिंह विचार मंच की स्थापना की गई है शहीद-ए-आज़म भगतसिंह की छोटी बहन बीबी अमर कौर के पुत्र और शहीद भगतसिंह शोध केन्द्र,लुधियाना के प्रो. जगमोहन सिंह मंच के संरक्षक हैं भगत सिंह विचार मंच ने भगत सिंह के लेखन पर महीने में दो बार विचार गोष्ठी आयोजित करने का निर्णय लिया है गत 9 अक्टूबर , शनिवार को शहीद यादगार समिति के कार्यालय में धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम विषय पर मंच के कार्यकारी अध्यक्ष केशव भट्टड़ की अध्यक्षता में विद्यार्थियों की पहली परिचर्चा गोष्ठी हुई
भगत सिंह विचार मंच की संयुक्त संयोजक श्रेया जायसवाल ने कहा कि बाकुनिन के इश्वर पर अनास्था सम्बन्धी विचारों ने भगत सिंह को गहरे तक प्रभावित किया भगतसिंह कहते थे कि अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि इश्वर ऐसा चाहता है, बल्कि इसलिए है कि उनके पास ताकत है और हम में उनके विरोध की हिम्मत नहीं है तमाम भक्ति-भाव के बाद भी भारत को मुक्त कर देने की भावना इश्वर ने अंग्रेज साम्राज्यवादियों को नहीं दी सब कुछ भगवान है , मनुष्य कुछ भी नहीं- ये संस्कार मनुष्य के आत्म विश्वास को खत्म कर देते हैं धर्म के विषय में कार्ल मार्क्स ने कहा था कि - “मनुष्य धर्म बनाता है, धर्म मनुष्य को नहीं बनाता” भगतसिंह पूछते हैं – “ तुम्हारा सर्व शक्तिमान ईश्वर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है ? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है, वह नीरो है, चंगेज है तो उसका नाश हो वें कहते हैं-“क्रांति के लिए खुनी लड़ाईयां अनिवार्य नहीं है और न हि उसमे व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है वह बम और पिस्तोल का संप्रदाय नहीं है क्रांति से हमारा अभिप्राय है – अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन स्वतंत्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गुलामी का नाम देते हैं वे धर्म को अपनी राह का रोड़ा मानते हैं हमारी आज़ादी का अर्थ केवल अंग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है-जब लोग परस्पर घुल मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आज़ाद हो जायेंगे”
भगत सिंह विचार मंच के संयुक्त संयोजक दिनेश शर्मा ने बाबा नागार्जुन की लंबी कविता “भगतसिंह” का पाठ किया श्री शर्मा ने कहा कि हमारी समस्या यह है कि एक तो पढ़ने के लिए भगत सिंह पर पर्याप्त पुस्तकें नहीं है ,दूसरे इन्हें पढ़ कर परीक्षा में पास नहीं हो सकते क्योंकि परीक्षा पास करने के हिसाब से यह पढाई का विषय ही नहीं बना है मैंने जितना भी पढ़ा है, लगता है के भगत सिंह को लोगों तक पहुंचाने से पहले खुद तक पहुंचाना जरुरी है यह विषय व्यापक चर्चा की मांग करता है लोग कहतें हैं कि भगतसिंह ने नास्तिकता पर “मैं नास्तिक क्यों हूँ ” निबंध बहुत अच्छा लिखा है और इसी कारण मैं धर्म को नहीं मानता हाय रे अंध भक्ति मुझे लगता है कि इसके पीछे उनकी भावना थी कि लोग उनके विचारों को जाने और विस्तृत अध्यन-मनन करें और स्वयं निष्कर्ष निकाले उनके इसी निबंध की एक पंक्ति “अध्यन की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूंज रही थी”, अब मेरे मन में भी गूंज रही है भगत सिंह ने कहा है कि विरोधियों द्वारा रखे गये तर्कों का सामना करने के लिए अध्यन करो, अपने मत के समर्थन में तर्क देने के लिए पढ़ो प्रत्येक मनुष्य को विकास के लिए प्रचलित रुढियों-विश्वासों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा अंध विश्वास नहीं तर्क के बाद सिद्धांत अथवा दर्शन का विश्वास करना होगा भगतसिंह पर अध्यन कर आपस में उस अध्यन को बांटना भी होगा भगतसिंह विचार मंच की यह परिचर्चा गोष्ठियां इसमें काफी सहायक हो सकती है अपने व्यक्तव्य के अंत में उन्होंने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता के अंश का पाठ किया - “ऐसा क्यों होता है ? / कि धर्मग्रन्थ छूकर भी / किसी आदमी के हाथ / जंगली जानवर के पंजे में बदल जाते हैं / जहरीले नाखून से वह / इंसान की सूरत नोचने लगता है / और ईश्वर का नाम लेते ही / जीभ लपलपाने लगती है / xxx/ मत्रों और आयतों की जगह / दहाड़ सुनाई देती है


आभार व्यक्तव्य के बाद परिचर्चा समाप्त हुई

केशव भट्टर